सभ्यता का विकास एक मानवीय उद्यम है।मनुष्य ने अपने जीवन को लगातार आनंददायी बनाने के लिए अनेक आविष्कार किए और बहुत से उपकरणों की खोज की।उसके इस प्रयास में तीव्रता तब आयी जब उसे विज्ञान का सहारा मिला और उसकी जिज्ञासा का क्षेत्र आध्यात्मिक-पारलौकिक न रहकर सांसारिक और लौकिक अनुभूतियों के इर्द-गिर्द विकसित होने लगा।इसे सभ्यता का आधुनिक काल कहा जाता है। मानव जीवन के इतिहास का यह सबसे हलचल भरा और प्रयोगधर्मी युग है।पुरा काल से लेकर आज तक सभ्यता के विकास में संचार ने अहम् भूमिका निभाई है।आपसी संवाद और टीम भावना ने उसके शुरूआती अस्तित्व की दिशा तय की और उसे निर्भीकता प्रदान की। शिकारी जीवन से लेकर सभ्यताओं के अभ्युदय तक प्रत्यक्ष किस्म के संचार ने उसे मजबूत रूप से संगठित कर दिया था।लिपियों के उदय और लेखन प्रणाली की खोज के परिणामस्वरूप मानवीय संवाद में इतिहास और भूगोल की बाध्यताएँ समाप्त हो गयीं और उसने अपने अनुभव और ज्ञान में व्यापक जनसमूह और पीढि़यों का साझा करने की दक्षता और कौशल अर्जित कर लिया था। इसी दौरान मानव समूह अधिक संगठित होने लगे और जनसंचार के प्राक् रूपों का विकास आरंभ हुआ।
मानव सभ्यता का इतिहास जहाँ युगांतकारी आविष्कारों और अस्तित्व रक्षा के असंख्य प्रयत्नों से भरा पड़ा है,वहीं वह अनंत भूलों और अवसरवादिता की अनेक घटनाओं का प्रमाण भी हमें देता है। 21वीं सदी में हम सभ्यता के जिस मुकाम पर पहुँचे हैं,वह न केवल हमारी उपलब्धियों वरन् हमारी चूकों,भूलों और स्वार्थपरकता का भी परिणाम है।इसके चलते सभ्यता के किसी मुकम्मल मुकाम पर हम पहुँच पाए हैं , यह दावा आज कोर्इ नहीं कर सकता।इसीलिए वैकल्पिक सभ्यता की आहट सुनना हमारे लिए एक जरूरत भी है और एक स्वप्न भी। सपने और जरूरत एक दूसरे के विरोधी न होकर, पूरक हैं,ऐसा मेरा मानना है।हमारा समकालीन मीडिया भी इन दोनों बिंदुओं के आसपास घूमता है और सूचना और स्वप्न के अनेक आयाम प्रस्तुत करता है।
मीडिया की तकनीक
तकनीक हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा रही है।यहाँ मैं तकनीक को दो हिस्सों में विभाजित करना चाहता हूँ।एक वह जो मनुष्य की सहयोगी है और दूसरी वह जो उसका विस्तार है।प्रसिद्ध मीडियाविद् मार्शल मकलुहान ने मीडिया की तकनीक को दूसरी श्रेणी अर्थात मनुष्य के विस्तार के रूप में – रखा है।उनकी प्रसिद्ध पुस्तक है Understanding Media: An Extension of Man.यानी मीडिया मानवी क्षमता का विस्तार है। यह दूसरी श्रेणी की तकनीक अपनी खूबियों के साथ मनुष्य को खिलवाड़ करने का अवसर भी प्रदान कर देती है। हमारा समकालीन मीडिया दरअसल इसीप्रकार की कवायद को अधिक अंजाम दे रहा है जिसके परिणाम हमारे लिए वांछनीय नहीं हैं। यही कारण है कि मीडिया की वैकल्पिक तकनीक की खोज आवश्यक हो जाती है। इस आलेख का उद्देश्य वस्तुत: इसी मुद्दे पर रोशनी डालना है।
तो सवाल उठता है कि मनुष्य संप्रेषण क्यों करता है ? उसकी सूचना,मनोरंजन और शिक्षा संबंधी आवश्यकताओं को कैसे परिभाषित करना चाहिए ? क्या यह एक हीडोनिस्ट (सुखवादी) प्राणी मात्र है। यदि ऐसा है तो वह अन्य जीवों से अलग कैसे है ? वास्तव में मनुष्यता, विविधता का ही अलग नाम है। हम जैविक धरातल पर एक-से दिखते हुए अलग-अलग विचारों, भावनाओं,बोधों से परिचालित होते हैं। इस स्थिति में हमारा शरीर महज एक उपकरण मात्र बनकर रह जाता है। संवेदनाओं का सेंसर भर। इसलिए हम एक से दिखते हुए बहुधा अलग होते हैं, लेकिन इतना भी नहीं कुछ साझा ही न कर सकें। संचार,दरअसल, तभी संभव हो पाता है जब वह साझेपन और विविधता को समझे और इनमें संतुलन बिठाए। हुआ यह है कि साझापन तो मान लिया गया है परंतु विविधताओं की अवहेलना होती चली गयी है। हमारे जनसंचार के सिद्धांत-चाहे वह विज्ञापन हो, सिनेमा हो या अन्य किसी कार्यक्रम से संबंधित हो वैशिष्ट्य को नकारते हैं और जनमाध्यमों को एक ‘मास’ के प्रति जवाबदेह मानते हैं। अब थोड़ा एम.एन. श्रीनिवास के संस्कृतिकरण के सिद्धांत की ओर चलें । उनका मानना है कि समाज के अभिजात वर्ग की संस्कृति धीरे-धीरे आम लागों की संस्कृति बन जाती है। जनसंचार माध्यम चूँकि तकनीक और पूँजी से संचालित होते हैं,अत: वे अपने संदेश का निर्माण अभिजात्य वर्ग के लिए ही करते हैं। इस प्रकार जन माध्यम आम लोगों,जनसाधरण का माध्यम न होकर अभिजन माध्यम बन जाता है और अपना अंतर्विरोध प्रकट करता है। इसी अंतर्विरोध से वैकल्पिक मीडिया की संभावना निर्मित होती है और आम आदमी उसकी जरूरत महसूस करता है।
हमारी सभ्यता की दौड़ एक रेखीय (linear) हो रही है,इसलिए जनमाध्यम, अभिजन-माध्यम में तब्दील होते जा रहे हैं। सभ्यता को बहुआयामी बनाए बिना हम जनमाध्यमों का चरित्र नहीं बदल सकते। लेकिन हम गणित के कुछ सवालों को हल करने की तरह उल्टी दिशा से भी शुरुआत कर सकते हैं, और यहीं से मीडिया की जवाबदेही और वैकल्पिक मीडिया की संभावना बनती दीखती है।
मीडिया भी सभ्यता के निर्माण का महत्त्वपूर्ण घटक है। वह हमारी जीवन शैली,मनोविज्ञान और सामाजिक व्यवहार को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। वह हमें इस बात के लिए तैयार कर सकता है कि काम लायक पैसे बिना आपाधापी के जीवन का शुकुन अकुंठ भाव से तलाशा जा सकता है। मुख्यधारा के मीडिया का न तो यह लक्ष्य है और न ही उसमें ऐसी क्षमता। क्योंकि वह खुद पूँजी के बल और आपाधापी के सिद्धांत पर टिका हुआ है। इसलिए यह काम वैकल्पिक माध्यमों के जरिए ही संभव दीखता है। इन माध्यमों की पहचान कैसे की जा सकती है,इस पर ध्यान दना जरूरी है। कम पूँजी,साधारण तकनीक और आम लोगों तक पहुँच इसकी प्रारंभिक खासियत हो सकती है।
विकीपीडिया पर इसको चिह्नित करते हुए कहा गया है कि-
For a medium to be considered “alternative”, it must possess some kind of counter-hegemonic quality. The counter-hegemony should be represented through at least one of the following parameters:
- Content – what is being “said”
- Aesthetical form – the way it is being said
- Intention – the point of success
- Organizational structure – how the media are being run
- Process - the relationship between production and consumption of information
आइए देखें कि इन कसौटियों पर कौन से माध्यम खरे उतरते हैं।
लघु पत्रिकाएँ
छोटे और आँचलिक समाचार पत्र
कम्युनिटी रेडियो
समानांतर सिनेमा
वृत्तचित्र
एसएमएस
समूह मेल और ब्लॅाग जैसे इंटरनेट आधारित मीडिया
मैं इस आलेख में इंटरनेट आधारित मीडिया की चर्चा पर केंद्रित रहूँगा। इसके पाँच कारण हैं।
1-इसका किफायती होना
2-सहभागिता में बराबरी
3-तुरंतापन
4-भौगोलिक और ऐतिहासिक सीमाओं का नकार
5-विभिन्न घटकों का समाहार
जहाँ अन्य माध्यम जैसे कि पत्र-पत्रिकाएँ, वृत्तचित्र,सिनेमा और कम्युनिटी रेडियो आदि के संचालन के लिए एक भौगोलिक स्पेस की जरूरत होती है,वहीं इंटरनेट आधारित माध्यमों के लिए यह जरूरत नगण्य है।एक सामान्य कंप्यूटर और इंटरनेट कनेक्टिविटी भर से आप अपना माध्यम विकसित कर सकते हैं।आज बाजार में 25000-30000 रूपये में कंप्यूटर उपलब्ध हैं और लगभग 500 रूपये प्रतिमाह की दर से इंटरनेट की ठीक-ठाक कनेक्टिविटी प्राप्त की जा सकती है। मात्र इतने निवेश से आप हम वैश्विक स्तर पर विचारों का संप्रेषण और पहुँच सुनिश्चित कर सकते हैं।
दूसरी बात यह कि पत्र-पत्रिकाएँ, वृत्तचित्र,सिनेमा और कम्युनिटी रेडियो आदि में हम संदेशों के उपभोक्ता होते हैं और उसके निर्माण में हमारी भागीदारी कमतर ही होती है। हाँलाकि संपादक के नाम पत्र और श्रोताओं की फरमाइश जैसे स्पेस वहाँ मौजूद हैं परंतु यहाँ सहभागिता में बराबरी का अवसर नहीं हैं। इंटरनेट आधारित माध्यम में हम सूचनाओं और संदेशों के उपभोक्ता और निर्माता दोनों साथ-साथ और बराबरी के स्तर पर होते हैं। इसलिए यह माध्यम हमें एक नयी दिशा देता है।
तीसरा बिंदु यह है कि जहाँ अन्य माध्यमों में कार्यक्रम निर्माण और उनके संप्रेषण में अधिक समय लगता है वहीं इंटरनेट आधारित तकनीक में यह बेहद कम समय में संपन्न किया जा सकता है।आपको प्रतिक्रिया पाने और देने में बस कुछ सेकेंड्स ही लगते हैं।साथ ही सूचनाओं और संदेशों तक पहुँच में हम अपने सुविधानुसार समय/फुर्सत के क्षणों का उपयोग कर सकते हैं।
इनकी एक खासियत यह भी है कि ऐसे माध्यम इतिहास और भूगोल की बाधाओं को नकार देते हैं। हम आसानी से पिछले अंकों को पढ़/देख/सुन सकते हैं और एक ही झटके में ज्ञान के किसी दूरदराज संग्रहालय में भी दाखिल हो सकते हैं।
जहाँ तक ऐसे माध्यमों पर संदेश-निर्मिति और प्रस्तुति का सवाल है तो यहाँ शब्द, ध्वनि, चित्र और गतिशील दृश्यों (वीडियो और एनीमेशन आदि) को सहजता से अंतरयोजित किया जा सकता है। इससे संदेश की प्रभावोत्पादकता और संप्रेषणीयता बढ़ जाती है।
इस प्रकार उपलब्ध वैकल्पिक माध्यमों में कंप्यूटर और इंटरनेट आधारित माध्यम हमारे विचारों,विमर्शों के लिए एक महाद्वार खोलते हैं। इनकी उपयोगिता इराक युद्ध और कुछ माह पूर्व पाकिस्तानी तानाशाही के दौरान लक्षित की गई। आज जब भी विपत्ति का दौर किसी देश और समाज पर आता है और अन्य माध्यम बंदिशों के शिकार हो जाते हैं तो यह माध्यम हमारा सबसे बड़ा सारथी बन कर प्रकट होता है।
इस दिशा में एक नया आयाम विगत दिनों शुरू हुई 3 जी फोन सेवाएँ हैं। मोबाइल मीडिया एक बिल्कुल नयी आजादी के साथ हमारे बीच लोकप्रिय होने की दिशा में सक्रिय है।
दरअसल मीडिया का चरित्र हमारी जीवन-शैली का ही उत्पाद है। इसलिए हम अपने जीवन में यदि उपभोक्तावादी,सुविधापरस्त और उपयोगितावादी हैं तो हमारा मीडिया उसी की प्रतिछाया बनकर उभरेगा। जब समाज एक विभाजित पहचान बनाए रखेगा तो मीडिया को बराबर यह अवसर मिलेगा कि वह अपने मनोरंजन,सूचनाओं और समाचारों को उन वर्ग-अभिरूचियों तक सीमित रखे जो उसे लाभ पहुँचाती हों।भले ही वंचित समूहों के मुद्दे,सरोकार,समस्याएँ उसमें संबोधित न हों।
जब दुनिया में सत्ता-प्रतिष्ठान और बहुराष्ट्रीय निगम एकजुट हो रहे हैं तो आम आदमी के संगठन के निर्माण और एकजुटता को सुनिश्चित करने के लिए वैकल्पिक मीडिया का सार्थक उपयोग किया जा सकता है। वैकल्पिक मीडिया की रचनात्मकता इस बात में छिपी है कि वह उन लोगों के बीच विचारों,अनुभवों और समस्याओं का साझापन पैदा करे जो विखरे हुए और असंगठित हैं।
बाधाएँ और समाधान-संकेत
फिलहाल इंटरनेट आधारित माध्यम अपने प्रयोगशीलता के दौर से गुजर रहा है। इसीलिए इन माध्यमों पर निजता की अभिव्यक्ति का बोलबाला है।यह कुछ इसी तरह है जैसे पहले-पहल किसी ने कागज़ पर फाउंटेन पेन से कुछ लिखा हो और लागों ने उसे जादू की संज्ञा दी हो।पर आज यह एक सामान्य काम ही है। वैसे ही इंटरनेट तकनीक और माध्यम से जुड़ाव भर उसे वैकल्पिक मीडिया नहीं बना सकता जब तक कि आपकी सोच,नजरिया और दर्शन वैकल्पिक न हों।
आइए, इसे एक त्रिभुज की सहायता से समझें।
इसमें आधार को सामाजिक संरचना, लंब को जीवन-मूल्य और कर्ण को मीडिया-तंत्र के रूप में दर्शाया गया है। लंब के आड़े-तिरछे होने से कर्ण में लोच पैदा होना स्वाभाविक है। हमारा जीवन-मूल्य मीडिया-तंत्र की गतिविधि को संचालित-प्रभावित करता है।
वैकल्पिक मीडिया तभी विकसित, कारगर,जीवंत और प्रभावशाली हो सकता है जब वैकल्पिक सभ्यता का स्वप्न हमारे पास हो और हम अपने जीवन में वैकल्पिक मूल्यों की तलाश का उपक्रम कर रहे हों। इस सपने के अभाव में हर माध्यम-चाहे वह मुख्यधारा का हो या वैकल्पिक, सूचनाओं का दलदल मात्र बनकर रह जाएगा।
डॉ.राम प्रकाश द्विवेदी
फेलो(हिंदी)
जीवन पर्यंत शिक्षण संस्थान
दिल्ली विश्वविद्यालय
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