15 जुलाई, 2013

बहाव- एक कथा



सब कुछ तो बह गया

कालिदास का मेघदूत
तुलसी का घन घमंड
निराला का बादलराग
नागार्जुन के घिरते बादल

बादलों और बारिश से जुड़े
सारे अनुभव

आस्थाएँ भी कहाँ बचीं

केदार-मंडल की आरती
साक्षात शिव
और
उनसे जुड़ी सारी किंवदंतियाँ
हवन कुंड की आग
पुजारी की समिधा
भक्तों की प्राथनाएँ
सैलानियों के रोमांच
सपनों के तोरण
घंटियों की अनुरणन ध्वनियाँ
परिंदों का कलरव
हजारी का देवदारु

सब कुछ

जो बह गये
वे पत्थर के ढूह नहीं थे
टीले की झाड़ियाँ भी नहीं
वे आदमी थे

आदमी को दूसरे आदमियों से
उम्मीद होती है
आज भी
वह महफूज़ भरोसे से बाहर निकलता है
तंत्र और सरकारें भी तो
आदमी ही हैं
धर्म भी तो आदमी है
कष्ट क्रीड़ा कौतुक कौशल
संभावनाएँ
और
रिश्तों की श्रृंखला भी

पर
जिनको बहना था बह गये

कवि कविता में चला गया
संगीतकार संगीत में
औपचारिकताओं में चले गये
राजनेता औ प्रशासक
वैचारिक विचारधारा की क्रोड़ में
एक्टिविस्ट अपने आंदोलन की तेज करने लगा धार
चैनलों पर बादस्तूर चलते रहे कार्यक्रम
खरीद-फरोख्त के

फेसबुकिये भी सक्रिय हो उठे

जिनको बहना था बह गये
खुद शिव ही नहीं बचा सके अपना धाम
तो
इंसान की क्या बिसात

पर
वे लोग जो बह गये भुनगे तो नहीं थे
जिन्हें कीर्तन करते हुए श्रद्धांजलि दे दी जाय
और सीखा कुछ भी न जाय
सिर्फ मनोविज्ञान के बढ़ते फौरी दबाव को
कम कर लिया जाय

वेदना से सीखना भी तो चाहिये
और
जवाबदेही भी तय होनी चाहिये

ईश्वर तुम प्रश्नांकित हो
आपदा की इस घड़ी में

तीर्थयात्राएँ-
भगवान भरोसे नहीं चलनी चाहिये

दुर्घटनाएँ-
चाय का उबाल नहीं हैं
जो जलती आग तक खदबदातीं रहेंअौर
फिर
खामोश हो जायें
उन्हें रोकना होता है
कुशल प्रबंधनगहरे विवेक और दूरदृष्टि से

पर
जिन्हें बहना था बह गये

वे इतिहास के एक कच्चे समय
और
एक अविकसित भूगोल के नागरिक थे

वे
प्राकृतिक आपदा ही नहीं
मानव की दुरभिसंधियोंधनलिप्सा
और
अपने उत्साह के भी शिकार थे

खैर
वह मंजर ही बह गया
और
नाजिर भी ।
पर
कुछ है जो अब भी बचा है ।

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