हंसराज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित ‘जनसंचार माध्यम अौर हिन्दी भाषा’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में प्रस्तुत। 28-29 जनवरी, 2010
-राम प्रकाश द्विवेदी
स्त्रियों का वास्तविक आंदोलन 19 वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में आरंभ होता है जब पंडिता रमाबाई, रमाबाई रानाडे, आनन्दीबाई जोशी , फ्रानना सारोबजी, एनी जगन्नाथन, रुक्मा बाई , स्वर्ण कुमारी देवी, इसमें सक्रिय होती हैं। काशी बाई, कान्तिकर ने 1890 के समय में (पहली महिला उपन्यासकार) लेखन आरंभ किया। इन्ही दिनों माई भगवती (हरियाणा) जो आर्य समाज से जुड़ी हुई महिला उपदेशिका भी ने विशाल जनसभा को संबोधित किया था ।दैनिक ‘ ट्रिबयून’ ने इस पर टिप्पणी करते हुए अपने संवाददाता की रिपोर्ट छापी जिसमें कहा गया था कि “ माई भगवती के उपदेश के पश्चात हरियाणा के किसी भी घर में अच्छी तरह पका हुआ भोजन पा लेना कठिन हो गया है। लोग बदहजमी के डर से हरियाणा में ठहरने से कतराते हैं।” घरेलू कामकाज से बाहर निकलने और व्यापक स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिशे अब आरंभ हो गयी थी। मीडिया में इन खबरों की अनुगूँज होने लगी थी। इसी प्रकार जन आंदोलन के संचालन की पहली मिसाल मनोरमा मजूमदार (ब्रह्म समाज) के द्वारा मिलती है जो काफी विवादस्पद रही परंतु बाद में उसे स्वीकार कर लिया गया। राजनीतिक क्षेत्र में 1900 में कलकत्ता में संपन्न कांग्रेस के 16 वें अधिवेशन के समापन पर इसकी प्रथम महिला प्रतिनिधि श्रीमती कादम्बिनी बाई गांगुली ने अध्यक्ष को धन्यवाद ज्ञापन कर मंचीय उपस्थिति दर्ज करायी। इस प्रकार, 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही स्त्रियों का आंदोलन उनके अपने हाथों में आने लगा था और पितृसत्ता से मुक्ति के चिन्ह उसमें अनायास समाविष्ट होने लगे थे।
तत्कालीन मीडिया परिदृश्य पर ध्यान देने पर स्त्री विषयक दो परिदृश्य साफ- साफ उभरते हैं- १. पुरुष सुधारवादी नजरिया और २. स्त्रियों की आत्माभिव्यक्ति । पुरुष सुधारवादी नजरिया उस समय के विभिन्न पत्रों एवं पत्रिकाओं में व्यक्त होता रहा है जवकि स्त्रियों का अपना स्वर कुछेक स्त्री-केन्द्रित पत्रिकाओं तक सिमटा हुआ था, जिसे जानना महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इन्हीं छोटी-छोटी पत्रिकाओं के माध्यम से स्त्री का स्वर उभरा और पितृसत्ता से मुक्ति और स्वायत्त चिंतन की दिशा में वे अग्रसर हो सकीं। ब्रह्म समाज के संरक्षण में एक महिला पत्रिका ‘वामाबोधिनी’ (1863) आरंभ हुई थी। इसी प्रकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने स्त्री शिक्षण हेतु 1874 में ‘बाला बोधिनी’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। महिलाओं पर केन्द्रित इन पत्रिकाओँ का संचालन चूँकि पुरुष करते थे, इसलिए इनसे स्त्री आंदोलन का सिलसिला विकसित न हो सका। इसका कारण हम 1852 में आगरा से प्रकाशित ‘बुद्धि प्रकाश’ (सं० सदासुख लाल) के इस उद्धरण में देख सकते है-”स्त्रियों में संतोष, नम्रता और प्रीत यह सब गुण कर्ता ने उत्पन्न किए हैं। केवल विद्या ही की न्यूनता है जो यह भी होती तो स्त्रियाँ अपने सारे ऋण से चुक सकती हैं जो स्त्री विद्या से विहीन है वह बालकों के चित्त रूपी क्षेत्र में विद्या का बीज कैसे बो सकती है और उनके आगे की बुद्धि का कारण किस रीति से हो सकती है’” ( अम्बिका प्रसाद वाजपेयी, समाचार पत्रों का इतिहास,पृ०112)। तत्कालीन समाज सुधारकों के केन्द्र में स्त्री की शिक्षा और घर-बार का उसकी भूमिका के लिए नारी को तैयार करना था। राजनीतिक और आर्थिक स्वातंत्र्य अभी भी उसके दायरे से बाहर ही थे।
रामेश्वरी नेहरू ने 1909 में प्रयाग महिला समिति का गठन किया और ‘स्त्री-दर्पण’ नामक गंभीर पत्रिका की शुरुआत भी हुई। यह पत्रिका हिंदी प्रदेश की स्रीवादी आंदोलन की मुख्य पत्रिका बनी। हिन्दी क्षेत्र में स्त्रियों को लेकर छ: प्रमुख समस्याएँ उन दिनों चर्चित हो रही थीं- १. परदा प्रथा २. विधवा विवाह ३. बाल विवाह ४. मृत स्त्रीक विवाह ५. स्त्री शिक्षण और ६. राजनीतिक अधिकारों का प्रश्न। इन सभी विषयों पर विपुल सामग्री इस पत्रिका में छपती थी। राजनीतिक अधिकारों का विषय स्वाधीनता आंदोलन का परिणाम था शेष पुराने विषय थे जिन्होंने पुरुष सुधारवादियों ने पहले भी उठाया था। अपने लेखों में सौभाग्यवती (आधुनिक पर्दा प्रणाली तथा उससे हानियाँ, अगस्त,1918) में पर्दे को इस्लामी शासन का परिणाम सिद्ध करती हैं और उसे स्त्री की प्रगति और शिक्षा और अन्य सवालों के साथ जोडती हैं। सत्यवती के लेखों में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि स्त्रियों को आपसी समझदारी और मेल जोल बढ़ाना चाहिए जो समकालीन नारीवादी आंदोलन का बीज क्षेत्र है। इसी प्रकार मृत स्त्रीक यानी पत्नी के मर जाने के बाद पुरुष का दूसरा विवाह, इसके विभिन्न पहलुओं में प्रकाशित हुआ एक लेख- हुम्मा देवी का अगस्त, 1917 के ‘स्त्रीदर्पण ‘ में प्रकाशित हुआ। वे लिखती है कि- पशु अथवा पक्षी पालने वाले पुरुष को उसके मरने अथवा उड़ जाने पर अधिक शोक होता है पर अपनी पत्नी के रोगग्रस्त होने अथवा मरने पर उतना भी नहीं; क्योंकि स्त्री पैर की जूती है। फट गयी तो नई आ जाएगी।” ‘स्त्री दर्पण’ में लेख ही नहीं पाठकीय प्रतिक्रियाओं में भी इस समस्या को उठाया गया। फरवरी 1918 के अंक में कोटा की श्रीमती गुलाब देवी चतुर्वेदी का सम्पादिका के नाम एवं रोचक पत्र छपा था-” मृत स्त्रीक पुरुषों को ढूँढ-ढूँढ कर कन्याएँ ब्याही जाती हैं। कन्या है 15 वर्ष की और हमारे वर या दूल्हा जी 60 वर्ष के क्या ऐसी सुंदर जोड़ी भी कभी खराब मालूम होती है? धन्य है!धन्य है!!” महिलाओं के लेखन में व्यंग्य और वेदना का गहरा समावेश होने लगा था। वे अपनी अभिव्यक्तियों के लिए सक्रिय होने लगी थी। ‘स्त्री दर्पण’ जैसी पत्रिकाओं ने उन्हें संगठित होने और अनुभव का साझा करने की दिशा में प्रेरित किया। विधवा विवाह के प्रश्न को लेकर भी ‘स्त्री दर्पण’ में रामेश्वरी नेहरू ने एक संपादकीय ( मई, जून 1919)में लिखा कि -” जो विधवाएँ देवी पद पर सुशोभित रहकर निष्काम धर्म की मूर्तिमती देवी बनी हैं वे हमारी हैं और सारे संसार की पूजनीया हैं। पर प्रश्न है उन बेचारियों का। जो लालसा दमन नहीं कर सकती और विवाह के लिए तरसती हैं।” इस संपादकीय टिप्पणी में वैधव्य झेलने की गरिमा भी है तो साथ में उससे मुक्ति की चाह भी। इसी द्वैतपूर्ण मन: स्थिति में यह युग स्त्रियों की धुंधली- सी छवि उभरता है और मीडिया के द्वारा यह विकसित- प्रसारित होती है। ‘सरस्वती’ और ’मर्यादा’ जैसी पत्रिकाओं में भी स्त्री स्वर बुलंद होने लगा था। स्वराज की माँग में स्त्रियों की बढ़ती शिरकत उनकी राष्ट्रवादी छवि का निर्माण करने लगी। उन्होंने अनेक नागरिक संस्थाओं की स्थापना कर अपने सामाजिक -राजनीतिक दायित्व की निर्वाह की ओर अपना कदम बढ़ाया।
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद इस युग का महिला स्वर सुधारवाद की गिरफ्त में था और समान अधिकारों की माँग उसमें दब-सी गयी थी। ‘हरिश्चन्द्र चंद्रिका’, ‘हिंदी प्रदीप’,’सार सुधानिधि’,’रचित वक्ता’, ’हिन्दी बंगवासी’, हरिश्चन्द्र मैगजीन’, ’हिन्दोस्थान’, ‘कविवचन सुधा’ ,ने 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध तथा सरस्वती, समालोचक, देवनागर,कर्मयोगी,इन्दु,मर्यादा, प्रताप, प्रभा, स्त्री दर्पण, चाँद, माधुरी, मतवाला, सुधा, विशाल भारत और आदर्श, भारत मित्र, कलकत्ता समाचार और हरिजन सेवक तथा जागरण, ओज, दैनिक हिन्दुस्तान (1936) आदि 20 वीं सदी के पूर्वाद्ध के महत्त्वपूर्ण पत्रों की मदद से ये दुविधाजीवी महिला विचार प्रकाशित होते रहे। महिला संबंधी विचारों की पोषक थीं- पंडिता रमाबाई, रमाबाई रानाडे, आनंदीबाई जोशी, फ़ेकीना सोरण जी, स्वर्ण कुमारी तथा रुस्तम जी फरीदूनजी, हेराबाई टाटा, एममुथ्थुलक्ष्मी रेड्डी, दुर्गाबाई देशमुख, राजकुमारी अमृत कौर, विजय लक्ष्मी पंडित, कमला देवी चट्टोपाध्याय, बेगम सरीफा हामिद अली सरोबजी आदि। इस युग के नारी आंदोलन पर निम्मलिखित टिप्पणी समीचीन दिखाई देती है- “ आंदोलन की इस स्वीकृति ने कि महिलाएँ पुरुषों की पूरक भूमिका निभाएँगी पुरुषों के विरोध को कम कर दिया था किन्तु इससे यह आंदोलन सही परिप्रेक्ष्य में उभरकर सामने न आ सका। साथ ही भविष्य में लिंग के आधार पर श्रम विभाजन पर प्रहार करने की पीठिका भी यह तैयार करने में विफल रहा।” ( Jane Matson Everelte, women & social change in India ,Pg. 66) इसी प्रकार की टिप्पणी अन्यत्र भी अभिजात संस्थानिक राजनीति में भारतीय नारी आंदोलन के उद्भव ने इस नारीवादी आंदोलन को अनेक महत्त्वपूर्ण तरीकों से स्वरूप प्रदान किया।
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