हंस, सितम्बर २०१५
- राम प्रकाश द्विवेदी
भाषा एक साथ कई कार्य करती है। जिनमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को सहज ही पहचाना जा सकता है। भारत और जापान को आपस में जोड़ने के लिए बौद्ध धर्म के प्राचीन धागे का उल्लेख तो बहुधा किया जाता है लेकिन आधुनिक समय में हिन्दी ने व्यावसायिक और सांस्कृतिक गतिविधियों को सक्रिय बनाने में बड़ी भूमिका निभायी है। जापान में हिन्दी के मुख्य आयाम शिक्षण, शोध, अनुवाद, खान-पान, सिनेमा और संस्कृति के क्षेत्रों में पहचाने जा सकते हैं।
जापान के दो विश्वविद्यालयों में हिन्दी की विधिवत पढ़ाई होती है, यानी आनर्स, एम०ए० तथा शोध स्तर तक की। जिसमें एक राजधानी तोक्यो (तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय) और
दूसरा विश्व-प्रसिद्ध व्यावसायिक शहर ओसाका (ओसाका विश्वविद्यालय) में स्थित है। दोनों विश्वविद्यालयों में हर साल बीस-पचीस नए विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं। छात्रों को पढ़ाने का सिलसिला निश्चय ही वर्णमाला ज्ञान से होता है परंतु अपनी परिपक्व आयु और समझ के चलते वे शीघ्रता से भाषा एवं साहित्य के साथ जुड़ जाते हैं। अब हिन्दी पढ़ने वाले छात्र भारत की बढ़ती हुई अर्थव्यस्था के प्रति अधिक आकर्षित हैं। परंतु कुछेक छात्रों की पारिवारिक, शैक्षणिक पृष्ठभूमि ऐसी होती है जिसके चलते वे भारत और हिन्दी के प्रति अपना रूझान विकसित कर पाते हैं।
उपरोक्त दो विश्वविद्यालयों के अतिरिक्त तोक्यो विश्वविद्यालय, तोयो विश्वविद्यालय, एशिया विश्वविद्यालय, सोफिया विश्वविद्यालय (जोचि विश्वविद्यालय), तोकाइ विश्वविद्यालय, दाइतो बुंका और ताकुशोबु विश्वविद्यालय जैसे विश्वविद्यालयों में डिप्लोमा या प्रमाणपत्र स्तर तक की पढ़ाई होती है। अध्ययन का सीधे तौर पर नौकरी से संबंध नहीं होता है। मसलन हिन्दी पढ़ने वाले अनेक छात्र बैंकिग, इंजीनीयरिंग, कॉस्मेटिक आदि कंपनियों में भी जा सकते हैं। इसलिए भाषा-अध्ययन मूलत: स्वेच्छा और आत्म-प्रेरणा से जुड़ा मामला है। कुछेक छात्र अपनी अभिरूचि के चलते अध्ययन को गंभीरता से लेते हैं और आगे चलकर शोध कार्य में सक्रिय हो जाते हैं।
जापान में शोध-कार्य बेहद ईमानदारी, जवाबदेही और निष्ठा से करने का स्वाभाव है।श्रम के प्रति सम्मान दैनिक जीवन का हिस्सा है जो शिक्षण और शोध में भी परिलक्षित होता है।’परफेक्शन’ जीवन का
एक
सामाजिक मूल्य-सा बन गया है। इसके चलते हिन्दी और भारतीय इतिहास, राजनीति, प्रशासन और समाजशास्त्र के बारे में किए जा रहे शोधों का स्तर काफी ऊँचा है। आश्चर्य होता है कि वे विद्यार्थी जो वर्णमाला से जूझ रहे थे देखते-देखते कैसे भारतीय जनसमाज की गहराइयों से रूबरू होने लगते हैं।इसका उदाहरण कत्सुरो कोगा एवं अकिरा ताकाहाशी द्वारा बनाए गए शब्दकोश को देखकर होता है।इसमें हिन्दी की तमाम बोलियों के कम पहचाने शब्दों को पाकर आश्चर्य हो जाता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ हमारे बारे में जापान के लोगों को अधिक पता है। अनेक जापानी विद्वान भारत में महीनों रहकर अपनी शोध-सामग्री का संकलन करते रहते हैं। कुछेक तो एैसे भी हैं जो तथ्यों के मिलान के लिए दुनिया के अन्य देशों के पुस्तकालयों-संग्रहालयों तक की बार-बार यात्राएँ करते हैं। इंटरनेट के ज़माने में भी वे सीधे-स्रोत तक पहुँचने की कोशिश करते हैं। प्रो०हिदेआकि इशिदा हर छमाही ‘हिन्दी साहित्य’ नामक पत्रिका का
प्रकाशन करते है।
इसकी भाषा तो
जापानी है
परंतु केंद्र में
हिन्दी साहित्य होता है।
इसीप्रकार ओसाका विश्वविद्यालय में कुछेक वर्ष पूर्व तक ‘ज्वालामुखी’ पत्रिका का हिन्दी में ही प्रकाशन होता था। जिसकी प्रतियाँ आज भी वहाँ सुरक्षित हैं।
अच्छे शोध के लिए आवश्यक है समृद्ध आधार एवं सहायक सामग्री की उपलब्धता। जापानी पुस्तकालयों में पुस्तकों, पत्रिकाओं, जर्नलों के उपयोगी संकलन मिल जाते हैं। उदाहरण के लिए तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय की लायब्रेरी में अनेक रचनाओं के प्रथम संस्करण मिल जाते हैं। ‘गोदान’ का
पहला संस्करण भी
यहाँ उपलब्ध है।
इसीप्रकार ‘जागरण’ माधुरी और ‘हंस’(नया) की पूरी जिल्दों को यहाँ देखा-पढ़ा जा सकता है। हिन्दी की दुर्लभ सामग्री की उपलब्घता को लेकर प्रो0 फुजिइ
ताकेशी ने एक सुंदर लेख लिखा है। अब फ़िल्मों और वृत्तचित्रों की डीवीडी की खरीद के काम में भी तेजी आयी है और एक अच्छा कलेक्शन तैयार हो रहा है। पिछले साल से भारतीय मीडिया और भारतीय सिनेमा का अध्यापन शुरू हुआ तो हिन्दी की डिजिटल सामग्री की व्यापक जरूरत महसूस हुई है। पुस्तकालय अच्छे शोध की रीढ़ होता है जो जापान के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में बड़े कायदे से व्यवस्थित किए जाते हैं। अध्ययन सामग्री ढ़ूढ़ने में बहुत कम समय और ऊर्जा लगती है।यहाँ के विश्वविद्यालयों में हिन्दी की प्रचुर सामग्री और उसे इंटैक्ट देखकर आश्चर्य होता है।
जापानी भाषा में हिन्दी की अनेक महत्वपूर्ण रचनाओं का अनुवाद हो चुका है। प्रेमचंद की कहानी ‘क़फन’
के
दो-तीन अनुवाद मिलते हैं। फणीश्वरनाथ रेणु की ‘तीसरी कसम’
का
भी
बेहतर अनुवाद मिलता है।
भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ का अनुवाद भी बड़े जीवंत रूप में उपलब्ध है। हिन्दी के प्रसिद्ध जापानी विद्वान तोशियो तनाका जी ने भीष्म साहनी के ‘तमस’
का
मार्मिक अनुवाद कर
जापानी समुदाय को
भारत विभाजन की
त्रासदी से
परिचित कराया है।
उन्होंने ही
साहनी जी
की
दूसरी रचना ‘बलराज:मेरा भाई’
का
भी
जापानी अनुवाद किया है। अभी पता
चला
है
कि
इसके अनुवाद के
सिलसिले में
उन्होंने भीष्म जी
से
कई
बार
पत्राचार किया था।
लगभग २४
पत्र अभी
उनके पास
सुरक्षित हैं
जो
अब
एक
ऐतिहासिक दस्तावेज़ बन चुके हैं। ये पत्र अब तक प्रकाशित नहीं हुए हैं, आशा है वे जल्द ही प्रकाश में आएँगे। इसीप्रकार अनेक अन्य हिन्दी रचनाओं के रोचक, पठनीय और संप्रेष्य अनुवाद जापानी भाषा में उपलब्ध हैं।
जापान में लोग अधिकांशत: घर के बाहर खाना खाते हैं। अतिथियों को भी रेस्त्रां में ही बुलाकर भोजन करवाने का प्रचलन है। यहाँ दक्षिण एशिआई देशों में गहरी मित्रता देखने को मिलती है। क्योंकि परंपरा से लोग भारत से ही परिचित हैं, इसलिए नेपाल, पाकिस्तान और बंग्लादेशी रेस्त्राँ भी भारतीय रेस्त्राँ के नाम अपना लेते हैं। साथ ही भारत का झंडा भी। बहुत से छात्र बताते हैं कि वे हिन्दी में बात करने के लिए इन जगहों पर जाते हैं। खाना खाना और यहाँ के लोगों से हिन्दी में बातचीत करना दोनों उद्देश्यों की पूर्ति यहाँ हो जाती है। तोक्यो शहर में जहाँ-तहाँ ऐसे भारतीय (जिनमें नेपाली, पाकिस्तानी और बंग्लादेशी शामिल हैं) रेस्त्राँ मौजूद हैं जहाँ उपमहाद्वीप का खाना और संस्कृति की झलक मिल जाती है। यहाँ वे खान-पान से संबंधित अनेक शब्दों को सीखते हैं। यह अनौपचारिक रूप से शिक्षण का ही एक हिस्सा है। हमारे यहाँ ‘रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पीने’
वाली बात
यहाँ नहीं है।
लोग
खाने-पीने पर ही सबसे ज्यादा पैसे खर्च करते हैं। भोजन करना एक सांस्कृतिक व्यावहार है और यह भाषा सीखने का एक कारगर औजार भी।
विदेशी भाषा को अपनाने में वक्त लगता है। हमारे यहाँ विदेशी भाषा का तात्पर्य प्राय: अंग्रेजी है। पर भारत में अंग्रेजी सीखने का पूरा माहौल है। जापान में हिन्दी सीखने के लिए ऐसा परिवेश उपलब्ध नहीं है। हर शब्द सीखना और उसे याद भी रखना कई बार मुश्किल होता है। ऐसे में ये भारतीय भोजनालय अपना कम महत्व नहीं रखते। अनेक छात्र अपनी आजीविका के लिए काम करते हैं। माता-पिता से आत्मनिर्भर होकर जीना यहाँ की फितरत है। इसके लिए वे भारतीय रेस्त्राँ में काम तलाशते हैं। कक्षाओं में यह देखने में आता है कि जो छात्र भारतीय रेस्त्राँ में काम करते हैं वे तेजी से हिन्दी में बातचीत करना सीख जाते हैं। उनका उच्चारण भी स्वाभाविक लगता है और बोलचाल का प्रवाह भी सहज जान पड़ता है। इसलिए खान-पान की संस्कृति हिन्दी के विकास में सहायक बनी हुई है।
जापान में हिन्दी फिल्में हमेशा तो नहीं देख सकते जैसा कि अमेरिका या ब्रिटेन में होता है पर अक्सर ही कोई फिल्मोत्सव या फिल्म-क्लब हिन्दी फिल्मों को दिखाने का उपक्रम करते रहते हैं। फिल्म दिखाने के पूर्व यह जरूरी है कि उसके उपशीर्षक जापानी भाषा में तैयार किए जाय। ऐसा करते हुए छात्रों को हिन्दी सीखने का मौका मिलता है। इसमें बहुत से हिन्दी विद्वानों को भी शामिल किया जाता है। यदि फिल्म का प्रदर्शन व्यावसायिक हो तो अन्यथा छात्रों से ही काम चलाया जाता है। उपशीर्षकों की प्रक्रिया से जुड़े विद्यार्थी समकालीन हिन्दी संवादों को गहराई से समझने का प्रयत्न करते हैं। आम छात्र या नागरिक जो हिन्दी फिल्में देखने जाते हैं वे भी अपने साथ कुछेक नए वाक्य और शब्द सीखकर समृद्ध होते हैं। पिछले दिनों ‘थ्री इडियट’ फिल्म पूरे देश
में
लोकप्रिय हो गयी थी।
उसकी पटकथा का
अब
जापानी अनुवाद भी
उपलब्ध हो
गया
है।
विद्यार्थी अब कक्षाओं में इस फिल्म के बारे में ऐसे बात करते हैं मानो यह कोई जापानी या उनकी अपनी भाषा की ही फिल्म हो। अनेक हिन्दी फिल्में जापान आ चुकी हैं और पुरानी फिल्मों पर अनेक शोध कार्य भी हो चुके हैं। इनमें ‘उमराव जान’ प्रमुख है। मनोरंजक तरीके से हिन्दी पढ़ने-पढ़ाने में हिन्दी फिल्मों की अपनी अनूठी भूमिका है।
इसके अतिरिक्त बहुत-सी सांस्कृतिक गतिविधियों के माध्यम
से हिन्दी पठन-पाठन का प्रोत्साहन किया जाता है। जिसमें तोक्यो स्थित भारत के
राजदूतावास की अग्रणी भूमिका है। हिन्दी में निबंध लेखन,परिचर्चा,
संवाद और वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के आयोजन से विद्यार्थी हिन्दी
में अपनी प्रस्तुति के लिए मंच पा जाते हैं। नृत्य और नाट्य प्रस्तुतियाँ इसमें पूरक की भूमिका निभाती
हैं। आजकल कथक यहाँ काफी प्रचलित हो चला है। इसके अलावा अनेक गैर सरकारी और गैर अकादमिक
संस्थाएँ भी हिन्दी और हिन्दुस्तान से जुड़ी गतिविधियों का संचालन करती हैं और उसमें
छात्र अधिक दिलचस्पी से शिरकत करते हैं। विदेश भाषा शिक्षण का वह स्वरूप नहीं हो सकता
जो अपने देश में होता है। उसे कक्षाओं के साथ-साथ अन्य पूरक
कार्यकलापों से जोडना होता है। कहना न
होगा कि जापान और भारत के संबंधों को ताकत देने में हिन्दी एक महत्वपूर्ण कडी है।
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