अन्ना के आंदोलन को समझने
के लिए शत्रुता-मित्रता के समाजशास्त्र को जानना जरुरी है। साथ ही यह भी जरूरी है
कि लगाव और घृणा तथा निंदा और प्रशंसा का
मनोविज्ञान क्या है।/ इस परिप्रेक्ष्य में हिंदी सिने जगत की महत्वपूर्ण हस्ती
महेश भट्ट और प्रसिद्ध समाजसेवी अन्ना हजारे के बीच कोई रिश्ता हो सकता है या
नहीं।/ मुझे लगता है कि इनमें एक अटूट
रिश्ता है,तो आइए विचार करें। अन्ना हजारे के आंदोलन का महेश भट्ट ने मंच और
मीडिया से समर्थन किया है। परंतु अन्ना ने अपना अपने आंदोलन की समाप्ति की घोषणा
कर दी और महेश भट्ट ने अपनी फिल्म जिस्म-2 (मैं इसे महेश भट्ट की ही फिल्म
मानता हूँ)रिलीज कर दी।

भारत आज भी देवताओं का देश
है। हम अवतारवाद के इतने दृढ़ विश्वासी हो चले हैं कि बहुत सुकून से अपनी समस्याओं
के बारे में सोचते हैं। अन्ना पार्टी के गठन की घोषणा ने हमारे मन में कुछ ऐसे ही
सुकून और आशा का संचार कर दिया है और सरकार द्वारा उपेक्षित-तिरष्कृत आंदोलन कुछ
नए रास्ते पर नए अवतार या पार्टी के जन्म की घोषणा के साथ समाप्त हो गया। वे
लोग जो अपने फुर्सत के समय सड़कों पर उतरे थे और जिनकी जेब में फिल्म देखने के
पैसे न होने के चलते रामलीला या जंतर-मंतर पर टाइम पास के लिए आ जुटे थे और जो एक
मिस कॉल से मूवमेंट का लुत्फ उठा रहे थे वे जब राजनीति ऊबड़-खाबड़ जमीन पर आएँगे
तो उनका आनंद गायब हो जाएगा और वे आलोचनात्मक हो उठेंगे। जो आज मित्र हैं वे ही
कल निंदक बन बैठेंगे। चुनाव के बाद पार्टी अन्ना वैचारिक रूप से यूपीए के सबसे
करीब होगी और बाबा रामदेव एनडीए के। शत्रु-मित्र की नयी परिभाषाएँ तय होंगी और अन्ना
के अनुयायी आंदोलन का अंग न होकर सरकारी जमात और व्यवस्था का हिस्सा बन जाएँगे।
महेश भट्ट की फिल्म ‘जिस्म-2’ में जिस्म कम और व्यवस्था पर टिप्पणी अधिक है।
ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो
फिल्मों के प्रोमो देखकर फिल्म समीक्षक बन जाते हैं। ऐसे लोगों पर मैं अपनी कोई
राय नहीं रखता।ऐसे लोग सर्वत्र हैं। इसका नमूना ‘आरक्षण’ में देखने को मिला था।
जैसे ‘आरक्षण’ में आरक्षण से अधिक शिक्षा-व्यवस्था पर टिप्पणी थी वैसे ही ‘जिस्म-2’
में जिस्म से अधिक विद्रोह और व्यवस्था
का विवेचन है। इस फिल्म में जो लोग केवल जिस्म देखकर आ गए हैं मैं उनकी समझ को
श्रद्धांजलि ही दे सकता हूँ। फिलहाल बात
फिल्म जिस्म-2 की। फिल्म की कहानी शुरू होती है एक पुलिस ऑफिसर की रेड से
जिसमें वह ड्रग्स का धंधा करने वाले एक गिरोह का भंडाफोड़ करता है और एक निर्दोष
लड़की को छोड़ देता है जो बाद में उससे प्रेम करने लगती है। आगे चलकर यह पुलिस
अधिकारी एक आतंकवादी बन जाता है और उस लड़की को बिना बताए गायब हो जाता है। खुफिया
एजेंसी इस लड़की को 10 करोड़ देकर उस आतंकी पुलिस ऑफिसर को पकड़ने का उपक्रम करती
है और अंतत: यह लड़की उस आतंकी पुलिस ऑफिसर को मारकर उसका डाटा सरकारी जासुसों को
देने आती है। तब उसे अपने प्रेमी पुलिस अधिकारी की बात याद आती है कि सरकारी
अधिकारी रिश्वतखोर और भ्रष्ट थे जिनकी वजह से उसे अचानक गायब होना पड़ा और अब वह
उनसे बदला ले रहा है। खलनायक नायक बन जाता है और नायक खलनायक। अंतत: फिल्म के सभी
किरदार एक दूसरे को मार देते हैं और फिल्म का ट्रेजिक एंड होता है। दर असल समाज
और व्यवस्था का जटिल चित्रण है। कौन अच्छा और कौन बुरा है इसकी पहचान जटिल हो
गयी है। फिल्म में इसे दिखाया गया है। आज जो आंदोलन चल रहे हैं उनके पीछे किस
प्रकार की महत्वाकांक्षा छिपी है इसे समय ही बताएगा और तब तक जनता ठगी जा चुकी
होगी। इसलिए अपने विवेक को जागरूक बनाए रखना जरूरी है अन्यथा जिस्म-2 के
किरदारों की तरह हमारा भी ट्रेजिक एंड होगा। जो भ्रष्टाचारी हैं उन्हें सजा मिले
पर कहीं हम उन्हीं की साजिश का शिकार न हो जाय यह ध्यान रखना होगा। जिस्म-2
भ्रष्टतंत्र के सफेदपोश चरित्र को
दिखाती है। इसमें अपनों के पराए होने और परायों के अपना हो जाने का आख्यान है जो
अन्ना और रामदेव के आंदोलनों में बाकायदा देखा जा सकता है। इस फिल्म में
‘राजनीति’ है जो इसमें ‘रातनीति’ देखने जाएंगे उन्हें निराश होना पड़ेगा।