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13 दिसंबर, 2012

द स्‍टेशन


उसे लालच कभी लुभाता नहीं था। प्रलोभनों से उसे कभी प्‍यार नहीं हुआ। प्रशंसा उसे कभी पुचकार नहीं पायी। व्‍यंग्‍य विचलित नहीं कर सका। हर उपहास को व‍ह एक उपक्रम बना लेती। उसे ट्रेक्रिंग का शौक था और पहाड़ों के शखिर उसे सहज ही आकर्षित करते थे। शतरंज उसे पसंद था और उसकी हर बाजी वह जीतना चाहती थी। उसे बिछी हुई विसातें दिलचस्‍प लगतीं और वह इन विसातों को विछाने में गजब का सुकून अनुभव करती। उसकी उम्र तेईस साल थी और उसकी चर्चा तेरह साल के लड़कों से लेकर तिरसठ साल के बूढ़ों में एक समान होती थी। सोहा सान्‍याल चितरंजन पार्क के जिस अपार्टमेंट में रहती थी वह अपने आप ही प्रसिद्ध हो चला था। उसके पास की सड़क पर चाय की दुकान अब ज्‍यादा चलने लगी थी। लोग सोहा की एक झलक पाने के लिए ही वहाँ आ जमते थे। राजकुमार चायवाला इससे खुश रहता था। इसी चाय की दुकान से सोहा के सौन्‍दर्य की पहली समीक्षा निकली थी जिसमें अधेड़ उम्र के एक व्‍यक्ति ने कहा था, उसकी त्‍वचा में पंजाब का पानी और दिमाग में बंगाल का जादू है।
तन्‍मय सान्‍याल और तान्‍या सेठी की बेटी सोहा का बचपन कलकत्‍ता में बीता था। माँ से पंजाबी और हिंदी तथा पिता से बंगला और अंग्रेजी भाषाएँ उसे सहज ही विरासत में मिल गयी थीं। पिता घर पर भी ज्‍यादातर अंग्रेजी में बात करते थे। अंग्रेजी के समाचार पत्रों और पत्रिकाओं से घर पटा रहता था। पिता तन्‍मय सान्‍याल राजा राम मोहन राय के आदर्शों में पनाह लेते थे।पश्चिम के जीवन-दर्शन और अंग्रेजी भाषा के प्रति उनका बड़ा लगाव था। बांगला रचनाकारों की भी अंग्रेजी पुस्‍तकें ही घर पर आती थीं। बंगाल का भद्रलोक और अंग्रेजी आभिजात्‍य का अनूठा संयोजन उन्‍होंने कर लिया था। तान्‍या से प्रेम विवाह करने के बावजूद वे एक वर्चस्‍व की भूमिका में थे। तान्‍या सेठी ने विवाह के बाद आम भारतीय महिला की तरह उनके वर्चस्‍व को स्‍वीकार कर लिया था और इस तरह घर चल निकला था। सोहा पर अपने पिता की गहरी छाप थी ।  माँ से रूप सौन्‍दर्य और पिता से समाज में वर्चस्‍व पाने की चाह उसके व्‍यक्तित्‍व का अभिन्‍न अंग बन चुके थे। इसलिए अपने आसपास का माहौल उसे सतही, तुच्‍छ और अधूरा और आभजित्‍यहीन लगता। उसमें एक अहं था जो अक्‍सर लोगों की उपेक्षा कर जाया करता था। इसलिए उसके करीब कुछ गिने-चुने लोग थे बाकी फसानों से काम चला लेते थे क्‍योंकि उसको अनदेखा कर देने का संयम और विवेक आम आदमी के पास न था। राजकुमार उर्फ राजू चायवाले की दुकान अब इन्‍हीं फसानों में उलझी रहती थी। लोग अब राजू भैया की दुकान पर यूँ ही चाय पीने आ जाया करते थे। अफसानों को प्रमाण तो चाहिए ही इसलिए राजू झूठी-सच्‍ची गवाही देता था। सोहा घर से कहाँ जाती है, कौन उससे मिलने आता है इस बारे में वह कुछ दबे स्‍वर में हाँ में हाँ मिला देता था। अफसानेबाजों ने उसके धंधे को तरक्‍की जो दे दी थी।
राजू चायवाले की दुकान से पेड़ों से घिरा सोहा का अपार्टमेंट कुछ धुंधला-धुंधला सा दि खाई देता था। इसलिए उसकी चाय की दुकान तमाम उम्रों के लिए एक अडडा बन गयी थी। कशिोर जवान, बूढ़े सबका। उम्र के भीतर भी उम्र होती है। इसलिए कशिोर जब निराश होते हैं तो वे बूढ़े हो जाते हैं और बूढों में जब आशा जगती है तो वे जवान हो उठते हैं। जब कभी सोहा की नजरें चलते हुए अनायास ही किसी बूढ़े की ओर उठ जाती तो अचानक उसका कैशोर्य सक्रिय हो जाता। राजू चाय वाले की दुकान पर उम्र के भीतर उम्र की आवाजाही का यह खेल निरंतर चलता रहता और उसका मुनाफा दो गुना हो चला था। सोहा की उम्र तेइस की थी लेकिन वह हमेशा अपने से दस-पन्‍द्रह साल बड़े लोगों से ही बात करना पसंद करती थी। इसी उम्र के लोगों से उसे कुछ बौद्धिक तोष मिलता था। अपने समव्‍यस्‍कों की बातों को वह बचकाना मानती और उसमें लिजलिजापन ज्‍यादा होता। उसकी चाहत की दिशा ऊर्ध्‍वगामी थी।
लेडी श्रीराम कॉलेज उसके घर से अधिक दूर न था। इसलिए अपनी कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहती। पत्रकारिता एवं जनसंचार पाठ्यक्रम उसके लिए यूँ ही आकर्षण का वषिय नहीं थे। घर में बचपन से ही उसने अपने पिता को अखबारों के बीच पाया था। सुबह की चाय और अखबार पिता की नियमित जीवन शैली का हिस्‍सा थे। उनकी अधिकांश बातें भी खबरों और समाचार पत्रों के इर्द-गिर्द घूमती रहती थीं। अखबारों के बीच उसका बचपन पला था और अब युवावस्‍था में इनके लिए एक अजीब आकर्षण था। अंग्रेजी, बांग्‍ला और हिंदी के अखबार उसका नशा-सा बन चुके थे। नींद टूटने के साथ उसे अखबार चाहिए होता था। और, इन सबके बीच उसने न जाने कब पत्रकार बनने का सपना पाल लिया था। लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ के प्रति अटूट आकर्षण ने उसके जीवन के शेष सभी सपनों को पृष्‍ठभूमि में डाल दिया था।
वह जुलाई 2009 की सुबह थी। थोड़ी उमस के साथ हवा के झोके चल रहे थे। बादल बड़ी कंजूसी से कभी-कभी कुछ फुहारें जमीन पर छोड़ देते जो राहत का एहसास लेकर आतीं। सोहा आज बड़ी खुश थी। उसका अकादमिक सत्र आरंभ हो रहा था। आज ही कोई जाने-माने पत्रकार विशेष व्‍याख्‍यान के लिए आमंत्रित थे। उसमें नए और पढ़े-लिखे लोगों से मिलने की बड़ी आतुरता रहती थी। ऐसे मौकों पर वह चहक उठती थी। ऐसे अवसरों पर वह थोड़ा समय अपने मेक-अप पर भी देती और सचेत होकर अपनी ड्रेस का चयन करती। ऐसे मौके पर उसकी कुछ एथनिक और प्रगतिशील-सा दखिने की कोशशि होती। आज भी वह इसी जद्दोजहद में थी कि क्‍या-क्‍या पहना जाय और कैसे वह प्रगतिशीलता लायी जाय।
जारी--------







31 अक्टूबर, 2010

मुक्तकेशी की प्रेमकथा-अंतिम भाग

अगला दिन। सुबह। वे सीधे कला संकाय पहँचे। उनके पास कविता, कलम और किताबें थीं। इन्‍हीं तीन अस्‍त्रों से वे नैना पर विजय पाना चाहते थे। राजकमल चौधरी और उनकी कृति ‘मछली मरी हुई’ बहुत कुछ सोचा, पढ़ा। अब दोपहर दो बजे का इंतजार था। उनके द्वारा निर्धारित समय। अभिलाषा अपने पूरे उठान पर थी। दो बजा। नैना टाकिया अभी न आयी थी। फिर तीन, फिर चार और फिर सात बज गए। नहीं आयी नैना। न कोई फोन न सूचना। दिमाग में गुस्‍सा भर गया। ‘मेरा कीमती समय लेकर भी बिना सूचना दिए न आना कहाँ की तमीज है।’मुक्‍तकेशी मन ही मन बड़बड़ाए। ‘मैं फोन क्‍यों करू, उसे ही करना चाहिए था।’वे खुद से जिरह कर रहे थे। भारी मन और खट्टे विचारों से भरे वे कमरे पर आ गए थे। खाने का मन न हुआ। भूखे पेट विस्‍तर पर पड़ रहे।

कई बार सुबह हुई और शामें बीत गयीं। चार महीने गुजर गए। नैना की छवि धुंधली पड़ गयी। फिर एक दिन वह अचानक दिखी और मुक्‍तकेशी के बिल्‍कुल सामने आ खड़ी हुई। बड़ी तहजीब से उसने अभिवादन किया। मुक्‍तकेशी मुस्‍कराए। पर, दिमाग में गुस्‍से और गुमान का कॉकटेल बन गया। नैना बोली-‘सर मैने अपना डिजर्टेशन सब्मिट कर दिया है। मैं बस आ ही नहीं पायी। पर उस दिन की बातचीत मेरे काम की थी‍।’

‘चलो मुबारक हो’ मुक्‍तकेशी ने झूठी हँसी हँसते हुए अपनी बात कही।

’थैक्‍यू सर।’ नैना ने निर्लिप्‍त भाव से और एक पोलीबैग से कागज निकालने लगी

’सर मेरी शादी का कार्ड, अगले सप्‍ताह है, लड़का बिजनेस मैन है, आइएगा ।’वह काफी जल्‍दी में दिख रही थी।

मुक्‍तकेशी ने कार्ड पकड़ा, नैना को संपूर्णता में देखा और तुरेत रुखसत हो लिए। कितनी रातों, सुबहों और शामों को देखे गए सपनें, नैना के प्रति की गयीं अनेक मधुर कल्‍पानाएँ, गृहस्‍थ जीवन के दूसरे पड़ाव पर पहुँचने की उनकी अभिलाषा- जैसे सब पर अचानक पूर्ण विराम लग गया हो। उन्‍होंने गुस्‍से में आकर वाल्‍मीकि को टक्‍कर देने वाली कविता के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। अपने इस नए अनुभव को उन्‍होंने डायरी में दर्ज किया-‘कविता, कलम और किताबों से आज के युग में प्रेम संभव नहीं।’ वे कब सोए कुछ पता नहीं।

आजकल मुक्‍तकेशी परिसर में जीन्‍स की नीचे से फटी हुई पैंट,एक जोड़ी चप्‍पल और कुर्ता पहने चहल कदमी करते है। दिल टूटने का यह उनका तीसरा वाकया है।दुनिया बदल गयी है। यह बात उन्‍हें खूब पता थी, परंतु उदारीकरण के दौर में भी अपनी वेशभूषा और बातों के चलते वे आजादी के आंदोलन का मजा लेना चाहते थे। पढ़ा-लिखा होने के चलते वे जल्‍द ही नैना टाकिया को भूल गए। अब उनका परिसर में आना भी कम हो गया है। हाँ, फेसबुक पर वे बराबर ऑनलाइन रहते हैं और नित नई संभावनाओं को तलाशते मिटाते हैं।

हाल‍-फिलहाल एक दिन वे शोधतल की तीसरी मंजिल पर बनी कैंटीन में पहाड़ी की ओर मुखातिब चाय पीते देखे गए। उनके इस व्‍यवहार पर साथियों में गहरा मतभेद है। किशन कहता है कि वे जल्‍द ही पहाडि़यों पर चढ़ेंगे और अपनी पामेला एंडरसन के साथ डेढ़ लाख रूपये के नोट लहराते हुए नीचे उतरेंगे। सत्‍तू का मानना है कि वे अब आजन्‍म प्रेम के फेर में न पड़ेंगे। जो भी हो वे जब-जब पहाडि़यों की ओर देखते हैं तो करुणा और कराह उनकी आँखों में बिल्‍कुल साफ झलकती है, मानों पहाड़ी का पूजाघर और हस्‍पताल साक्षात उनकी दोनों आँखों में आकर पास-पास बस गए हों।

समाप्‍त

मुक्तकेशी की प्रेमकथा-भाग 2


शाम होने के साथ वे घर लौट आए। रात को नींद न आयी। नैना से वे पहली बार कब मिले थे, याद करने लगे। नौकरी के बाद आज दूसरी बार उन्‍हें अपने ज्ञान की सार्थकता का एहसास हो रहा था।सुबह बीती और फिर शाम हो गयी।तीन दिन बीते।सप्‍ताह बीत गया।नैना टाकिया का फोन नहीं आया। वे परिसर पहुँचे। साथियों के बीच चलते-फिरते रहे पर निगाहें नैना की ताक में रहीं और कान उसकी आहट सुनने को बेचैन।सूरज ढल गया, वह कहीं न दिखी। वे लौट आए।न जाने कहाँ से ‘चल खुसरो घर आपनो रैन भई चहुँ देस’पंक्तियाँ कौंध उठीं।अब तक वे अपने अहंकार और मर्यादा के चलते नैना को फोन करने से बचते रहे। पर उनकी बेचैनी थी कि बढ़ती ही जा रही थी। उन्‍होंने फोन लगा दिया। आवाज आयी-सर कैसे हैं।

’ठीक हूँ शोध कैसा चल रहा है’मुक्‍तकेशी ने शुभचिंतक की तरह बात शुरू की

’आपकी बतायी बुक्‍स पढ़ रही हूँ और आपसे मिलना भी है सर’

‘चलो ठीक है आ जाना और पहले फोन कर लेना’

’जी सर मैं मिलती हूँ ‘

’ओ के’

इस संक्षिप्‍त बातचीत से वे संदेश देना चाहते थे कि वे बड़े व्‍यस्‍त हैं परंतु अपने खास लोगों के लिए थोड़ा सा समय निकाल सकते हैं।

मुक्‍तकेशी की परिसर में रोज आमद रहती। निगाहें नैना की छवि ढूढते और कान उसकी आहट का इंतजार। कई दिन फिर बीत गए। मुक्‍तकेशी का ध्‍यान अब पहाड़ी पर जाता ही नहीं था। बल्कि यह कहना ठीक होगा कि वे उस जगह को लगभग भूल ही गए थे।एक दिन वे शाम की चाय पी रहे थे अपने साथियों के बीच। फोन की घंटी बजी। स्‍क्रीन पर नाम जगमगा रहा था-नैना टाकिया। वे थोड़ा दूर हटे और मधुरता से बोले-‘ हेल्‍लो नैना, कैसी हो’

‘मैं ठीक हूँ सर, कल थेाड़ा समय चाहिए आपका’नैना ने काम की बात की।

’सुबह तो व्‍यस्‍त हूँ, दोपहर दो बजे आ सकती हो ’ मुक्‍तकेशी ने अपने महत्‍व को अपनी व्‍यस्‍तता के जरिए दिखाने की कोशिश की।

’तो फिर मैं कल मिलती हूँ आपसे’

‘बॉय सर’

‘बॉय’

मुक्‍तकेशी अपने दोस्‍तों के पास आए और अपनी आधी पड़ी चाय को खत्‍म करने लगे।चाय में मिठास बढ़ गयी थी। उन्‍होंने अपने दोस्‍तों पर एक नजर दौड़ायी। ज्‍यादातर नाकरी पाने की जद्दोजहद में थे फिर प्रेम की परिकल्‍पना तो उनसे कोसों दूर थीं। दोस्‍तों के मुरझाए चेहरे को देख उन्‍हें अजीब सा आनंद मिला। वे सोच रहे थे नैना से बात बनी तो इन सबको सरप्राइज दूँगा और उन्‍हें इस बात को पूरा भरोसा था कि मेरे इस सरप्राइज से ये मेरे दोस्‍त घनघोर दुखी होंगे। परपीड़ा में आनंद तलाशते वे घर लौट रहे थे। नैना टाकिया का शोध विषय ‘मछली मरी हुई-एक अध्‍ययन’ पर उनका चिंतन केंद्रित हो गया। नैना के वे शब्‍द कि-‘सर विषय तो मेरा है पर इस पर सोचा गहराई से आपने है’रह-रह कर बुलबुले की तरह उनके जहन में खदबदाता और उन्‍हें इस विषय पर सोचने की प्रेरणा, चाह और अभिमान पैदा करते।

सारा शहर सो रहा था।सड़क पर हैलोजन लाइट का विशाल स्‍तंभ चुपचाप रोशनी विखेर रहा था। अनेक प्रकार के कीट उस रोशनी में मडरा र‍हे थे। पेड़ों की दूर तक चली गयीं कतारें पंक्तिबद्ध प्रार्थना में खड़े स्‍थविरों के समान लग रहीं थीं। मुक्तकेशी ने घड़ी देखी रात के दो बज रहे थै। बारह घंटे और-सहसा उन्‍हें कल का इंतजार भारी लगा। वे काफी पढ़ चुके थे और बातचीत के लिए तैयार थे। इतनी मेहनत से उन्‍होंने अपने नौकरी के इंटरव्‍यू के लिए भी न पढ़ा था। रात के अंधेरे में नैना का चेहरा घूम गया और उसको स‍मर्पित पंक्तियाँ उभरने लगीं। उन्‍होंने कलमबद्ध करना आरंभ कर दिया-

शहर की

तपती धूप में

उबलती हवाओं से जूझता

एक आशियाने की तलाश में

जब पहुँचता हूँ तुम्‍हारे पास

अपनी केशराशि की सघन छाँव

देती हो विखेर

मेरे मुरझाए मुखमंडल पर

तपन मेरी कुछ कम हो जाती है

जब सूरज

उड़ा जा रहा होता है अपने सातों घोड़ों के साथ

धरती नदिया लहरें

तालाब और जंगल

मरुस्‍थल

पेड़ और परिंदे

सब हो जाते हैं श्रम बिंदुओं से सराबोर

तुम्‍हारी वाणी

स्रोतस्‍विनी बन जाती है-शीतलता देती हुई

जब पहुँचता हूँ तुम्‍हारे पास।

जब पहुँचता हूँ

पास तुम्‍हारे

प्‍यास उभरी होती है मेरे होंठों पर

आत्‍मा के पटल पर

ठंडे पानी का पारदर्शी ग्‍लास रख देती हो सम्‍मुख मेरे

अपनी मुस्‍कान के साथ

भरी शरारती आँखों से

परोस देती हो तुम-सर्वस्‍व अपना

बुझ जाती है प्‍यास

होंठों की

पर

आत्‍मा रह जाती है अतृप्‍त

एक बार पुन: खींच लेता है तुम्‍हारा आकर्षण

मुझे।

मुक्‍तकेशी को लगा आज उन्‍होंने वाल्‍मीकि को टक्‍कर दे दी है। आखिर उनकी यह कविता भी तो विरह-वेदना से ही फूटी है।

----आगे भी जारी

मुक्तकेशी की प्रेमकथा


युवा प्रो0 मुक्‍तकेशी को जब स्‍थायी नौकरी मिल गयी तो उन्‍होने मान लिया कि दुनिया उन‍के ज्ञान का लोहा मानती है। अपने साक्षात्‍कार के दौरान उन्‍होंने सवालों के जववाब में एैसी दलीलें दी थीं कि उससे विशेषज्ञ समिति को उनकी नियुक्‍त्‍िा करना एक मजबूरी बन गयी। लेकिन इस बात को सिर्फ वे मानते थे। बाकी लोग कहते थे कि यदि उनके पी0एच0डी0 सुपरवाइजर नियुक्ति-समिति में बतौर एक्‍सपर्ट नहीं होते तो इनका ज्ञान, दलीलें और नजीरें सब कूड़ेदान की तरह किसी कोने में पड़े रहते और ये खुद भी।

खैर, अब वे विश्‍वविद्यालय की पहाडि़यों के नीचे बने कला संकाय में निश्चिंत विचरण करते हैं और फुर्सत के क्षणों में पहाड़ी के ऊपर बड़ी मार्मिक दृष्टि से से नजरें दौड़ा लेते हैं। उस पहाड़ी पर एक पूजाघर और एक हॉस्पिटल आसपास बने हैं। दर्द और दुआ का कार्यव्‍यापार वहाँ साथ-साथ चलता रहता है। यही बात मुक्‍तकेशी को आकर्षित करती होगी, ऐसा उनके दोस्‍तों का अनुमान था। लेकिन, एक दिन अनायास उनके मुँह से इसका भेद खुल गया। वे कहते नजर आए कि ‘ऊपर पहाडि़यों पर जो पूजा घर है उसकी तरफ से एक ऑफर है। वह यह कि यदि उनकी परंपरा में दीक्षित हो जाओ तो डेढ़ लाख रूपया और एक सुन्‍दर कन्‍या विवाह के लिए मुहैया करायी जाएगी। अपने गुरू की ही तरह मुक्‍तकेशी बाजार की वैल्‍यू समझते थे और डेढ़ लाख रूपया ज्‍यादा न होने के बावजूद एक छुटके पुरस्‍कार से कहीं अधिक था इसलिए वे इस प्रस्‍ताव पर शिद्दत से सोचते रहते। और यही कारण था कि पहाड़ी की ओर उनका ध्‍यान बरबस चला जाया करता था। एक बात और भी थी कि इस प्रस्‍ताव में सुन्‍दर कन्‍या के अनेक बिंब उनके मस्‍तिष्‍क में नाचते रहते। कभी-कभी यह कन्‍या अपने विदेशी स्‍वरूप में भी उभर आती और पामेला एंडरसन, शकीरा या केट विंसलेट कोई भी रूप धारण कर लेती। पर वे बौद्धिक थे और मुक्तिबोध की कविता से प्रभावित भी इसलिए खुद को ही तमाचा मारते और शिल्‍पा शेट्टी, ऐश्‍वर्या और तब्‍बू पर आ टिकते। यह सौदा भी उन्‍हें बुरा न लगता और इसके कारण बेचैनी और अनिद्रा उनके जीवन के साथ-साथ चलने लगे।

मुक्‍तकेशी खुद को कुजात कम्‍यूनिस्‍ट कहते थे इसलिए धर्म में उनकी कोई खास आस्‍था नहीं थी। वे धन और कन्‍या के लिए कोई भी धर्म अपना सकते थे।वे उधेड़बुन में रहते और सोचते कि एक दिन वे इन पहाडि़यों पर जरूर चढ़ेंगे और जीवन में नौकरी के बाद गृहस्‍थी का दूसरा अध्‍याय भी समाप्‍त कर देंगे।

अक्‍टूबर का आखिरी सप्‍ताह था। धूप गुनगुनी हो चली थी। मुक्‍तकेशी विश्‍वविद्यालय में राज की तरह ही अपने साथियों के साथ घूम रहे थे। तीसरे पहर अचानक बादलों का रेला आ गया। पूरे परिसर में अंधेरा छा गया। तूफानी बारिश शुरू हो गयी थी और मुक्‍तकेशी का पास ही बने कैफेटेरिया में कॉफी की चुस्‍की लेने का मन हो आया। उन्‍हों ने एक स्‍ट्रांग कॉफी आर्डर की और एक खाली टेबल पर आ जमें। उन्‍होंने कोशिश की कि पहाड़ी पर बना पूजागृह दिख जाय पर वह नहीं दिखा। उन्‍होंने कुर्सी को थोड़ा घुमाया भी पर असफल रहे। अब संतोष कर लेने और कॉफी के स्‍वाद में खुद को रमा लेने के सिवा उनके पास विकल्‍प ही क्‍या था। उनकी कॉफी आ गयी थी। वे अकेले थे और इसका पूरा लाभ उठाना चाहते थे। ऐसे ही एकांत क्षणों में उनका दिमाग सक्रिय होता और वे सर्वथा नए विचारों और विजन को जन्‍म देते। अभी वे विचारों की प्रसव पीड़ा से गुजर ही रहे थे कि सामने खाली पड़ी कुर्सी पर कॉफी के साथ शोधार्थी नैना टाकिया आ बैठी। उसने हेलेा कहा और मुक्‍तकेशी का ध्‍यान चिंतन और पहाडि़यों से उतरकर जमीन पर आ टिका। उन्‍होंने भी हेलो कहकर प्रतिउत्‍तर दिया। नैना ने मुक्‍तकेशी को थेाड़ा असहज पाया और शिष्‍टतावश पूछा-‘सर, मैने आपको डिस्‍टर्ब तो नहीं कर दिया।‘ मुक्‍तकेशी ने नैना को अब ठीक से देखा अपनी नीली टी-शर्ट में वह कतल लग रही थी। ‘कतल’ द किलर, बेपनाह सौन्‍दर्य की अभिव्‍यक्ति के लिए यह उनका पसंदीदा शब्‍द था। वे तसल्‍लीबख्‍स मुस्‍कराए और कहा- ‘नहीं, बिल्‍कुल नहीं।‘ साहित्‍य और समाज पर चर्चा शुरू हो गयी। मुक्‍तकेशी अपनी कॉफी ऐसे पीते मानो वे इलाहाबाद के कॉफी हाउस में बैठे कोई प्रख्‍यात साहित्‍यकार हों। वे बोलते रहे और जिज्ञासु भाव से सुनती रही।इस जिज्ञासा को वे नैना की ऑखों में पढ़ते और तृप्‍त होते चलते। उनकी मुद्रा ज्ञान के गुरूर से डबडबाई नजर आ रही थी। बाहर बारिश थम गयी थी। नैना चलने को हुई तो उसने कहा-‘ सर अपना मोबाइल नं0 दे दीजिए, जरूरत पडेगी तो इस मुद्दे पर आप से आगे भी बात करूँगी। विषय तो मेरा है पर गहराई से सोचा आपने है। मुक्‍तकेशी ने एक उदार विद्वान की तरह अपना नं0 दे दिया और नैना का नम्‍बर भी सेव कर लिया। वे विषय की गहराई के साथ नैना की समंदर सी गहरी आँखों में भी डूब गए थे

--------आगे भी जारी

09 अक्टूबर, 2008

नाटक


बात उन दिनों की है जब मैं अपनी प्रेमिका के साथ घूमा करता था और मस्‍त रहता था।दुनिया के बड़े-बड़े चिंतन का केंद्र मुझे उसमें ही दिखाई देता था और मुझे यह लगा करता था कि यही वह औरत है जो मुझे महान बनाने के लिए इस धरती पर पैदा हुई है। अपने इन निजी उन्‍माद के दिनों में मैं बड़े-बड़े विद्वानों की उपेक्षा कर जाया करता था और जब वे कक्षाओं में अध्‍यापन कार्य किया करते थे तो कॅाफी हाउस में बैठ, अपनी प्रेमिका की आँखों में डूबा मैं जीवन की सार्थकता तलाशा करता था।
स्‍त्री जाति के प्रति शायद र्इश्‍वर ने पैदा होते ही मेरे भीतर इतनी करूणा भर दी थी कि होश संभालते ही मैं उसके संसर्ग का पुरजोर आकांक्षी हो गया था और उसी परमपिता परमानंद की कृपा से मुझे सफलताऍं भी खूब मिली। मेरा एक दोस्‍त आजकल सिंगापुर पहुँच गया है। जब वह मेरे साथ पढ़ता था, पिछली बेंच पर बैठने वाला काफी फिसड्डी छात्र माना जाता था।स्‍कूल के दिनों में जब मेरी सफलता से मेरा दोस्‍त आघातित हुआ तभी उसने सोच लिया कि अब इस देश को .......(यहॉं उसने एक गाली का इस्‍तेमाल किया) कर चल देना है। सबसे पहले उसने यह क्रिया स्‍कूल के साथ की और परीक्षा से पहले ही कक्षाओं में आना बंद कर दिया। फिर उसने इसकी पुनरावृत्ति अपने परिवार वालों के साथ की और अलग रहने लगा।इस बीच उसके पास काफी पैसा आ गया था। अंतत: उसने इस देश के साथ वही किया जो कहा था और सिंगापुर पहॅुंच गया। अगर आप मुझसे झूठ की अपेक्षा न रखे तो मैं कहॅूगा कि इससे(मेरे दोस्‍त की गाली) वजनी शब्‍द अपने उन दिनों में कक्षाओं को लेकर दूसरा मन में आता ही नहीं था और अक्‍सर मैं कक्षाओं में अनुपस्थित रहा करता था।
उन दिनों हमें एक अध्‍यापक पढ़ाया करते थे ! उनका नाम था ---- खैर नाम छोडि़ए नाम में क्या रखा है । वे काफी लंबे और स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति थे । ऑखों पर रंगीन चश्‍मा लगाते थे और फिएट से आया करते थे । एकदिन जब मैं अपनी प्रेमिका के साथ लौट रहा था तो उनकी नज़र मुझ पर पड़ी और अपनी तर्जनी का इशारा करते हुए उन्‍होंने मुझे अपने पास बुला लिया । लज्‍जाशील मेरी प्रेमिका कुछ देर वहीं ठहर कर अपने घर चली गयी ।
मेरे उन शिक्षक ने पहला प्रश्‍न यही किया “भई , तुम क्‍लास क्‍यों नहीं करते”। मैं अकबका कर कुछ बताने लगा था तो उन्‍होंने कहा कि, “अब तो फुर्सत मे होगे, आज मेरे साथ चलो”। मेरी प्रेमिका चार बजे यू-स्‍पेशल पकड़ कर नियमित अपने घर रवाना हो जाती थी , उसके बाद मैं अपने दोस्‍तों और अपनी पढाई के लिए पूरी तरह समर्पित हो जाता था। सो, मेरे लिए अपने इस शिक्षक के प्रस्‍ताव पर कोई आपत्ति नहीं हुई। बावजूद इसके मन रहस्‍य तथा भय से भर गया।
मैं उनकी कार में अगली सीट पर उनके साथ ही बैठा । थोड़ी देर बाद उन्‍होंने पूछा
‘पिता जी क्या करते हैं’
’जी, अपना काम है’
‘सुना है तुम पढ़ने – लिखने वाले विद्यार्थी हो’
’सर, इतना कहकर मैं चुप रह गया’
’वह लड़की कौन है’
’सर, वह ------- की बेटी है’ मैंने डरते-डरते लड़की के पिता का नाम बताया
’अच्‍छा तो वह उनकी बेटी है’
‘तो, सर आप उन्‍हें जानते हैं’
‘हॉं! वे मेरे मित्र हैं’
वे जैसे ही यह बात बोले मेरी ऑखों में चमक उत्‍पन्‍न हो गयी । यहॉ अपनी योग्‍यता सिद्ध कर इन्‍हें अपने पक्ष में किया जा सकता है ।इस समय गुरू मुझे गोविंद से भी बड़े दिखाई दिए।
‘कब से परिचय है’ उन्‍होंने आगे प्रश्‍न किया
‘पिछली 20 मई को दो साल पूरे हो गये’
’बहुत ठीक-ठाक स्‍मृति है तुम्‍हारी ‘
मैं कुछ नहीं बोला
’सूरज की अंतिम किरण से सूरज की पहली किरण तक’ किसका नाटक है’
’सर, उनका एक उपन्‍यास भी आया है इधर - कुछ ‘चॉद चाहिए’ जैसा’
‘ यहॉं उतनी एक्‍यूरेसी नहीं है।‘
’सर, हम एक दूसरे को बहुत प्‍यार करते हैं।‘
’यह किसका नाटक है।‘
’नहीं सर, मैं उस लड़की की बात कर रहा हूं। हम दोनों शादी करना चाहते हैं। ‘
’नाटक!! नाटक देखते हो कभी ।‘
’मैं उनकी बात पर ध्‍यान दिए बिना कहता रहा , ‘सर, हम दानों की शादी में सिर्फ उसके पिता बाधा उत्‍पन्‍न कर सकते हैं।‘
’यह वह कहती होगी’ वे बड़े शांत भाव से बोले
’हॉं , सर’
’बड़ा >>>नाटक!!! हिंदी में पिछले बीस सालों से कोई बड़ा नाटक नहीं लिखा गया। इतना तो तुम्‍हें मुझसे स‍हमत होना पड़ेगा। वैसे भी तुम इस विधा में पारंगत नहीं हो। ‘
’जी सर’
’खेलते क्या हो’
’चेस’
’तब तो जरूर हारते होगे’
’क्‍यों सर’
’यह खेल दिमाग से जो खेला जाता है। खैर छोड़ो। पीते क्या हो।‘
मैं समझा नहीं सर’
’अरे जिंदा रहने के लिए आदमी कुछ न कुछ पीता है। तुम......’
’समझा सर, मैं सिर्फ चाय पीता हॅू’
’और प्रेम करते हो। चाय पीकर प्रेम। रीतिकालीन कवि स्‍वर्णभस्‍म खाकर प्रेम करते थे और तुम.....। अच्‍छा आओ चलें।‘
मैंने देखा जहॉं कार रुकी थी वह एक कोठीनुमा फ्लैट था।करीने से सजा हुआ और लगता था कि किसी साहित्यिक जीव का है जो कलाओं का उपासक होगा। कॉलबेल बजने के कुछ क्षणों बाद एक लड़की ने दरवाजा खोला। संभवत: वह घर की नौकरानी थी। हम एक बड़े ड्राइंग रूम में पहुँच गए थे। ड्राइंग रूम की शोभा अद्भुत थी। वॉल माउंट टी0वी0, डी0वी0डी0 प्‍लेयर, होम थिएटर सिस्‍टम आदि सब फिट। एक दूसरी आलमारी में कुछ रंगीन बोतलें। सामने एक तख्‍त पर कुछ वाद्ययंत्र और कोने में एक उद्दाम मूर्ति अपने पूरे वैभव के साथ खड़ी थी। नीचे लाल कालीन विछा हुआ था। मेरी ऑंखें फटी रह गयी थीं। मैंने सोचा इसमें रहने वाला व्‍यक्ति जरूर बड़ा रंगीन तबियत होगा। थोड़ी देर में एक प्‍लेट काजू और कोल्‍ड ड्रिंक वही लड़की हमारे सामने रख गयी थी जिसने दरवाजा खोला था। इस बार मैंने उस लड़की को थोड़ा ध्‍यान से देखा, वह साधारण कपड़ों में भले थी, पर थी बहुत सुंदर। अपने शिक्षक की उपस्थिति में भी मेरे मुंह से हूक सी निकल पड़ी। इतनी सुंदर लड़की अपने इतने करीब मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। जब मैं चैतन्‍य हुआ तो मैने पाया कि मेरा शरीर उसे देखकर एक क्षण के लिए अकड़ सा गया था।सर ने उस लड़की से पूछा, ‘स्‍वीटी किधर है ?’ उसने सिर झुकाए कहा, ‘अभी-अभी आई थीं फ्रेश हो रहीं हैं’।इतना कहकर वह चली गयी।
सर ने काजू की प्‍लेट की तरफ इशारा करते हुए कहा ‘लो’ । मैंने बिना कुछ बोले अपने हाथ में कुछ काजू के टुकड़े उठा लिए और कोल्‍ड ड्रिंक की बोतल हाथ में पकड़ी ही थी कि एक भव्‍य महिला ने प्रवेश किया। पॉंच फुट छ: इंच तो रही होंगी। दोनों हिप्‍स पर काले बाल तैर रहे थे। सर ने मेरी ओर मुखातिब होते हुए कहा- ‘यह मेरा शिष्‍य है और यह स्‍वीटी’ उन्‍होने मुझे संबोधित किया। कृष्‍ण का जो रंग मैं कैलण्‍्डरों में देखा करता था, उसका सीधा साक्षातकार मेरी ऑंखों कर रही थीं। उन बड़ी-बड़ी ऑंखों की महिमा अद्भ्‍त थी। किसी भी संयमी पुरूष को अपने में डुबो लेने की एक खास सम्‍मोहन शक्ति भरी हुई थी उन ऑंखों में। मैंने थूक लीलते हुए और गला साफ करते हुए अपने को इस खतरनाक स्थिति से उबारा। इतनी देर तक सर उनसे क्या बातें करते रहे मैंने सुना नहीं और जब उन्‍होंने पूछा कि तुम भी थोड़ी सी लोगे तो मुझे ठीक से याद है कि मैं ‘हॉं’ के सिवा और कुछ भी न कह सका था और तब मैंने उन रंगीन बोतलों में से एक को अपने सामने पाया।
मैंने देखा कि स्‍वीटी जी सामने बड़े करीने से बैठी हैां यह करीने से बैठना उनकी ‘सेक्‍स अपील’ को और भी बढ़ा रहा था। मैं एक के बाद दूसरी खाई में गिरता जा रहा था, तब तक सर ने मेरी ओर बीयर से भरा गिलास बढ़ा दिया था। मैं भी खिलाडि़यों की तरह गटा-गट चढ़ा गया। एक-एक कर कई गिलास। अब भिन्‍न प्रकार के उन्‍मादों का काकटेल मेरे दिमाग में चढ़ गया था। धीरे-धीरे दिमाग जान गया कि अब उसका नियंत्रण खत्‍म होता जा रहा है। मैं जाने कब अपनी दुनिया में डूब गया था। एक-आध बार झटका खाता तो पाता कि सामने स्‍वीटी बैठी गा रही है-
कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है
कि जैसे तुमको बनाया गया है मेरे लिए।
कि जैसे तु मुझे चाहेगी उम्र भर यूँ ही
मैं जानता हूँ तू गैर है मगर यूँ ही
कभी- कभी मेरे दिल में खयाल आता है.....
और सर मेरा साथ छोड़कर उनके बहुत करीब बैठ गए हैं। इसके अतिरिक्‍त और क्या हो रहा है, इसका मुझे होश ही नहीं था। जब तब वाद्य यंत्रों की ध्‍वनि कानों में पहुँचती तो कुछ खनकता-सा प्रतीत होता। सर मेरी हालात समझ गए थे और उन्‍होंने मेरे लिए नींबू पानी मँगवा लिया था। नींबू पानी लिए वही लड़की मेरे सामने थी। नशे की ऐसी हालत में उसे सह पाना बड़ा मुश्किल था। यह लड़की इतनी सुंदर होते हुए इतने साधारण कपड़ों में क्‍यों रहती है। यह नौकरानी की तरह काम कर रही है जिसे इसे नही होना चाहिए। मेरे ऊपर मध्‍यकालीन बोध हावी होता जा रहा था।
थोड़ी देर बाद मुझे सर ने कहा आओ डिनर करते हैं। नींबू पानी ने अपना असर छोड़ा था और दुनिया यथावत होने लगी थी। भूख अपने उत्‍कर्ष पर थी और भोजन की प्राप्ति की आशा बँध जाने से उसकी तीव्रता बढ़ गयी थी। उस दिन मैंने इतना खाया कि अगले दो रोज मुझे खाने की जरूरत ही न पड़ी।
खाना खाने के बाद मैं सर के साथ वापस लौट रहा था। उन्‍होने इन दोनों लड़कियों की कहानी बतार्इ जिसकी मुख्‍य बात यह थी कि परिस्थितिवश दोनों अनाथालय पहुँची तब इनमें दोस्‍ती हुई और जब स्‍वीटी को थियेटर में नौकरी मिली तब सविता भी इसके साथ रहने लगी। मेरा परिचय एक नाट्योत्‍सव के दौरान स्‍वीटी से हुआ था। सविता भी कई वाद्य यंत्र बजा लेती है, स्‍वीटी से ज्‍यादा अच्‍छा गा लेती है लेकिन दिल्‍ली शहर की हवा मे वह कभी आगे बढ़ पाएगी, इसका भरोसा मुझे नहीं है। वह बहुत जिद्दी और समझदार है।
मैं संयोगों में बहुत कम विश्‍वास करता हूँ लेकिन आज का यह संयाग मेरे लिए परिवर्तनकारी सिद्ध हो रहा था। मैं चाह रहा था कि सर सविता के बारे में और बातें करें, स्‍वीटी तो सर के हिस्‍से की है। वे सब बातें करें जिससे मैं उसका अतीत-वर्तमान सब समझ सकॅूं, इसलिए सर को मैंने अपने यत्‍नों से उकसाया। वे बोलने लगे, ‘इस लड़की को चित्रकला की बड़ी अच्‍छी परख है और नृत्‍य भी अच्‍छा कर लेती है’। मैंने फिर कुरेदा तो वे बोले, ‘बस और कुछ नहीं है उसमें समझे। उसकी जिद्द इस धरती से उसे मौन विदा कर देगी। वह कुछ भी नहीं कर पाएगी। यह समझ रखना।’ सर ने इस बार मुझे डपटा था। मुझे गुस्‍सा आ गया था जो मेरे दिमाग के चारों ओर फैल गया। सर की तरफ न मुड़कर उसने एक दूसरा चैनल पकड़ लिया था। ‘एक स्‍वीटी जी हैं- कितनी अच्‍छी हैं। गाना जानती हैं। बजाना जानती हैं। करीने से बैठना जानती हैं। घर केा सजाना जानती हैं। एक सविता है- चित्रकल, नृत्‍य, संगीत सबका ज्ञान है उसको। अतिथि सत्‍कार का सलीका है उसके पास और एक मेरी प्रेमिका है,’ नींबू पानी का असर खत्‍म हो रहा था, ‘बकरी की लेंड़ी की तरह, सलवार कितनी ऊँचाई पर बॉंधा जाय इ‍सका भी ठीक हिसाब-किताब नहीं। प्‍यार करने का शऊर नहीं। जो कुछ करो सब आप करो। थोड़ी बहुत सुंदरता के अलावा और कुछ भी नहीं’ । मैंने अपने आप को रोका थोड़ा शांत हुआ। ‘सविता कितनी मुश्किल से पली-बढ़ी फिर भी क्या नहीं जानती। ईश्‍वर ने आज का यह संयोग इसीलिए बिठाया कि हम दोनों मिले तो अब हमेशा के लिए मिल जाऍं। यह जिद्दी और समझदार लड़की। मेरे इस चूतिए गुरू ने जरूर इसके साथ कुछ हरकत की होगी। यह मेरा साथ पाकर इस शहर की हवा बदल देगी। मुझे बकरी की लेंड़ी अपनी पुरानी प्रेमिका नहीं चाहिए।’
‘उतरो तुम्‍हारा घर आ गया है’- सर ने कहा
‘हॉं सर हॉं’ मैं अचकचा गया
’और सुनो’ उन्‍होंने बात जारी रखते हुए कहा, ‘तुम घबड़ाओ मत, मैं उस लड़की के पिता से बात कर लूँगा।’
‘नहीं सर। अब इसकी आवश्‍यकता नहीं है।‘
वे मुस्‍कराए और मैंने अपनी बात पूरी की, ‘सर। सविता जैसी लड़कियों का जीवन सुधारने में युवा-शक्ति को लगना चाहिए।’ मैं इस मुद्दे पर ज्‍यादा बोलना चाहता था कि वे टोकते हुए बोले-
‘ना>>>टक!!! नाटक की कक्षा में भी पढ़ने आ जाया करो।‘ और उनकी फिएट गरर्र की आवाज करती हुई आगे बढ़ गयी।
रात के उस अंधरे में मैंने देखा कि सूर्योदय हो रहा है।