


दार्जिलिंग में मौसम खुशगवार था। पर शहर के निचले हिस्से में पूरी धकमपेल थी। पहाडियाँ पूरी तरह बस्तियों से आच्छादित हो चुकी हैं। हाँ आसमान में बादलों का रेला जरूर लगा रहता है। यहाँ हमने चाय बागान देखें और उनमें सैर भी की। तिब्बती शरणार्थियों का एक शिविर भी यहाँ है। वे बड़े शानदार कालीन ऊनी कपड़ों का निर्माण यहाँ करते हैं। एक दृढ़ता और विराट संकल्प आज भी उन्हें अपनी आजादी का सपना संजोने के लिए प्रेरित किए हुए है। एक जापानी मंदिर भी हमने देखा, बुद्ध का शांति संदेश रचता हुआ।दो दिन दार्जिलिंग में व्यतीत कर हम कालिमपोंग की ओर निकल पड़े। इस शहर की चर्चा राहुल जी ने अपने यात्रा-वृतांतों में विस्तार कर रखी है। कालिमपोंग का मुख्य बाजार दिल्ली के सदर जितना ही भीड़भाड़ वाला है और लगभग उसी तरह की वस्तुओं की खरीद-बिक्री भी यहाँ होती है। देवलो की पहाड़ी यहाँ की सबसे शानदार और ऊँची जगह है। यहाँ से तिस्ता नदी का अद्भुत नजारा दिखता है। पहाड़ों के ऊपर छिपी बस्तियों उसमें रहने वाले लोगों का शांतिमय जीवन मेरे भीतर भय का संचार करता है । मुझे हमेशा डर लगता हे कि मैं कभी वैराग्य न धारण कर लूँ। एक बार शायद 12 वीं कक्षा में था तो हरिद्वार के सतपाल महराज के आश्रम में इसी उद्देश्य से पहुँच गया था। खैर, कालिमपोंग में बहुत से बौद्ध विहार हैं और फौज की छावनी भी। पर, लोग वैसे ही संघर्षरत हैं, जैसे कहीं और।
क्रमश: जारी