15 जुलाई, 2013

उल्का पिण्ड


ऊर्जा से भरे
एक अनिश्चित गंतव्य की ओर
वे बढ़ते चले जा रहे हैं
वेग से ।
न कोई सरायन पड़ाव
उन्हें बेमुकाम ही
चलते चले जाना होगा
जब तक है शेष
उनके भीतर की आग ।
आग
सत्य और असत्य से परे
न्याय और अन्याय के बोध से अलग
बस संवेदनहीन आग ।

उल्का पिण्ड
बाँट नहीं सकते प्यार
न दया न ममत्व
स्नेह भी नहीं
न ही कर सकते स्वागत
अभिनंदन भी नहीं
झुलसाते हैं करीब आने पर ।

बेदखल हो चुके
अपने समूह से
खण्डित जीवन के विन्यास
वे ।
इन्हें नहीं मालूम
कब चुक जाएगी
इनके भीतर की ऊर्जा
और कब पथभ्रष्ट हो
ये
भेद देंगे
किसी मासूम बच्चे की हँसी
पेड़ की फुनगी पर मचलती गौरैया
खुशबू बिखेरने को आतुर
एक असावधान कली को
लहलहाती फसल की बालियों को
कब
तब्दील कर देंगे एक बंजर वीराने में
इन्हें नहीं मालूम ।

इन्हें नहीं मालूम
किस शक्ति संतुलन के गड़बड़ाने से
ये
खण्डित हो छिटक गए
अपने ही महाआयतन से
और
बन बैठे
क्षुद्र घनत्व के निरंकुश स्वामी
अनियंत्रित
और
अलक्षित भी ।

अपने उद्गम
समापन
गमन
भ्रमण
भटकाव और संधान की पटकथा में
ये
मात्र कठपुतली बनकर रह गये
कुछ भी न चुन सकने को विवश
सिवा इसके कि
इनका अस्तित्व रचा है
उद्वेलित अग्निपुंज से ।

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