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09 अगस्त, 2012

अन्‍ना का आंदोलन और जिस्‍म-2




अन्‍ना के आंदोलन को समझने के लिए शत्रुता-मित्रता के समाजशास्‍त्र को जानना जरुरी है। साथ ही यह भी जरूरी है कि लगाव और घृणा  तथा निंदा और प्रशंसा का मनोविज्ञान क्‍या है।/ इस परिप्रेक्ष्‍य में हिंदी सिने जगत की महत्‍वपूर्ण हस्‍ती महेश भट्ट और प्रसिद्ध समाजसेवी अन्‍ना हजारे के बीच कोई रिश्‍ता हो सकता है या नहीं।/  मुझे लगता है कि इनमें एक अटूट रिश्‍ता है,तो आइए विचार करें। अन्‍ना हजारे के आंदोलन का महेश भट्ट ने मंच और मीडिया से समर्थन किया है। परंतु अन्‍ना ने अपना अपने आंदोलन की समाप्ति की घोषणा कर दी और महेश भट्ट ने अपनी फिल्‍म जिस्‍म-2 (मैं इसे महेश भट्ट की ही फिल्‍म मानता हूँ)रिलीज कर दी।
अन्‍ना का आंदोलन खत्‍म हो गया। आखिरकार टीम अन्‍ना ने वह बात मान ली जो कु़ंवर दिग्विजय सिंह पहले दिन से ही कहते आाए थे। कई बार लगता है कि सारा आंदोलन दिग्विजय सिंह की बात मानने के लिए चल रहा था क्‍या। अन्‍ना ने टीम अन्‍ना भंग कर दी। अब राजनीतिक पार्टी का गठन होगा। एक अनुमान के मुताबिक देश में लगभग 1200 राजनीतिक दल मौजूद हैं। अब उनमें एक नया दल जुड़ जाएगा। हो सकता है कि यह बाकी सभी दलों से भिन्‍न भी हो और जनता के बीच अपनी अलग पहचान भी बनाए। लेकिन भिन्‍नता का पैमाना क्‍या होगा। अगर अन्‍ना पार्टी की चुनाव में सीटें कम आती हैं तो उसे उनकी विफलता ही माना जाएगा। अभी तक मीडिया/सोशल मीडिया के भरोसे चल रहा आंदोलन जब वास्‍तविक जमीन पर उतरेगा तो उसे बिल्‍कुल नयी रणनीति अपनानी होगी और उसके लिए बिल्‍कुल नया मैदान होगा। मजदूरों को कम पैसा देकर और टैक्‍स की चोरी करके अपना बिजनेस चलाने वाले बहुतेरे लाला अन्‍ना के बड़े भारी पैरोकार बने हुए हैं। पूरे देश से एैसी खबरे आयीं कि परित्‍यक्‍त, बहिष्‍कृत, तिरष्‍कृत नेता आंदोलन की खाल ओढ़कर अन्‍ना के साथ आ खड़े हुए हैं। भाजपा जो अभी कुछ दिनों पहले तक अन्‍ना का प्रछन्‍न समर्थन कर रही थी अब उसके विरोध में खड़ी होगी। बाबा रामदेव जो हिंदूवादी हैं अपनी पार्टी बनाने से चूक गए हैं। अब या तो वे पार्टी बनाएँगे नहीं या फिर भाजपा के समर्थन में कुछ काम करेंगे। अब अन्‍नापार्टी का स्‍वाभाविक गठबंधन कांग्रेस से ही हो सकता है और रामदेव का भाजपा से। एक मंच से चलने वाले भीतर से अलग-अलग खड़े हैं और उनमें आपसी प्रतिद्वंद्विता भी है। अन्‍ना हजारे संत नहीं हैं पर उन्‍हें प्रार्थना की जरूरत पड़ती है। रामदेव संत के वेश में योगी हैं और वे कभी प्रार्थना करते नहीं। अन्‍ना राजघाट जाते हैं गुजरात के गाँधी के पास और रामदेव गुजरात के मोदी के पास। अन्‍ना और रामदेव का रास्‍ता ऊपर से एक दीखता हुआ भी विपर्यय का है। तमाम कवि, समाजसेवी और बुद्धिजीवी जिन्‍हें मुख्‍यधारा की राजनीति में कोई मुकाम हासिल नहीं हुआ वे अब इन दो मंचों पर अपनी जगह तलाशेंगे। खतरा बस इतना है कि यदि अन्‍ना पार्टी अपने समर्थन को सीटों में नहीं बदल पायी तो जो सुगबुगाती महत्‍वाकांक्षा के लोग उनके साथ जुड़े हैं वे सबसे पहले उनके आलोचक बनेंगे जैसा कि स्‍वामी अग्निवेश ने किया था। फिर राजनीति और जनआंदोलन की नैतिकताएँ और अपेक्षाएँ बिल्‍कुल भिन्‍न होती हैं। राजनीति में जिंदा रहने के लिए जीत अनिवार्य है, जनआंदोलन हार कर भी सार्थक बने रहते हैं। राजनीति के लिए संगठन और कमोवेश काडर की जरूरत पड़ती है जबकि जनआंदोलन में कारवां जुड़ता चलता है और काम बन जाता है। अब टीम अन्‍ना जनआंदोलन के लिए तो उपयुक्‍त दिखाई देती है लेकिन राजनीति के लिए नहीं। वैसे अन्‍ना ने जो सबसे महत्‍वपूर्ण फैसला लिया वह टीम अन्‍ना को भंग करने का था। इससे अन्‍ना को सबसे बड़ी राहत मिली होगी। राहत तो कांग्रेस को भी मिल गयी है कि अब राजनीति से ही (‘जन’ नहीं बल्कि ‘सरकारी’ ही चाहे अब अन्‍ना पार्टी ही सरकार में आकर लोकपाल बनाए) लोकपाल का मसला तय होगा और इस खेल के वे चैंपियन हैं।
भारत आज भी देवताओं का देश है। हम अवतारवाद के इतने दृढ़ विश्‍वासी हो चले हैं कि बहुत सुकून से अपनी समस्‍याओं के बारे में सोचते हैं। अन्‍ना पार्टी के गठन की घोषणा ने हमारे मन में कुछ ऐसे ही सुकून और आशा का संचार कर दिया है और सरकार द्वारा उपेक्षित-तिरष्‍कृत आंदोलन कुछ नए रास्‍ते पर नए अवतार या पार्टी के जन्‍म की घोषणा के साथ समाप्‍त हो गया। वे लोग जो अपने फुर्सत के समय सड़कों पर उतरे थे और जिनकी जेब में फिल्‍म देखने के पैसे न होने के चलते रामलीला या जंतर-मंतर पर टाइम पास के लिए आ जुटे थे और जो एक मिस कॉल से मूवमेंट का लुत्‍फ उठा रहे थे वे जब राजनीति ऊबड़-खाबड़ जमीन पर आएँगे तो उनका आनंद गायब हो जाएगा और वे आलोचनात्‍मक हो उठेंगे। जो आज मित्र हैं वे ही कल निंदक बन बैठेंगे। चुनाव के बाद पार्टी अन्‍ना वैचारिक रूप से यूपीए के सबसे करीब होगी और बाबा रामदेव एनडीए के। शत्रु-मित्र की नयी परिभाषाएँ तय होंगी और अन्‍ना के अनुयायी आंदोलन का अंग न होकर सरकारी जमात और व्‍यवस्‍था का हिस्‍सा बन जाएँगे। महेश भट्ट की फिल्‍म ‘जिस्‍म-2’ में जिस्‍म कम और  व्‍यवस्‍था पर टिप्‍पणी अधिक है।
ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो फिल्‍मों के प्रोमो देखकर फिल्‍म समीक्षक बन जाते हैं। ऐसे लोगों पर मैं अपनी कोई राय नहीं रखता।ऐसे लोग सर्वत्र हैं। इसका नमूना ‘आरक्षण’ में देखने को मिला था। जैसे ‘आरक्षण’ में आरक्षण से अधिक शिक्षा-व्‍यवस्‍था पर टिप्‍पणी थी वैसे ही ‘जिस्‍म-2’  में जिस्‍म से अधिक विद्रोह और व्‍यवस्‍था का विवेचन है। इस फिल्‍म में जो लोग केवल जिस्‍म देखकर आ गए हैं मैं उनकी समझ को श्रद्धांजलि ही दे सकता हूँ। फिलहाल  बात फिल्‍म जिस्‍म-2 की। फिल्‍म की कहानी शुरू होती है एक पुलिस ऑफिसर की रेड से जिसमें वह ड्रग्‍स का धंधा करने वाले एक गिरोह का भंडाफोड़ करता है और एक निर्दोष लड़की को छोड़ देता है जो बाद में उससे प्रेम करने लगती है। आगे चलकर यह पुलिस अधिकारी एक आतंकवादी बन जाता है और उस लड़की को बिना बताए गायब हो जाता है। खुफिया एजेंसी इस लड़की को 10 करोड़ देकर उस आतंकी पुलिस ऑफिसर को पकड़ने का उपक्रम करती है और अंतत: यह लड़की उस आतंकी पुलिस ऑफिसर को मारकर उसका डाटा सरकारी जासुसों को देने आती है। तब उसे अपने प्रेमी पुलिस अधिकारी की बात याद आती है कि सरकारी अधिकारी रिश्‍वतखोर और भ्रष्‍ट थे जिनकी वजह से उसे अचानक गायब होना पड़ा और अब वह उनसे बदला ले रहा है। खलनायक नायक बन जाता है और नायक खलनायक। अंतत: फिल्‍म के सभी किरदार एक दूसरे को मार देते हैं और फिल्‍म का ट्रेजिक एंड होता है। दर असल समाज और व्‍यवस्‍था का जटिल चित्रण है। कौन अच्‍छा और कौन बुरा है इसकी पहचान जटिल हो गयी है। फिल्‍म में इसे दिखाया गया है। आज जो आंदोलन चल रहे हैं उनके पीछे किस प्रकार की महत्‍वाकांक्षा छिपी है इसे समय ही बताएगा और तब तक जनता ठगी जा चुकी होगी। इसलिए अपने विवेक को जागरूक बनाए रखना जरूरी है अन्‍यथा जिस्‍म-2 के किरदारों की तरह हमारा भी ट्रेजिक एंड होगा। जो भ्रष्‍टाचारी हैं उन्‍हें सजा मिले पर कहीं हम उन्‍हीं की साजिश का शिकार न हो जाय यह ध्‍यान रखना होगा। जिस्‍म-2 भ्रष्‍टतंत्र के सफेदपोश चरित्र को दिखाती है। इसमें अपनों के पराए होने और परायों के अपना हो जाने का आख्‍यान है जो अन्‍ना और रामदेव के आंदोलनों में बाकायदा देखा जा सकता है। इस फिल्‍म में ‘राजनीति’ है जो इसमें ‘रातनीति’ देखने जाएंगे उन्‍हें निराश होना पड़ेगा।