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23 दिसंबर, 2013

चाँद, चुप्पियाँ, चौराहे

चाँद रोज आसमान से निकलता था
पर
उस दिन उसने एेसा नहीं किया।

हर चीज 
भाषा में नहीं कही जा सकती
फिर भी
मेरे पास भाषा के सिवा
कहने के दूसरे अौजार हैं 
क्या?

चुप्पियाँ 
भी बहुत कुछ कहती हैं
खास तौर पर
जब वे चुनीं गयी हों
चुप्पी भी एक भाषा
नहीं है?

मेरा मौन
तुम्हारे भीतर छिपा है
कहीं
क्योंकि चाँद, उस दिन
आसमान से नहीं
जमींन के तालाब से उगा था ।

चाँद भी तो
भाषा ही है
जैसे 
दूरी  एक निकटता।

चौराहे
हर पल वीरान अौर आबाद 
होते रहते हैं
शायद
सबसे आबाद चौराहों पर
सबसे गहरा 
अकेलापन
होता है।

चाँद, चुप्पियाँ, चौराहे
अौर
नफरत
क्या ये कुछ भी नहीं कहते
पर
ये भाषा तो नहीं हैं
जैसे कि

जीवन .

21 दिसंबर, 2013

क्या दे सकता हूँ


मैं 
तुम्हें क्या दे सकता हूँ
केवल अपना अहं
जो तुम्हारी छाती पर
सलीब-सा टंगा
सोखता रहेगा
जीवन-रक्त।

आसमान सितारों से
भरा पड़ा है
टूटते हुए तारे
थोड़ी देर ध्यान खींचकर
लुप्त ही तो हो जाते हैं
फिर भी
बची रहती है सितारों की जगमागाती दुनिया
आकाश के विस्तार में
क्योंकि
उम्मीद एक कला है।

पेड़ों पर टंगी पत्तियाँ
मचलने के लिये करती हैं 
इंतजार
हवा के झोंकों का
आनंद आत्मनिर्भर नहीं होता
दार्शनिक पाखंड भी नहीं।

एक चौकस समाज में
जिंदा रहते
अौर 
संशय भरे, कोलाहल समय में
सोते हुए
सपने नहीं आते।

हँसी कितने मुश्किल दौर से 
गुजर रही है
अौर 
अभिव्यक्तयाँ कितने दबाव में।

उम्मीद एक प्रतीक्षा भी है

कीचड़ में 
रंगों की आजादी एक फरेब है
बर्फीले तूफान में
फूल एक प्रार्थना
तितलियों के पंख
जब सिले हों
महक पराग की 
मर जाती है, स्थिर ।

एक बोझिल आत्मा
अौर 
झुलसा हुआ मन
भला क्या दे सकता है
तुम्हें।

अहं, कला, प्रतीक्षा


उम्मीद? 

19 दिसंबर, 2013

गज़ल

फिजाअों में है तेरे इश्क का फसाना
फिर गाता तू क्यूँ है तराना पुराना

ये महफिल तुझे दाद देगी हमेशा
तू है यार एैसा है तेरा जमाना

होती रहती है दरवाजे पर मेरे दस्तक
हो जरूरत तुझे तू भी खटखटाना

ये दुनिया बड़ी है जालिम मगर
इससे हमको क्या करना कराना

माना मोहब्बत है दौलत बड़ी
दौलत का होता है आना अौ' जाना

कसकती रहें तेरी तन्हाइयाँ
चलता रहे ये सुनना-सुनाना

मायूस होने से क्या फायदा
चलते से होगा मकामों का आना

रात गहरी बहुत है अंधेरा घना
हवाअों से जलती शमा है बचाना

राज़दारों से राज छिपता नहीं
जिन्हें सब पता है उन्हें क्या बताना

मुफिलसी मयखानों में आती नहीं
चलता रहता वहाँ है पीना-िपलाना

बैठे जाके वो दूसरे के पहलू में
ठीक एैसा नहीं है जलना-जलाना

राही है ये 'राम' बे-मंजिलों का

मेरा पता नहीं तेरा क्या िठकाना

15 जुलाई, 2013

बहाव- एक कथा



सब कुछ तो बह गया

कालिदास का मेघदूत
तुलसी का घन घमंड
निराला का बादलराग
नागार्जुन के घिरते बादल

बादलों और बारिश से जुड़े
सारे अनुभव

आस्थाएँ भी कहाँ बचीं

केदार-मंडल की आरती
साक्षात शिव
और
उनसे जुड़ी सारी किंवदंतियाँ
हवन कुंड की आग
पुजारी की समिधा
भक्तों की प्राथनाएँ
सैलानियों के रोमांच
सपनों के तोरण
घंटियों की अनुरणन ध्वनियाँ
परिंदों का कलरव
हजारी का देवदारु

सब कुछ

जो बह गये
वे पत्थर के ढूह नहीं थे
टीले की झाड़ियाँ भी नहीं
वे आदमी थे

आदमी को दूसरे आदमियों से
उम्मीद होती है
आज भी
वह महफूज़ भरोसे से बाहर निकलता है
तंत्र और सरकारें भी तो
आदमी ही हैं
धर्म भी तो आदमी है
कष्ट क्रीड़ा कौतुक कौशल
संभावनाएँ
और
रिश्तों की श्रृंखला भी

पर
जिनको बहना था बह गये

कवि कविता में चला गया
संगीतकार संगीत में
औपचारिकताओं में चले गये
राजनेता औ प्रशासक
वैचारिक विचारधारा की क्रोड़ में
एक्टिविस्ट अपने आंदोलन की तेज करने लगा धार
चैनलों पर बादस्तूर चलते रहे कार्यक्रम
खरीद-फरोख्त के

फेसबुकिये भी सक्रिय हो उठे

जिनको बहना था बह गये
खुद शिव ही नहीं बचा सके अपना धाम
तो
इंसान की क्या बिसात

पर
वे लोग जो बह गये भुनगे तो नहीं थे
जिन्हें कीर्तन करते हुए श्रद्धांजलि दे दी जाय
और सीखा कुछ भी न जाय
सिर्फ मनोविज्ञान के बढ़ते फौरी दबाव को
कम कर लिया जाय

वेदना से सीखना भी तो चाहिये
और
जवाबदेही भी तय होनी चाहिये

ईश्वर तुम प्रश्नांकित हो
आपदा की इस घड़ी में

तीर्थयात्राएँ-
भगवान भरोसे नहीं चलनी चाहिये

दुर्घटनाएँ-
चाय का उबाल नहीं हैं
जो जलती आग तक खदबदातीं रहेंअौर
फिर
खामोश हो जायें
उन्हें रोकना होता है
कुशल प्रबंधनगहरे विवेक और दूरदृष्टि से

पर
जिन्हें बहना था बह गये

वे इतिहास के एक कच्चे समय
और
एक अविकसित भूगोल के नागरिक थे

वे
प्राकृतिक आपदा ही नहीं
मानव की दुरभिसंधियोंधनलिप्सा
और
अपने उत्साह के भी शिकार थे

खैर
वह मंजर ही बह गया
और
नाजिर भी ।
पर
कुछ है जो अब भी बचा है ।

उल्का पिण्ड


ऊर्जा से भरे
एक अनिश्चित गंतव्य की ओर
वे बढ़ते चले जा रहे हैं
वेग से ।
न कोई सरायन पड़ाव
उन्हें बेमुकाम ही
चलते चले जाना होगा
जब तक है शेष
उनके भीतर की आग ।
आग
सत्य और असत्य से परे
न्याय और अन्याय के बोध से अलग
बस संवेदनहीन आग ।

उल्का पिण्ड
बाँट नहीं सकते प्यार
न दया न ममत्व
स्नेह भी नहीं
न ही कर सकते स्वागत
अभिनंदन भी नहीं
झुलसाते हैं करीब आने पर ।

बेदखल हो चुके
अपने समूह से
खण्डित जीवन के विन्यास
वे ।
इन्हें नहीं मालूम
कब चुक जाएगी
इनके भीतर की ऊर्जा
और कब पथभ्रष्ट हो
ये
भेद देंगे
किसी मासूम बच्चे की हँसी
पेड़ की फुनगी पर मचलती गौरैया
खुशबू बिखेरने को आतुर
एक असावधान कली को
लहलहाती फसल की बालियों को
कब
तब्दील कर देंगे एक बंजर वीराने में
इन्हें नहीं मालूम ।

इन्हें नहीं मालूम
किस शक्ति संतुलन के गड़बड़ाने से
ये
खण्डित हो छिटक गए
अपने ही महाआयतन से
और
बन बैठे
क्षुद्र घनत्व के निरंकुश स्वामी
अनियंत्रित
और
अलक्षित भी ।

अपने उद्गम
समापन
गमन
भ्रमण
भटकाव और संधान की पटकथा में
ये
मात्र कठपुतली बनकर रह गये
कुछ भी न चुन सकने को विवश
सिवा इसके कि
इनका अस्तित्व रचा है
उद्वेलित अग्निपुंज से ।

29 नवंबर, 2012

शिंज़ुकु की एक शाम‍



तोक्‍यो मेट्रोपोलिटन सरकार


चलती हुई परछाइयाँ
एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हो जाती हैं
सजे हुए हैं सब
पब, बाजार, वस्‍तुएँ और रोशनियाँ ।

हँसी और चुप्पियाँ
साथ-साथ चलती हुईं
यकायक गुम हो जाती हैं।
कामनाओं का जादू
और
कामनाओं का व्‍यापार
पलते हैं एक साथ।
नया जनसैलाब उमड़ आता है
सड़कों पर
फिर शहर सोख लेता है
आदमियों को
रोशनियाँ भैरवी-सी जगमगाती रहती हैं।
शिंज़ुकु एक विशिष्‍ट भूगोल है
आधुनिकता का भूगोल
जहाँ उगती थीं फसलें
तिनके दूब और खिलती थीं कलियाँ
फूल
मंडराती थीं तितलियाँ
वहाँ अब उग आयी हैं
बहुमंजिला गगनचुंबी इमारतें
अनेक।
हर भूगोल का अपना इतिहास होता है
और इतिहास
इतिहास का भी तो अपना भूगोल।
शिंज़ुकु
दुनिया के बदलते हुए भूगोल का इतिहास है
इत्‍तेफा़क़ है कि
बरस रहे हैं बादल मूसलाधार
बारिश एक भौगोलिक पर‍िघटना
पर, इसकी अनगिनत यादें
अनंत इतिहास
यह लम्‍हा
बन जाता है यादगार
जबकि
सिगरेट से निकलते हुए धुएँ
तब्‍दील हो जाते हैं
चिमनियों की शक्‍ल में
और
रेस्‍त्राओं से उठती हुई
तड़कों की खुशबू
मिल जाती है एक-दूसरे में।
जाने क्‍या-क्‍या पक रहा है
भीतर
शिंज़ुकु की इस शाम में।