संचार और समाज लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
संचार और समाज लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

09 मई, 2009

संचार और समाज के संबंधों की तलाश

संचार माध्‍यमों के सिद्धांतों और उनको समझने का कार्य सबसे पहले साहित्‍य जगत के चिंतकों-विचारकों ने ही शुरू किया। भाषा, संचार की प्राथमिक तकनीकों में सबसे महत्‍त्‍वपूर्ण रही है, यही कारण है कि आज भी साहित्‍य,भाषा और संचार के बीच सीधा और साफ संबंध दिखाई देता है। संचार माध्‍यमों ने एक नयी स्थिति का भी निर्माण किया है। यह है-समाजीकरण में उसकी भूमिका का वर्चस्‍व। पहले यह जिम्‍मेदारी साहित्‍य और कलाओं के पास थी,लेकिन अब इसका मानों हस्‍तांतरण हो गया हो। लेकिन; संचार,समाज और साहित्‍य के बीच आज भी एक जटिल,जीवंत और जुझारू रिश्‍ता बना हुआ है जिसके चलते यह विषय महत्‍त्‍वपूर्ण हो जाता है। इसी विषय को संबोधित करती एक पुस्‍तक डॉ.संजय सिंह बघेल ने लिखी है जिसमें संचार और साहित्‍य सह-अस्तित्‍व में मौजूद हैं ।

इस पुस्‍तक में, ‘संचार और समाज विकास की प्रक्रिया’, ‘साहित्‍य और जनसंचार’, ‘साहित्‍य के विकास की परिकल्‍पना और जनसंचार’, ‘साहित्यिक विधाएँ और जनसंचार माध्‍यम’ तथा ‘जनसमाज,जनसंचार और जनसाहित्‍य’ जैसे विषयों पर तफ्शील से बात की गई है। कहना न होगा कि लेखक की चिंता और सरोकार जनोन्‍मुखी हैं। वह समाज के संदर्भ में साहित्‍य और संचार के अंतर्संबधों की निरंतर तलाश करता है और इनकी भूमिका पर टिप्‍पणी करता है। लेकिन ऐसा करने के क्रम में वह अपने लिए कई संदर्भ जुटाता है और अनेक विद्वानों,ग्रंथों के उद्धरण के जरिए अपनी बात की पुष्टि भी करता है। मसलन, ‘‘अंग्रेजी का Mass शब्‍द जो ‘जन’ का द्योतक है, देशीय चेतना में ‘लोक’ का पर्याय है।जिसका जिक्र पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने साहित्‍य के इतिहास में भी किया है और जिसका उल्‍लेख जैमनीय उपनिषद में इस प्रकार(से) किया गया है-

बहु व्‍यहतौवा अप बहुता लोक:

क एतत अस्‍पपुनरी हिता अयात्’’ (पृ0 17)

इतना संदर्भ देने के बाद वह जनसंचार और जन के संबंधों का विवेचन करता है और जनसंचार को परिभाषित करने का प्रयत्‍न भी।

लेखक ने इस पुस्‍तक में विभिन्‍न संचार माध्‍यमों के ऐतिहासिक विकास पर प्रकाश डाला है। ऐसा करते हुए वह समाज और संचार के संबंध तो उद्घाटित करता ही है, साथ ही संचार माध्‍यमों के तकनीकी पहलू का विवेचन करता चलता है।रेडियो के विकास की चर्चा करते हुए लेखक कहता है, ‘‘वास्‍तव में रेडियो की कहानी 1815 ई0 से शुरू होती है जब इटली के एक इंजीनियर गुग्लियो मार्कोनी ने रेडियो टेलीग्राफी के जरिए पहला संदेश प्रसारित किया। रेडियो पर मनुष्‍य की पहली आवाज 1906 में सुनाई दी।यह तब संभव हुआ जब अमेरिका के ली डी फॉरेस्‍ट ने प्रयोग के तौर पर एक प्रसारण करने में सफलता प्राप्‍त की।(पृ029)’’ लेखक प्रामाणिक तिथियों और आविष्‍कारकों का हवाला देता है। पुस्‍तक में कई स्‍थानों पर आंकड़े भी उपलब्‍ध कराए गए हैं जिससे जनसंचार के विकास को तथ्‍यात्‍मक रूप से समझने में मदद मिलती है। इसीप्रकार वह इंटरनेट के विकास की चर्चा करते हुए इसके लिए जरूरी उपकरणों का उल्‍लेख करना नहीं भूलता। इसे और अधिक स्‍पष्‍ट करने के लिए वह रेखांकनों का उपयोग भी करता है और कुछ प्रमुख वेब साइट्स की सूची भी जोड़ देता है। इससे पुस्‍तक केवल विचार की प्रस्‍तावक न बनकर व्‍यावहारिकता के आयाम को भी छूने लगती है।

पूरी पुस्‍तक में संचार,भाषा,समाजशास्‍त्र,संस्कृति और साहित्‍य के मुद्दे बड़ी सहजता से आवाजाही करते हैं। इसलिए यह पुस्‍तक एकांगिता को तोड़ती है और व्‍यापक सरोकारों को उभारती है। आज अधिकांश पुस्‍तकें मीडिया के क्राफ्ट की चर्चा तो अवश्‍य करती हैं परंतु मीडिया और समाज के अंतर्संबंधों को उभरने नहीं देतीं। यहाँ मुख्‍य बल इसकी तलाश का है, जिसमें एक बौद्धिक की चिंता भी दबे पाँव चली आती है।

इस किताब कुछ नए विषय भी लिए गए हैं। उदाहरण के लिए देह भाषा का पर्याप्‍य विवेचन किया गया है। दैहिक संचार, प्रबंधन जगत में एक महत्‍त्‍वपूर्ण स्‍थान रखता है। संजय सिंह इस विषय को जीवन के वास्तिवक उदाहरणों के जरिए विश्‍लेषित करते हैं। ऐसा करते हुए उन्‍होंने चित्रों का भी उपयोग किया है।इसलिए यह जटिल विषय भी बड़ी सहजता से संप्रेषित हो गया है। पुस्‍तक में प्रिंट,रेडियो,टेलीविजन,सिनेमा,इंटरनेट और विज्ञापन आदि सभी माध्‍यमों का विश्‍लेषण किया गया है,जिससे इसे पढ़ने पर समग्रता का एहसास होता है।

इस पुस्‍तक में अनेक खूबियाँ हैं पर त्रुटियाँ नहीं है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। जहाँ तक पुस्‍तक में विवेचित मुद्दों का सवाल है, निश्‍चय ही उनमें एकसूत्रता का अभाव है। ऐसा इसलिए भी हुआ है कि लेखक मोटे तौर तीन विषय-संचार,समाज और साहित्‍य का समाहार एक साथ करना चाहता है, जैसाकि पुस्‍तक के शीर्षक से भी स्‍पष्‍ट है। कई स्थानों पर वाक्‍य गठन की गड़बड़ी भी है, जैसे- ‘‘निष्‍कर्षत: कहने को तो जानवरों की भी एक भाषा होती है। वे भी आपस में बातचीत करते हैं। लेकिन मनुष्‍यों की भाषा इसी अर्थ में उनसे भिन्‍न होती है, कि वे जो बोलते हैं,उसका एक मतलब है। यह मतलब ही मनुष्‍य की बातचीत की कला को औरों से अलग करती है।(पृ0 84) ’’ इस निष्‍कर्ष से यह ध्‍वनि निकलती है कि पशुओं की बातचीत बे-अर्थ होती है जबकि ऐसा बिल्‍कुल नहीं है और शायद लेखक का अभिप्राय भी ऐसा नहीं है,क्‍योंकि व‍ह नृविज्ञान से भी परिचित है। परंतु, यहाँ वह अभिप्राय स्‍पष्‍ट नहीं हो पाया जो लेखक उभारना चाह रहा था। इसी प्रकार एक अन्‍य जगह ‘जनसाधारण आदमी’ (पृ0 85) का प्रयोग किया गया है। क्‍या ‘जनसाधारण’शब्‍द ही पर्याप्‍त नहीं था जो ‘आदमी’ जोड़ने की जरूरत पड़ गयी ? ऐसी कुछ सामान्‍य गलतियों को छोड़ दें तो य‍ह पुस्‍तक एक जरूरी पुस्‍तक है और इसे पढ़ा जाना चाहिए। पुस्‍तक के अंत में श्‍याम बेनेगल,जावेद सिद्दीकी, अंजन श्रीवास्‍तव, आशीष विद्यार्थी और सुशांत सिंह के विचारों को समाहित कर लेखक ने इसकी पठनीयता में इजाफा किया है।