11 फ़रवरी, 2015

मेरे ज्ञान का वट-वृक्ष

(साभार: रमा यादव)

बात उन दिनों की है जब पिता जी जिद कर रहे थे कि मैं उनके व्यवसाय में शामिल हो उनकी सहायता करूँ।मुझे उनकी इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं होती थी। कोई सामान बेचना मेरे लिए बेहद चुनौतीहीन लगता था। इसलिए मैं उनकी बात टालता रहता था। राहुल सांकृत्यायन की किताबें जहन में जोर मार रहीं थीं। दुनिया घूमने का सपना बार-बार आता था। इसलिए टूरिज्म का कोर्स करने पहुँच गया। 12 वीं कक्षा तक साइंस पढ़ने के बाद विज्ञान को छोड़कर कुछ अौर पढ़ना चाहता था। टूरिज्म में दाखिले के समय मेरा चरित्र प्रमाण-पत्र स्कूल में ही रह गया था। जब अपने स्कूल पहुँचा तो वापस जाने के लिए समय बहुत कम बचा था। इसलिए हिन्दू कॉलेज में हिन्दी में ही दाखिले के लिए चला गया। बाद में टूरिज्म में माइग्रेशन की अपेक्षा के साथ। 1990 में पालीवाल सर ही इंचार्ज थे। पहुँचा तो थोड़ा डरा हुआ था। यदि आज दाखिला नहीं हुआ तो सब अटक जाएगा। उन्होंने ने मेरे कागजात चेक किए। फिर पूछा कोई कविता या डिबेट करते हो। मैंने कहा-जी सर! वे तपाक से बोले -कविता सुनाअो बेटा। मैंने दसवीं कक्षा में एक कविता लिखी थी-
स्वर्ण जड़ित रथ में चढ़कर, जब सूरज नभ में आता है।
मुखरित मानव मन होता है, पुष्प पेड़ लहराता है।
इस कविता के कुछ अंश सुनाए। उन्होंने फॉर्म दिया अौर मेरा दाखिला हो गया। बाद में मान्धाता अोझा, हरीश नवल, सुरेश ऋतुपर्ण, विजया सती, दीपक सिन्हा अौर रामेश्वर राय जैसे सभी अध्यापकों के प्रभाव ने हिन्दी ही पढ़ते रहने की प्रेरणा का सृजन कर दिया था, इसलिए टूरिज्म की बात पीछे रह गयी थी। जैसाकि सभी जानते हैं कि पालीवाल जी की स्मृति अत्यंत समृद्ध थी, इसलिए वे कक्षाअों में लगातार आकर्षित करते थे। अोजस्विता उनका दूसरा पहलू है। बहुत ऊर्जा के साथ उनका कक्षाअों में प्रवेश होता था अौर वे विषय के व्यापक आयाम खोल देते थे। उनके अध्यापन को ही देखकर लगता था कि हिन्दी एक ताकतवर भाषा है। दूसरे वर्ष में पता चला कि वे विश्वविद्यालय में चले गए है। इसलिए मिलना कम हो गया था। कभी-कभी अभय ठाकुर के साथ मिलने का मौका मिलता था।बाद में जब एम०ए० करने गया फिर उनके संपर्क में आया। उन दिनों कक्षाअों में नित्यानंद जी, पालीवाल जी अौर त्रिपाठी जी सबसे आकर्षित करते थे।पालीवाल जी में प्रवाह बहुत होता था। बहुत से मित्र इसकी अालोचना करते थे। शायद दुनिया का न सही पर भारत का सबसे बड़ा सच ‘ईष्या अौर निंदा’ है। विश्वविद्यालय के दूसरे किसी अध्यापक में यह ताकत नहीं थी कि वह इतनी ऊर्जा से क्लास को चला सके। इसलिए वे निंदा का विषय बनते रहे। आपकी क्षमताएँ ही जब निंदा का विषय बनने लगें तो यह आपकी सफलता ही मानी जाएगी। आम छात्र तो सच को पहचनता है। इसलिए पालीवाल जी उनके बीच लोकप्रिय बने रहे। वे संकुचित विचारपंथी नहीं थे। बहुत तरह के विचारों का वे समभाव से आदर करते थे अौर हमें भी उसी तरह से सोचने-समझने की प्रेरणा देते थे। आज जब विचारधाराअों के महल खण्डहरों में तब्दील हो गए हैं तो उनकी स्मृति बड़े उज्ज्वल रूप में उभरती है। हाँ, वे गाँधी, आंबेडकर अौर लोहिया के सबसे करीब दिखाई देते थे पर मार्क्स की भी कभी भोड़ी व अतार्किक आलोचना की हो एेसा मुझे ध्यान नहीं आता। वे मार्क्स की तो नहीं पर अपने ईर्द-गिर्द जमा मार्क्सवादियों की खबर लेने में चूक नहीं करते थे अौर उनके अच्छे मित्रों में भी मार्क्सवादी ही थे।
माथे पर धँसी हुई दो छोटी-छोटी अाँखों में कितनी शक्ति है कितना उजाला है यह तब जान पाया जब उनके साथ पीएच०डी० करने का मौका मिला। हिन्दू कॉलेज अौर विश्वविद्यालय में ज्यादातर मैं अगली सीट पर ही बैठता था। कभी-कभी पढ़ाते हुए वे कंधों को झकझोर देते थे। याद नहीं पड़ता उन्होंने कभी बैठकर पढ़ाया हो। एक दिन लंच करते हुए हम कक्षा में बेतरतीब बैठे हुए थे। वे ‘राम की शक्तिपूजा’ का मौखिक वाचन करते हुए प्रवेश कर रहे थे। सब चंद सेकेण्डों में ही व्यवस्थित हो गए। हिन्दू कॉलेज में पता नहीं था कि वे सिगरेट पीते हैं। एक दिन जब विश्वविद्यालय के उनके कमरे में गया तो क्लास के ठीक पहले वे मुट्ठी बंद कर सिगरेट का लंबा कश खींच रहे थे। आश्चर्य चकित था, उनके इस स्टाइल पर।बाद में मैं उनकी अनेक बातों की मिमिकरी करता था अौर मित्र कहते थे मैं बहुत अच्छी तरह करता हूँ।उनके अध्यापन का असर कक्षाअों के बाहर भी मेरे साथ चला था। अौरों के साथ भी जरूर जाता रहा होगा। इसलिए मेरे मित्र मनीष रंजन भी हूबहू उनकी नकल उतार लेते थे।
पीएच०डी० के ही दिनों में उनके रोहिणी वाले अौर बाद में साकेत के घर में बराबर जाना होता रहा। पर ज्यादातर मुलाकातें लॉ फैकल्टी की चाय की दुकान पर होती थी। अनेक छात्र वहाँ आकर जम जाते थे अौर सहमतियों-असहमतियों के साथ हम अक्सर उनको बस अौर बाद में मेट्रो तक छोड़ने जाते थे । मेरे पीएच०डी० के ही दिनों वे यहाँ तोक्यो विदेशी अध्ययन विश्वविद्यालय में थे। मुझे उनके लौटने का बेसब्री से इंतजार रहता। शोध की प्रगति अौर उसकी दिशा पर वे अक्सर अपनी मूल्यवान राय देते।यहाँ के किस्से-कहानियाँ भी वे सुनाते रहते।एक बार मैंने पूछा था कि-सर वहाँ कैसा लगता है आपको। उनका उत्तर था-सब मरि जाय अौर हम जाय। तब इंटरनेट का जमाना नहीं था। जापान जहाँ लोग अपने तक महदूद रहते हैं -उनके लिए जो हमेशा छात्रों-सहयोगियों के बीच घिरे रहते थे-एक मुश्किल मुकाम रहा होगा। आज जब मैं संयोग से यहीं हूँ, इस बात को ज्याद अच्छी तरह समझ सकता हूँ। पहली बार उनसे ही ‘साके’ (जापानी शराब ) शब्द सुना था। शंकर जी काफी उत्साहित हो जाते थे।बाद में उनसे मिलने का मौका संगोष्ठियों में ही मिलता था। लिखने-पढ़ने के लिए वे हमेशा प्रोत्सहित करते।पर हम सब अपनी मौज में बह रहे थे अौर आज भी वैसा ही है। हमारे सीनियर शंकर जी उनके सबसे करीबी थे। रमेश ऋषिकल्प को वे मित्रवत-शिष्य मानते थे। पर बेवजह अड्डेबाजी का समय उनके पास नहीं था। इसलिए हम सब अकेले-अकेले उनके साथ थे। या उन्हें अकेला कर रहे थे।भारतेन्दु, रामचंद्र शुक्ल, मैथिलीशरण गुप्त, अज्ञेय, निर्मल वर्मा, विजयदेवनारायण साही को वे गहराई से याद करते थे। अपने समकालीनों में वे राम विलास शर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी, केदारनाथ सिंह अौर अोम थानवी की चर्चा  बार-बार करते थे। (शायद मुझसे बहुत बातें छूट रही होंगी, आप जोड़ सकते हैं)। वे आदिकाल से लेकर समकालीन साहित्य तक किसी भी लेखक-रचनाकार को तर्कसंगत ढंग से पढ़ा सकते थे। परंपरा, आधुनिकता अौर उत्तर-आधुनिकता पर जब-जब उनसे बात हुई मेरा मानस कुछ समृद्ध ही होता चला गया था। उन्होंने पूरे देश में घूम-घूम कर व्याख्यान दिए हैं।प्रत्यक्ष शिष्य-समुदाय के अतिरिक्त परोक्ष शिष्यों का आदर-स्नेह उन्हें मिलता रहा है। भारत के जिस भी हिस्से में जाने का मौका मिला वहीं जब पालीवाल सर के अपने पीएच०डी० गाइड होने की बात बतायी तो आगे का परिचय देन की जरूरत न पड़ी। किसी शिष्य को गुरू एेसी शक्ति प्रदान कर दे तो उसका जीवन सार्थक हो जाता है। आज जब वे हमारे बीच नहीं हैं, उनका दिया दर्प, गौरव अौर स्वाभिमान मेरे साथ खड़ा है।वही मेरी सबसे मूल्यवान पूँजी है।जापान में उनके मित्रों तोशियो तनाका, तोमियो मिज़ोकामि, अकिरा ताकाहाशी, ताकेशि फुजिइ अौर यशोफुमि मिज़ुनो को जब उनके देहावसान की सूचना दी तो सभी स्तब्ध थे। सबका शोक संदेश भी आ गया।वे अपने शिष्यों अौर मित्रों में सर्वदा आदर के साथ याद किए जाएँगे।

अनेक बातें हैं। एक अटूट श्रृंखला है उनके साथ गुजारे समय की। कहाँ तक लिखूँ।बस कुछ या बिल्कुल नाकुछ ही कह पाया हूँ अभी। शायद फिर कभी कुछ-कुछ अौर लिख सकूँगा।रमा यादव जी ने पालीवाल सर का अनूठा चित्र फेसबुक पर प्रेषित किया है।  गाँधी, आंबेडकर अौर लोहिया के जीवन-दर्शन का जो पाठ उन्होने हमें पढ़ाया है वह बहुत हद तक इस चित्र में समा गया है। फिलहाल तो एेसा लगता है कि मेरे ज्ञान का वट-वृक्ष कुम्हला भले ही गया हो पर उसमें से अनेक नयी जड़े जम चुकी हैं वे उनके विचारों को कभी सूखने न देंगी। उनकी शिष्य-मंडली अपने मानस में सदैव उनकी स्मृति सुरक्षित रखेगी। गुरू देहान्त के बाद अपने शिष्यों की नजरों से दुनिया देखता है, उसका संचालन करता है, मरकर भी अमर ही रहता है। आपकी पावन-समृति को नमन, विनम्र श्रद्धांजलि।

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