‘हिन्दी जगत’ के लिए 1
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-राम प्रकाश द्विवेदी
हर शहर अौर समाज की फितरत अलग-अलग होती है। दिल्ली शहर में सायकिल तो क्या बाइक चलाना भी खतरनाक होता है। जहाँ-तहाँ दुर्घटनाअों की खबरें सुनकर मन कच्चा हो जाता है। इसलिए कभी दिल्ली में रहते हुए सायकिल चलाने की बात भूलकर भी नहीं सोची थी।
जब जापान पहुँचा तो भी यही बात सामने थी कि पराए देश में सड़क पर पैदल ही चला जाय। कोई बात हो गयी तो कैसे किसी से बहसबाजी करेंगे। भाषा तो आती नहीं। इसलिए सायकिल लेने का ख्याल बहुत दिनों तक न अाया था। जब काफी अरसा बीत गया तो आते-जाते एक बात लक्षित की कि यहाँ सभी उम्र के लोग सायकिल की सवारी करते हैं। यहाँ तक कि अस्सी साल की अौरते भी प्राय: सायकिल चलाते दिख जाती हैं। रोजमर्रा की चीजें लोग सायकिल से ही लाते हैं। इसका मतलब यह था कि जापान सायकिल चलाना बहुत ही आम बात है । धीरे-धीरे मैंने देखा कि मेरे आसपास रहने वाले सभी लोगों के दरवाजों पर कम से कम एक सायकिल तो खड़ी ही है। कई दरवाजों पर तो हरेक सदस्य के लिए अलग-अलग सायकिलें है यानी तीन या चार भी। जब विश्वविद्यालय से शाम को घर लौटता तो अपना दरवाजा सूना-सूना लगता। यह सूनापन मेरे स्मृतिबोध में कहीं गहरे जमा हुआ था। पर, बात अायी-गयी होती रही। अक्सर जापान में अपना सारा काम खुद ही करना पड़ता है इसलिए मशरूफियत कुछ ज्यादा ही हो जाती है। एेसे में स्मृतियों के बारे में सोचने के लिए ज्यादा सम्मान, समय अौर अवसर उपलब्ध नहीं होता।
एक दिन मेरे पाकिस्तानी प्रोफेसर मित्र ने सायकिल खरीदने का प्रस्ताव रख दिया। मैने पहली बार में ही मना कर दिया। पर उनका प्रस्ताव मन में घूमता रहा। फुर्सत के क्षणों में इधर-उधर घूमते हुए प्राय: नजर सायकिल की दूकानों पर आ कर टिक जाती। बाजार में तरह-तरह की सायकिलों की भरमार है। तकनीकी नजरिए से बड़ी उन्नत अौर साधारण भी। पैसे के लिहाज से भी देखें तो दस-ग्यारह हजार से शुरू होकर दो-ढाई लाख तक।धीरे-धीरे दरवाजे का सूनापन अखरने लगा।एक दिन रात में जब सहसा नींद खुली तो स्मृतिकोश में दबा वह भाव प्रत्यक्ष हो गया।कभी मेरे गुरू विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘गोदान’ पढ़ाते हुए यह बात बतायी थी कि इस कृति की मूल संवेदना होरी का वह स्वप्न है जिसमें वह देखता है कि उसके दरवाजे पर एक सजीली गाय बँधी है। होरी, गाय अौर सूने दरवाजे का यह गहरा बिम्ब एक बार पुन: मेरे सामने प्रत्यक्ष हो उठा था। अब पता चला कि जब-जब मैं दूसरों के दरवाजों पर सायकिल खड़ी देखता हूँ तो मेरे भीतर का सूनापन क्यों उभर आता है।गाय के बँधे होने से जो मरजाद बनती थी शायद वही मरजाद सायकिल के खड़े होने से बनेगी, यह बात दृढ़ता से मन में बैठ गयी। अवध में प्रतिष्ठित किसान होने के लिए गाय का बँधा होना जरूरी है तो अच्छा एवं सुसंस्कृत नागरिक दीखने के लिए जापान में दरवाजे पर सायकिल का खड़ा होना लगभग अनिवार्य सा है। अब तय हो गया कि सायकिल तो लेना ही है।पर कौन सी, यह सवाल फिर भी बना रहा। सामाजिक प्रतिष्ठा बीच में आ खड़ी हुई।
मैंने अपने अड़ोस-पड़ोस में नजर दौड़ाई। तरह-तरह की रंग-विरंगी सायकिलों का जमघट था। गियर वाली, टोकरी वाली अौर वैसी टोकरी वाली जिसमें बच्चे भी आराम से बैठ सकते हैं। इसी ऊहापोह में एक रात सपना आया। मैं एक सायकिल चला रहा हूँ जिसमें एक बच्चा बैठा है। बहुत दूर तक तरह-तरह के नजारे बिखरे पड़े हैं। हमारी सायकिल पहाड़ों-तलहटियों से गुजरते हुए जा रही हैं। आसपास नदी का किनारा भी है। मैं बच्चे से तरह-तरह की बातें कर रहा हूँ, वह भी फर्राटेदार जापानी में।सायकिल की सवारी में अद्भुत आनंद अा रहा था। तभी अलार्म बज उठा। विश्वविद्यालय जाने का समय हो आया था। जब घर से बाहर निकला तो सायकिल विहीन द्वार एक बार फिर अखरा।राहों पर चलते हुए सायकिलें ही सायकिलें नजर आ रही थीं। अब तो मन वो बच्चा भी ढूढ़ रहा था जो सपने में मेरी सायकिल पर बैठा घूम रहा था अौर खूब बतिया रहा था। दो-तीन दिन यूँ ही निकल गए। मन किसी काम में लग नहीं रहा था। मैंने अपने पाकिस्तानी प्रोफेसर मित्र सुहैल साहब से संपर्क किया। उनसे निवेदन किया कि वे अपनी एक्सपर्ट राय दें अौर सायकिल खरीदवा दें। आखिर एक शाम उन्होंने मुझे एक सामान्य सी सायकिल दिलवा दी।जिसमें सब्जी लाने वाली टोकरी तो थी पर बच्चे वाली नहीं। जब सायकिल दरवाजे पर खड़ी हो गयी तो द्वार समृद्ध सा दिखने लगा।मन में भी चैन आ गया। उनका शुक्रिया अदा करने के लिए मैंने चाय पीने की पेशकश की। जिसे उन्होंने सहज ही स्वीकार कर लिया। चाय पीते हुए मैंने सुहैल साहेब से अपने सपने के बारे में बताया। सायकिल अौर बच्चे के बारे में। वे हँस पड़े। कहने लगे ’ वो बच्चा मिल जाय तो आप जरूर उसे अपनी सायकिल की टोकरी में बिठा लें अौर हाँ अगर उसकी माँ मिल जाय तो मेरा पता दे दें।’ तब से मैं वो बच्चा ढूँढ़ रहा हूँ अौर सुहैल साहब उसकी माँ।
सायकिल आने के बाद मैं अब अक्सर बारह किलोमीटर दूर विश्वविदयालय तक की यात्रा इसी से करता हूँ। पैसे की बचत अौर स्वास्थ्य लाभ दोनों एक साथ चल रहा है। तोक्यो शहर का स्थापत्य अत्यंत लुभावना है। उसके पहाड़ों को काटकर समतल नहीं किया गया जैसाकि दिल्ली की रायसीना अौर अरावली पहाड़ियों को नष्ट कर सपाट मैदान सा बना दिया गया है। ऊँचे-नीचे रास्तों-गलियों के होने से सड़को-राहों पर भीड़ दिखाई नहीं देती। घर-मकान भी एक दूसरे के बिल्कुल आमने-सामने नहीं आते।प्राइवेसी बरकरार रखने के लिए शहर का एेसा स्थापत्य बचाए रखना जरूरी होता है।सुहैल साहब भी मेरे साथ-साथ अब सायकिल की यात्रा करने लगे हैं। कारण, उनकी तोंद काफी बाहर आ गयी है जो उनके शारीरिक स्थापत्य के सौंदर्य को नष्ट कर रही है। सायकिल चलाने से उन्हें पूरी आशा है कि वह कम हो जाएगी अौर वे अपना स्वाभाविक रूप-सौन्दर्य फिर पा सकेंगे। एक दिन एक गर्भवती महिला सायकिल चलाते हुए आ रही थी। मैंने उनसे कहा आपका पेट अौर उस महिला का पेट लगभग बराबर ही है। वे मुस्कराए अौर बोले कि उसकी तोंद तो कुछ महीनों में कम हो जाएगी मेरी पता नहीं कब होगी। मैंने कहा कि कोशिश करते रहिए। रास्ते में एक बीहड़ चढ़ाई पड़ती है। मैं तो बिना सायकिल से उतरे उसे पार कर लेता हूँ। सुहैल साहब सायकिल से उतरकर ही चढ़ाई पार कर पाते हैं। मैंने उनसे कहा जिस दिन आप बिना सायकिल से उतरे इस चढ़ाई को पार कर लेंगे उस दिन मैं अपने सपनों के बच्चे की माँ को आपका पता दे दूँगा। उस दिन से वे लगातार कोशिश कर रहे हैं। इंच दर इंच फुट दर फुट उनकी सायकिल आगे चढ़ती जा रही है। सायकिल आगे चढ़ते जाने में एक सपना छिपा है।हर कोशिश एक सपना ही तो है।
‘गोदान’ में होरी के कई सपने पूरे हो गए कई अधूरे रह गए थे। मरते दम तक उसकी भी कोशिश जारी थी एक गाय को पाने की। दुनिया के हर आदमी में एक होरी छिपा है। उसके कुछ सपने पूरे हो जाते हैं, कई अधूरे । पूरे-अधूरे सपनों के बीच ही कहीं जीवन की सार्थकता है, क्या यही मोक्ष है? या यूँ कहें कि हर मोक्ष अधूरा है।
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