अब गाँव तभी जाना होता है जब कोई पर्व-उत्सव हो या फिर शादी-विवाह। विगत दिनों पूर्वी उत्तर प्रदेश के अपने गाँव कुछ इसी सिलसिले में जाना हुआ। आज भी मेरे गाँव से लगभग डेढ़ कि0मी0 पहले ही पक्की सड़क खत्म हो जाती है। वहाँ पहुँचा तो जोरदार बारिश हो रही थी।घर तक जाने का मार्ग अवरूद्ध हो चुका था। इसलिए इंतजार करता बैठ गया। वैसे यह भी विचार आया कि भीगते हुए चला जाय, पर फिलहाल के लिए इसे मुल्तवी कर दिया गया।चारों ओर जंगल का अलौकिक नजारा था।इतने खुले भूगोल को देखकर मन पुलकित था। बारिश के थमने पर मैं और मेरे फोटोग्राफर मित्र पैदल चलकर घर पहुँचे।बरसात और आँधी ने बिजली के खंभों को उखाड़ दिया था। इसलिए प्रकृति के साथ जीवन-शेली अपनानी थी।शाम के वक्त जंगलों और खेतों की ओर घूमने निकल पड़े। धान की रोपाई चल रही थी। अधिकतर महिलाएँ काम में लगी थी। कुछ पहले से परिचित थीं। जब मैंने उनसे अवधी में बातचीत शुरू की तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न था। दिल्ली में रहते हुए भी ठेठ अवधी के शब्द गाँव से आने वालों से मैं सीखता रहता हूँ।फिर उन्होंने बताया कि शहर से आने वाले कौन-कौन लोग हैं जो ‘अपनी’ भाषा मे बात नहीं करते।इन महिलाओं को देखकर ऐसा लगा कि इन्हें सशक्त होने के लिए न तो सरकारी योजनाओं की जरूरत है और न ही किसी ‘डिस्कोर्स’ की।ऐसी ऊर्जा और आत्मनिर्भरता शहरी महिलाओं में कम दीखती है।कहने की जरूरत नहीं कि ये महिलाएँ दलित-पिछड़े घरों से ताल्लुक रखती हैं।
अंधेरा छा गया था। तालों में पानी लबालब था। मेढकों का समूह-गायन शुरू हो गया था।अनेक अनचीन्हीं ध्वनियाँ का कलरव-सा सुनाई पड़ रहा था। मनुष्य निर्मित ध्वनियों को चुनौती देता हुआ।जब सोने के लिए चारपाई आयी तो खुले आकाश में ही आसन जमा।अब आसमान साफ था।तारों की जमात चहल-कदमी कर रही थी।मच्छरों से निजात पाने के लिए कंडे(उपले) और भूसे का धुआँ कर दिया गया था।चारों ओर पानी भरने से हवा में ठंडक थी।अंधेरा पाख था इसलिए चाँद न दिखा।बगल वाले पीपल पर असंख्य जुगनूं मंडरा रहे थे।मेरे मोबाइल की बैट्री कब की खत्म हो चुकी थी, दिल्ली वालों से संपर्क टूट चुका था। मन और शरीर दोनों शुकून महसूस कर रहे थे। कब नींद ने अपने आगोश में खींचा पता ही न चला।
अगले दिन तड़के ही उठ जाना पड़ा।जब गाँव जाता हूँ तो बचपन के अपने स्कूल को देखने की स्वाभाविक इच्छा रहती है। स्कूल पहुँचा तो वह बिल्कुल नए रूप में था।शौचालय भी बन गए थे।इस बीच ग्राम प्रधान भी आ गए थे। मिड-डे मील की चर्चा चल पड़ी।बताया गया कि गेहूँ-चावल देने के बाद दो रूपये प्रति विद्यार्थी सरकार की ओर से दिया जाता है। इसमें सब्जी, मिष्ठान और खाना पकाने का खर्च और जलाऊ लकड़ी की कीमत शामिल है।मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ।इसी प्रकार ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के बारे में लोगों ने बताया कि कार्ड बन जाते हैं, उनके भी जिन्हें इसकी जरूरत नहीं भी है।पेंशन स्कीम का लाभ भी कुछ ऐसे ही लोग उठा रहे हैं। सरकार की कल्याणकारी योजनाएँ आज भी दबंगों और अफसरों की मिलीभगत से निष्प्रभावी हो रही हैं।सूचना का अधिकार जरूर कुछ उत्साह देने वाला लगा।स्कूल में बैठे-बैठे सहसा मेरी नज़र एक बोर्ड पर गयी।उस पर ग्राम प्रधान से लेकर ब्लॉक और जिला स्तर के अधिकारियों के मोबाइल नं0 लिखे हुए थे।स्थानीय थानाध्यक्ष का भी।मैने पास खड़े एक युवक से पूछा कि ये फोन मिलते भी हैं या केवल दिखाने के लिए यहाँ लिख दिए गए हैं। उसने कहा नहीं ये सभी मिलते हैं। मेरी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। तभी वह बोल पड़ा कि इससे हमें कम और अधिकारियों को फायदा कहीं ज्यादा है। उसने जो आगे बताया वह चौकाने वाला था। उसकी बात में करुणा और हास्य का मिश्रण था। उसने कहा गाँववालों के आपसी फसाद का फायदा अधिकारी अपनी जेब भरने में कर लेते हैं। मौका-ए-वारदात उनके लिए तोहफे लेकर आती है। इसलिए वे पहुँच भी जाते हैं। मैंने सोचा हर क्रांति में क्या शोषण की संभावना बनी रहती है। जिस गाँव में आँधी और बरसात से खंभे गिर गए हों, जिसके चलते बिजली न हो। जहाँ आज भी पक्की सड़क न हो। पीने का पानी समुचित मात्रा में न हो और अशुद्ध हो वहाँ मोबाइल पूरा काम करता है। विजली न रहने पर बैट्री चार्ज होती है डीजल इंजन या बाइक से। मुझे लगा मूलभूत सुविधाओं से ध्यान हटकर अब मोबाइल ग्राम समाज की जरूरत बन गया है।पर शायद यह सच नहीं है। आज भी जब वे फोन करते हैं तो केवल मिस कॉल ही देते हैं।मोबाइल तो है पर बैलेंस नहीं ।टेलीविजन तो है पर बिजली नहीं। ले देकर रेडियो है जो हमेशा उपलब्ध है। पर नयी पीढ़ी ध्वनि की बजाय दृश्य से आकर्षित है।उसे अब देखना अच्छा लगता है।कबीर की तरह जिन्होने कहा था –एक अचंभा देखा भाई। गाँवों की संचार क्रांति भी किसी अचंभे कम नहीं।
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