भारत और जापान के संबंध बहुत पुराने और प्रगाढ़ रहे
हैं। जापानी लागों के परिश्रमी होने और ईमानदारी के किस्से भारत में किंवदंती की
तरह प्रसिद्ध हैं। ण्क बार जब मैं अपने उत्तर प्रदेश के अपने गाँव गया तो पता
चला कि बहुत पहले पड़ोस के एक गाँव से राम सिंह गुलेरिया जापान के ओसाका गए थे और
फिर वहीं विवाह करके स्थाई तौर पर बस गए थे। बाद में उनकी मृत्यु और वारिस के
अभाव में उनकी परिसंपति को भारत में उनके परिजनों को सौंपा गया और उस धन का
सदुपयोग करते हुए आज राम सिंह गुलेरिया डिग्री कालेज बना है। बाद में जब मेरे गुरू
प्रो0 सुरेश ऋतुपर्ण जापान में अध्यापन के लिए आए तो उनसे जापान के बारे में
बहुत-सी जानकारी मिलती रहती थी। उन्हीं दिनों मैं हिंदू कॉलेज में पढ़ाने लगा था
और जब-जब ऋतुपर्ण जी जापानी छात्रों को भारत भ्रमण के लिए लाते तो मेरी भी उनसे
मुलाकात हो जाती थी। इसी समय जापान को थोड़ा करीब से जानने का मौका मिला।

जब भारत से जापान के लिए चला तो मन में कई तरह के
संदेह थे। लेकिन यहाँ पहुँचने से पहले ही रास्ते में असम के अरूप चौधरी से
मुलाकात हो गयी। वे फिजिक्स में डाक्टरेट करने के लिए योकोहामा में पहले से ही
रहते थे। उनके साथ चलता हुआ जब मैं आव्रजन अधिकारियों तक पहुँचा तो उन्हानें
सामान्य पूछताछ ही की और फल तथा सब्जियों का एक चार्ट दिखाकर पूछा कि आपके पास
इनमें से कोई चीज तो नहीं है। मैंने मना किया और उन्होंने मुझे आगे निकलने दिया।
इसके पहले ही फिंगर प्रिंट और रेटिना स्केन जैसी औपचारिकताएँ हो चुकी थी। बाहर
निकला तो मिजुनो जी अपनी व्यस्तता के बावजूद हिंदी में लि खी मेरे नाम की पट्टी
लिए खड़े थे। अरूप को भी थोड़ा आश्चर्य हुआ और उसने मुझे कहा भी कि जापान में
हिंदी और मैंने भी अपनी खुशी का इजहार किया। मिजुनो जी के साथ सफर काफी अच्छा
रहा। वे मुझे बताते भी रहे जापान के बारे में। किचीजोजी पहुँचा ही था कि ऋतुपर्ण
जी आ मिले।
अगले दिन रविवार था और ताक्यो के पास फुनाबरी के इस्कान
मंदिर में अप्रैल की पहली तारीख को राम नवमी मनायी गयी। एक हिंदी समिति का कामकाज
भी यहीं से संचालित होना आरंभ हुआ है। रोहन, मनीष शर्मा, अतुल जी और चंद्राणी जी
से यहीं मुलाकात हो गयी। मनीष जी अपने मयखाने पर निरंतर लिखते हैं। उन्हें पढ़ना अच्छा
लगता है। फिर उसी शाम अतुल जी और मेहुल के साथ कुदानशिता के पास साकुरा बाजार
देखने गया। यहाँ भारतीय दूतावास भी है और उसके कंपाउंड में भी बहुत से भारतीय व्यंजन
मिल रहे थे। हमने सिर्फ चाय पी। रोहन सपरिवार वहाँ पहले से ही मौजूद थे। मेहुल की
बड़ी भारी इच्छा थी कि हम बोटिंग करें और अतुल जी के बिना यह संभव न था। हमें लगा
कि बोटिंग शायद पाँच बजे बंद हो जाएगी इसलिए पहली बार हमने लाइन ब्रेक की लेकिन
मुकाम तक पहुँचे ही थे कि एक आंटी ने कहा कि आप पीछे जाइए। बात हमारी समझ में आयी
और थोड़ी न नुकर के बाद हम पीछे आ गये। बाद में नौकायन का लुत्फ उठाया गया। पहली
बार जापान आने का मजा आ रहा था। जापानी लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था। मुझे कैमरे
की कमी खल रही थी।
कक्षा में जाना प्रारंभ किया तो विद्यार्थी काफी उत्साहित
दिखे किंतु दो छात्रों ने जो स्नातकोत्तर के विद्यार्थी हैं उनका उल्लेख जरूरी
लगता है। सतो यूता और हुयुको इशीजावा। सतो पर्याप्त जिज्ञासु हैं तो हुयुको अत्यंत
परिश्रमी। हुआ यूँ कि सतो ने पूछा कि सर आप खुद भी कुछ लिखतें हैं? मैंने कहा, हाँ, मैं कभी-कभार कहानियाँ लिख लेता
हूँ। तो फिर क्यों न आप की कहानी पढ़ी जाय सतो ने कहा। मैं संकोच में
था पर हुयुको ने भी अपनी इच्छा प्रकट की और फिर इंटरनेट से नाटक कहानी का
प्रिंट लेकर उस पर चर्चा शुरू हुई। अगली कक्षा में जब हुयुको आयीं तो उन्होंने
बहुत ही करीने से पढ़ाने लायक पाठ में कहानी का रूपांतरण कर लिया था। इनमें
मुश्किल शब्दों के अर्थ वे शब्दकोश से लिखकर ले आयीं थीं और फिर चर्चा आगे बढ़ी।
कुछ दिन पहले ही संतोष जी से मुलाकात हुई। हिंदी सभा
जापान के माध्यम से। उनका मेल आया कि मैं भी आपके गृह जनपद फैजाबाद से हूँ । शाम
हुई और मैंने फोन किया। अपना परिचय दिया और फिर अवधी शुरू हो गयी। वे घर आए और फिर मन हो आया घूमने का। उएनो पार्क उनके साथ ही देखा।
अभी थेाड़ी औपचारिकताएँ बची हैं जिन्हें पूरा करने के बाद हिंदी सभा जापान के साथियों
और अन्य मित्रों से लगातार संवाद होगा।
जापान आए हुए अभी कुछ ही दिन हुए हैं पर यहाँ के
लोगों की बेहद ईमानदारी और विनम्रता के चलते किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं
करना पड़ा। बहुत से संशय खत्म होते जा रहे हैं और जापान अपना-सा लगने लगा है।