07 जून, 2014

शकुंतला

Draft-1 {E&OE}

शकुंतला

                                         (महाकवि कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ पर आधारित)
पात्र:
मार्गदर्शन:
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आलेख एवं परिकल्पना:
निर्देशन:
नृत्य निर्देशन:

अंक १
दृश्य १
[पर्दा उठता है]
सभी पात्रों का मंत्रोच्चार
ऊँ भूर्भ्व स्व:~~~~~~~
वक्रतुण्ड महाकाय~~~~~~~
{अंधेरे के बाद प्रकाश}
कालिदास: हमारा जीवन भाग्य की विडंबनाअों अौर संभावनाअों की ही कहानी है।शकंुतला का जीवन भी भाग्य के इसी खेल से संचालित हो रहा था। आइए तो इसे जानने के लिए चलते हैं कण्व ऋषि के आश्रम में।
कण्व ऋषि का आश्रम
एक शांत अौर सुहावने जंगल में साफ-सुथरा आश्रम। जंगल के आसपास बहुत से हिरण अौर खरगोश चर रहे हैं।  एक पेड़ पर कोयल की कूक सुनायी देती रहती है। चारों अोर रंग-विरंगे फूल खिले हुए हैं। कुछ युवतियाँ आपस में हँसी-मज़ाक में मशगूल हैं। उनमें से ही जो सबसे रूपवती है वह शकुंतला है। सब बड़ी बेफिक्री से इधर-उधर घूमती हैं अौर हिरणों तथा खरगोशों से खेलती रहती हैं। आसमान में बादल घिर आए हैं। रह-रहकर बिजली कड़कती है।
एक सहेली: लगता है आज बारिश होगी। (शकुंतला को पकड़ते हुए) देख शकुन कितने सुहाने बादल आ गए हैं।
शकुन्तला: (हँसते हुए) बादल ही तो अाए हैं, किसी का संदेश तो नहीं लाए। अब बादलों के साथ-साथ कोई अौर भी तो आए जिंदगी में।
बाकी सहेलियाँ: (शकुन्तला के आसपास आकर, मज़ाक में) वो हो!!! किसकी प्रतीक्षा है?
शकुन्तला: बस कोई भी। सुंदर-सा, वीर युवक। (सब मिलकर हँसने लगती हैं)
दृश्य २
एक जंगल। कुमार दुष्यंत अपने मित्रों के साथ शिकार पर आया हुआ है।//////
दुष्यंत: (बेचैन सा) देखो मित्र ! आज इस हिरण ने तो मेरे छक्के ही छुड़ा दिए। न जाने कहाँ से कहाँ गायब होता जाता है।  पकड़ में ही नहीं आ रहा है। अौर इन बादलों को देखों न जाने कब बरस पड़ें। लगता है आज खाली हाथ ही लौटना पड़ेगा।
एक मित्र: हाँ कुमार आज का शिकार तो थोड़ा मुश्किल है न। पर हम इसका पीछा करते-करते कितनी दूर भी तो आ गए हैं। अौर ऊपर से ये बारिश !!!!(बारिश की बूँदा-बाँदी अौर बादलों की गर्जना) । लौटना भी तो मुश्किल है कुमार।
दूसरा मित्र: (सामने की अोर संकेत करता हुआ) वो देखो कुमार! वो रहा आपका शिकार। चलो पीछा करो, जल्दी!
(सब शिकार का पीछा करते हुए भागते हैं) 
जंगल में शिकार के दृश्य——भागते हुए
दृश्य ३
कण्व ऋषि का आश्रम
(शकंुतला एक हिरण को भागते हुुए अपनी तरफ आते देखती है। वह उस मृग-छौने को अपनी गोद में उठा लेती है। पुचकारते हुए उसके शरीर पर हाथ फेरती है।)
शकुंतला: क्यों घबराए हुए हो? यह ऋषि कण्व का आश्रम है। यहाँ सब शांति अौर सहअस्तितव से रहते हैं। देखो कितना सारे पेड़-पौधे अौर वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी अौर जीव-जंतु निर्भय होकर यहाँ रहते हैं। इसलिए भय छोड़ों अौर मुस्कराअो मेरे मृग छौने। (तभी अंदर से राका भी वहाँ आ जाती है।अपनी सहेली राका की अोर देखकर) अरी सुन ना। देख कितना प्यारा छौना है। घबराया हुआ है। इसे तनिक पानी तो पिला।
राका: सचमुच शकुन, बड़ा ही प्यारा है। (पानी पिलाते हुए) लो पी लो। डरने की कोई जरुरत नहीं। तुम यहाँ बिल्कुल सुरक्षित हो।  
(इसी बीच कुमार दुष्यंत अपने साथी-सैनिकों के साथ आश्रम में आ धमकता है) 
दुष्यंत: (अपने सा़थियों से, हँसते हुए) देखों यहाँ  छिपा है मेरा शिकार। (राका को संबोधित करते हुए) महाशया! यह मेरा शिकार है। इसे छोड़ दीजिए।
शकुंतला: (हस्तक्षेप करते हुए) युवक मित्र! यह ऋषि कण्व का आश्रम है, कोई शिकारगाह नहीं। क्या आप इस वन्य प्रदेश का नियम नहीं जानते? निर्भयता ही यहाँ का केंद्रीय मूल्य है।
(दुष्यंत शकुंतला की आवाज सुनकर चौंकता है अौर भौचक्का सा उसकी अोर देखता है। अपने मन में सोचता है)
दुष्यंत: (शकुंतला की अोर टकटकी लगाकर देखता हुआ) अोह रूपसि! सचमुच ही। निर्भयता ही तो केंद्रीय मूल्य होना चाहिए हम सबका। फिर मैं क्यों भयभीत हो रहा हूँ। क्यों तुम्हारा सौन्दर्य मुझे डरा रहा है। मेरे धनुष-वाण क्यों शिथिल पड़ रहे हैं यहाँ !
(दुष्यंत शकुंतला  एक दूसरे को निर्निमेष देखते रहते हैं)
दुष्यंत का सैनिक साथी: हे कुमारी। हम क्षत्रिय हैं अौर हमारा धर्म ही शिकार करना है। माना कि निर्भयता यहाँ का केंद्रीय मूल्य है पर इसके लिए हम अपना धर्म तो नहीं छोड़ सकते।
राका: सैनिक! तुम अपने धर्म से बँधे हो तो हम अपने कर्तव्यों से। महर्षि कण्व के आश्रम में शिकार वर्जित है अौर इस मूल्य की रक्षा के लिए हम कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी सैनिक।  
सैनिक: अच्छा देवि! फिर तो हमें भी कुछ सोचना पड़ेगा। (दुष्यंत की अोर देखते हुए) कुमार क्या आदेश है? (दुष्यंत-शकुंतला एक दूसरे की आँखों में उलझे हुए हैं, आश्चर्य से) कुमार! कुमार!! (वे यथावत रहते हैं, राका की अोर देखते हुए) देवी लगता है सचमुच इस स्थान पर कुछ विशेष है।
राका: (दुष्यंत, शकुंतला की अोर देखते हुए) आश्चर्य!! घोर आश्चर्य!!! (सैनिक की अोर देखते हुए) सैनिक! आपके कुमार तो शिकार करने आए थे वे तो खुद ही शिकार हो गए। 
(राका अौर सैनिक दोनों शकुंतला अौर दुष्यंत को टोकते हुए) 
दोनों एक साथ: अरे! क्या हुआ? आप दोनों ठीक तो हैं न।
[शकुंतला अौर दुष्यंत दोनों चौंककर एक दूसरे से अलग हट जाते हैं। दोनों शर्माते हैं।]
शकंुतला: हाँ, बिल्कुल हम ठीक हैं।
दुष्यंत: हाँ, हाँ बिल्कुल हम ठीक ही तो हैं।
राका अौर सैनिक: (हँसते हुए) वो तो हमें दिखाई ही दे रहा है। (फिर हँसने लगते हैं)
दुष्यंत: (सैनिक से) सैनिक हमारा शिकार कहाँ गया।
सैनिक: (हास्य करते हुए) कुमार, शिकारी तो खुद शिकार हो गया।
दुष्यंत: (रोष में) मजाक छोड़ो सैनिक। हमें यह आखेट का कार्य पूरा कर अपने राज-काज में भी लगना है।
राका: अरे कुमार! इतनी भी क्या जल्दी है! कुछ दिनों रहकर हमारा आतिथ्य स्वीकार कीजिए, फिर चले जाना।
सैनिक: (परिहास में) कुमार! प्रस्ताव बुरा नहीं है।
दुष्यंत: तुम्हे परिहास की सूझ रही है सैनिक अौर यहाँ मेरा बहुमूल्य समय व्यर्थ हो रहा है।
राका: हम जानते है कुमार कि आपका समय अत्यंत कीमती है पर एेसा आतिथ्य भी तो रोज-रोज नहीं मिलता।
दुष्यंत: सो तो ठीक है देवी पर……
शकुंतला: पर क्या कुमार! आप शिकार करते-करते काफी थके से लग रहे हैं कुछ दिन विश्राम करने से आप आराम महसूस करेगें।
दुष्यंत: प्रस्ताव तो अच्छा है देवि अौर फिर मेरा भविष्य तो बहुत ज्यादा व्यस्त होने वाला है। राज-काज आसान तो नहीं है। इसलिए कुछ दिनों विश्राम करने मेँ कोई दोष नहीं है।
शकुंतला (अौर अन्य सहेलियाँ): धन्यवाद कुमार! हमारा प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए। हम निश्चय ही गौरवांवित हुए हैं।
राका: (सब से) तो कुमार के आतिथ्य की तैयारी हो।
००००००
(मंच पर विश्राम के लिए वस्तुएँ रखी जाती हैं। खाने के लिए भी फल आदि लाए जाते हैं) 
दुष्यंत: आह! सचमुच कितना थक गया था मैं।
शकुंतला: जी कुमार । अब पूरी तरह आराम कीजिए अौर ध्यान रखिए कि इस अरण्य में शिकार पूरी तरह वर्जित है। यह एक अभयारण्य है। हमारी परंपरा में प्रकृति अौर मनुष्य सब को बराबर का अधिकार है इस धरती पर।
दुष्यंत: जी धन्यवाद। मैं सहमत हूँ आपके विचारों से।
(दुष्यंत का सोने का अभिनय अौर शकुंतला का वहाँ से अलग चला जाना)  
शकुंतला: (एकांत में) पता नहीं क्यों कुमार को देखकर मन विचलित हो रहा है। कुछ विशेष भावनाएँ पैदा हो गयी हैं। किस से पूछूँ? ये क्या है?
(एक सहेली का आगमन)
सहेली: क्या देवि! क्या पूछना चाहती हैं?
शकुंतला: (चौंकते हुए) नहीं तो री! कुछ भी तो नहीं!
सहेली: अब तो मत छिपाअो। छिपाने से दर्द बढ़ता है।
शकुंतला: शायद तू सच कहती है रे! पता नहीं क्यों कुमार के लिए मेरे मन में विशेष भावनाएँ पैदा हो गयी हैं। विचलित हूँ।
सहेली: (परिहास में) अो हो! विशेष भावनाएँ!!! 
शकुंतला: यह परिहास की बात नहीं। मेरा मन विचलित हो रहा है।
सहेली:(चिढ़ाते हुए) तो इसकी सूचना कुमार को दे दें?
शकुंतला: धत पगली! चल कहीं घूमने चलते हैं। (दोनों बाहर निकल जाते हैं)
(दुष्यंत सोकर उठता है।)
दुष्यंत: कैसा सुहाना परिवेश है। शांत अौर शीतल। परिंदे अपनी ही रौ में उड़े जा रहे हैं। खरगोश, मृग अौर मयूर बिना किसी भय के विचरण कर रहे हैं। पर मेरा हृदय अशांत क्यों है?
(सैनिक का आना)
सैनिक: कुमार जाग गए?
दुष्यंत: सोया ही कब था सैनिक! इतने शांत परिवेश में मेरा हृदय अशांत क्यों है? ऋषि-कन्या मेरे हृदय को बार-बार विचलित करती है। क्या यह उचित है मित्र!
सैनिक: कुमार! उचित अौर अनुचित तो क्या पता? पर यदि आपके हृदय में कोमल भाव आ रहे हैं तो उनकी अभिव्यक्ति जरूरी है।
दुष्यंत: अभिव्यक्ति तो ठीक है पर ‘नकार’ का भय रोक लेता है बार-बार।
सैनिक: कुमार ‘नकार का भय’ तो है पर ‘स्वीकार का आह्लाद’ कितना मादक है।
दुष्यंत: सच कहते हो मित्र! व्यक्त करो अौर मुक्त रहो। नकार अौर स्वीकार से।
सैनिक: तो चलें कुमार?
दुष्यंत: अवश्य।
(दोनों साथ-साथ निकल जाते हैं)
दृश्य४
[शकुंतला अपनी सहेलियों के साथ बाग में बैठी है। सुहाना मौसम है। वह अनमनी-सी इधर-उधर टहल रही है। ]
शकुंतला: आज कैसा हर्ष-मिश्रित विषाद है। जीवन का पहला अनुभव। वही पुरानी सहेलियाँ यहाँ है, पर इनसे बात करने का जी नहीं करता। मन में कुछ अौर ही बातें बार-बार आ रही हैं। जैसे कोई बात निकलने को आतुर हो।
(दुष्यंत का अपने सैनिक के साथ प्रवेश)
दुष्यंत: प्रणाम देवियों!
(शकंुतला के साथ-साथ उसकी सारी सहेलियाँ सावधान हो जाती हैं)
शकुंतला: प्रणाम देव!
दुष्यंत: अापके आतिथ्य से अब बिल्कुल नयापन अनुभव कर रहा हूँ। मेरे जीवन का यह अनोखा अनुभव है। आश्रम का परिवेश अत्यंत शीतलदायी है इसलिए मेरे हृदय में अनेक कोमल भावनाअों का संचार हो रहा है।
(सैनिक अौर सहेलियाँ एक साथ आकर)
सब: (परिहास में) हूँ ~~~~~लगता है आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई है।
सैनिक: आग ही नहीं देवी पूरा का पूरा हवन कुण्ड जल रहा है।
सब: (हँसते हुए) चलो उनकी सहायता करते हैं।
(सब दोनों के पास जाते हैं, दोनों एक दूसरे में खोेए हुए हैं)
सब: (परिहास में)क्या आप दोनों के मन में एक-दूसरे के लिए कोमल भावनाएँ विकसित हो रही हैं? हहहह(सब हँसते हैं)
(दुष्यंत अौर शकुंतला शरमा जाते हैं)
दुष्यंत: शायद आप सब सच कहते हैं, क्यों देवि शकुंतला।
सब:स~~~~~~~च!!!!
शकुंतला: जी हाँ, हम दोनों एक दूसरे से स्नेह करने लगे हैं। 
सब: ऐसा क्या!!!!!
दुष्यंत: जी हाँ, बिल्कुल एैसा ही है। अौर यदि देवि शकुंतला अनुमति दें तो मैं विवाह के लिए तत्पर हूँ।
शकुंतला: कुमार! यह हृदय अब आप का है। तन तो तुच्छ है। आप जैसा उचित समझे वैसा करें।
दुष्यंत: (सब को संबोधित करते हुए) तो विवाह की तैयारी की जाय।
(मंच पर विवाह की तैयारी, जयमाल डालकर विवाह)
दुष्यंत: आज से मैं आपको अपनी अर्धांगिनि स्वीकार करता हूँ।
शकुंतला: आभारी हूँ कुमार। आज से मेरा सब कुछ आपका।
दुष्यंत: देवि शकुंतले! यह राज-मुद्रिका है।(अँगूठी पहनाता है) हमारे विवाह की निशानी। इसे हमेशा धारण किए रखना देवि।
शकुंतला: जैसा कहें कुमार! मैं अवश्य ही इस अँगूठी को सदैव अपनी तर्जनी में धारण किए रखूँगी!
दुुष्यंत: धन्वाद देवि! अब हमें आज्ञा दीजिए। आपके आतिथ्य में राजकाज का काम बहुत पीछे छूट गया है। अवसर मिलते ही मैं आपको अौपचारिक तौर पर विदा करा कर ले जाऊँगा। तब तक ऋषि कण्व भी आ चुके होंगे।
शकुंतला: जी कुमार! प्रजा का कार्य भी महत्त्वपूर्ण है।
(शकुंतला अौर दुष्यंत एक दूसरे के गले मिलते हुए विदा देते हैं)
[मंच पर अंधेरा, पर्दा]

अंक २
दृश्य१
[लगभग २ वर्ष का अन्तराल]
(कण्व ऋषि का आश्रम। शकंुतला बार-बार अँगूठी को देखती है अौर उसे छूती रहती है। भरत का इर्द-गिर्द खेलने का आभिनय)
शकुंतला: बहुत दिन बीत गए कुमार का कोई समाचार नहीं मिला। अब तो भरत भी बड़ा हो गया है। कितने दिनों तक केवल इस अँगूठी के सहारे उनकी प्रतीक्षा करूँ। कुमार ने यह सुन्दर राजचिह्न दिया है वे मुझे भूल तो नहीं सकते। 
(अँगूठी पहनने अौर निकालने का उपक्रम, इसी बीच दुर्वासा ऋषि की दरवाजे पर दस्तक)
दुर्वासा: बम बम भोले !! कोई है?
(शकुंतला अँगूठी में उलझी रहती है, दुर्वासा को अनदेखा करते हुए)
दुर्वासा: बम बम भोले!!! अरे, कोई है?
(शकुंतला फिर अनसुना करती है)
दुर्वासा: (थोड़ा उचकते हुए) हूँ~~~~~~~~~~अो कन्या! मैं  ऋषि दुर्वासा तेरे द्वार पर पुकार रहा हूँ।
(शकुंतला ध्यान ही नहीं देती)
दुर्वासा: (क्रोध से काँपते हुए, comedy creation) अो कन्या!!! मैं ऋषिराज दुर्वासा हूँ। तेरे द्वार पर आया हूँ।
(शकुंतला अपने में खोई रहती है)
दुर्वासा: (पूरी तरह क्रोधित होकर, कमण्डल का पानी निकालता है): भस्म ही कर दूँ? अरे! ये तो किसी मुद्रिका में उलझी है। क्या है? लगता है प्रेम में मुग्ध है। मेरा तिरस्कार करती है। श्राप देता हूँ।(क्रोध में लाल-पीला होता है अौर बोलता है) जा मूर्ख बालिका जिसकी याद में खोकर तू मेरा तिरस्कार करती है वह तुझे हमेशा के लिए भूल जाएगा।
(सहेलियों का अचानक से आना अौर शकुंतला को सचेत करना, साथ ही दुर्वासा से क्षमा प्रार्थना करना) 
दुर्वासा: (अौर क्रोध में आकर) पर इस हठधर्मी को तो देखो पता नहीं किसकी याद में खोकर मुझे अनदेखा करती है।
शकुंतला: (ग्लानि से) ऋषिवर!! मैं कण्व ऋषि की पुत्री शकुंतला हूँ,मुझे क्षमा करें। अापका तिरस्कार या निरादर करने का मेरा कोई उद्देश्य नहीं था। एेसा करना तो मुझसे अनजाने में हो गया। मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।
दुर्वासा: नहीं शकुंतला!! कभी नहीं!!! ऋषि भूखा रह सकता है। प्यासा रह सकता है। अपने प्राण त्याग सकता है पर अपमान सहन नहीं कर सकता। तुमने मेरा घोर अपमान किया है इसलिए तुम्हे इसका परिणाम तो भुगतना ही पड़ेगा।
शकुंतला: पर ऋषिवर, यह अक्षम्य अपराध तो मुझसे अनजाने में हुआ है। कृपया अपने निर्णय पर पुनर्विचार करें। मैं आपसे हृदय के अंतरतम से क्षमा माँगती हूँ, ऋषि श्रेष्ठ!
दुर्वासा: ऋषि की वाणी कभी मिथ्या नहीं हो सकती। न ! कभी नहीं।
शकुंतला: ऋषिवर! मेरी आयु अौर अवस्था को देखकर कोई तो मार्ग निकालिए।
सारी सहेलियाँ: जी ऋषिवर! इसे हम सबकी विनम्र प्राथना मानिए अौर शकुंतला को क्षमा कर दीजिए।
दुर्वासा: पर! मैं अपनी बात वापस तो ले सकता।
सारी सहेलियाँ: कोई तो मार्ग होगा।
दुर्वासा: अच्छा तो (सोचते हुए) केवल इतना हो सकता है कि शकुंतला इस प्रेम की निशानी को जब अपने पति को दिखाएगी तो उसे अपने इस संबंध की पुनर्स्मृति हो जाएगी।
शकुंतला समेत सभी सहेलियाँ: बहुत आभार ऋषिवर। कुछ दिन यहाँ रहकर हमारा आतिथ्य स्वीकार करें अौर हमें अपनी ज्ञान-राशि से समृद्ध करें।
दुर्वासा: ठीक है। यही उचित होगा अौर महर्षि कण्व यदि वापस आ सके तो उनके दर्शन भी हो जाएँगे।
शकुंतला समेत सभी सहेलियाँ: हम आपके अत्यंत आभारी हैं ऋषिवर!

दृश्य २
( दुर्वासा आश्रम में आराम कर रहे हैं। भरत आसपास खेलने में व्यस्त रहता है। शकुंतला की सहेली राका भरत को खेलते हुए देखती है अौर ईर्ष्या से भर जाती है )
राका: (सोचते हुए) शकुंतला तो पटरानी बन जाएगी। मैं कब तक इस आश्रम की धूल फाँकती रहूँगी। मेरा जीवन भी कितना अभागा है। कोई तो आए इस जिंदगी में। ताजे हवा के झोंके की तरह। आह!! दुर्भाग्य। (दुर्वासा ऋषि की अोर देखते हुए) ऋषि की सेवा करूँ तो शायद मेरा सौभाग्य लौटे। (दुर्वासा के लिए पानी अौर फल अादि लेकर आती है)
दुर्वासा: (आहट से जागकर) अरे बेटी ये क्या करती हो? 
राका:बस ऋषिवर आपकी तुच्छ सेवा। आप हमारे विशिष्ट अतिथि हैं न। यह तो मेरा कर्तव्य है। लीजिए जल से हाथ-मुँह धोकर थोड़ा फल आदि खा लीजिए।
दुर्वासा: हाँ! उचित बात है। मुझे आगे देशाटन के लिए भी जाना है।
राका: जी ऋषिवर! (फल आदि परोसते हुए) पर आप यहाँ रहना चाहें तो हमें कोई आपत्ति तो नहीं होगी।
दुर्वासा: आपत्ति की बात तो नहीं पर ऋषि अौर जल ठहरकर अपनी ऊर्जा नष्ट कर देते हैं। (फल आदि खत्म करके) अच्छा तो अब विश्राम बहुत हो गया अगले गंतव्य की अोर बढ़ता हूँ। अौर हाँ ! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूँ इसलिए जादुई शक्ति का वरदान तुम्हें देता हूँ। अब चलता हूँ।
राका: जो इच्छा ऋषिवर। 
दुर्वासा:बेटी शकुंतला को मेरा आशीर्वाद देना अौर ऋषि कण्व पधारें तो मेरा विनम्र प्रणाम प्रेषित करना।
राका: अवश्य! जादुई शक्ति प्रदान करने के लिए आभारी हूँ।
दुर्वासा: सदा सुखी रहो! ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे।
(दुर्वासा का जाना अौर राका अपने आप से)
राका: आह जादुई शक्ति! रानी शकुंतला अब मेरे पास भी कुछ है। (जोर-जोर से हँसती है)
दृश्य३
(भरत अौर शकुंतला एक दूसरे से लुका-छिपी का खेल खेल रहे हैं।)
शकुंतला:भरत कहाँ हो?
भरत: ढूँढों माता श्री।ढूँढों-ढूँढों!! मैं यहाँ हूँ।
शकुंतला: पकड़ लिया-पकड़ लिया
भरत:(हँसता है) हा हा हा।
(कण्व ऋषि का आगमन अौर आश्चर्य से भरत अौर शकुंतला को देखकर)
कण्व: अरे! ये नव आगंतुक कौन हैं?
शकुंतला: पिता श्री आप कब पधारे?
कण्व: बस बेटी अभी-अभी आया हूँ। पर ये महोदय कौन हैं?
भरत: मैं राजा दुष्यंत का पुत्र भरत हूँ, ऋषिवर!
शकुंतला: पिता श्री, आप थोड़ा विश्राम तो करें फिर सारी बात बताती हूँ।
कण्व:अच्छा! तो थोड़ा जल तो लेकर आ।
शकुंतला: जी! अभी लायी।
(भरत ऋषि की दाढ़ी से खेलने लगता है)
शकुंतला: (पानी देते हुए) लीजिए पिता श्री।
कण्व: पर बेटी ये तो बता ये महोदय यहाँ कैसे पधारे?
शकुंतला: पिता श्री। क्षमा प्रार्थी हूँ। पर आपके अनुपस्थिति में अापकी अनुमति के बिना मैंने अौर पुरु पुत्र राजकुमार दुष्यंत ने विवाह कर लिया था। भरत हमारा ही पुत्र है।(भरत की अोर संकेत करते हुए) भरत! ——को प्रणाम करो।
भरत: (प्रणाम करने के लिए आगे आता है) प्रणाम।
कण्व: पुत्री पर यह उचित तो नहीं हुआ। विवाह के बाद पुत्री का पिता के घर रहना ठीक नहीं। क्या कुमार दुष्यंत फिर कभी आए यहाँ?
शकुंतला: नहीं पिता श्री फिर तो नहीं आए शायद व्यस्त होंगे।
कण्व: पर विवाह के बाद कुछ हाल-समाचार तो लेना चाहिए था।
शकुंतला: जी! सो तो है।
कण्व: पुत्री तू स्वयं जा कुमार दुष्यंत के पास। कहीं ऐसा न हो कि देर हो जाय। देख भरत कितना बड़ा हो गया है।
शकुंतला: जो आज्ञा पिता श्री।
(मंच पर अंधेरा)
[पर्दा गिरता है]

अंक३

दृश्य१
(घने जंगल का दृश्य, शकुंतला दुष्यंत से मिलने जा रही है।)
शकुंतला: कितना डरावना जंगल है। राह भी बहुत कठिन है। पिता श्री कहते हैं कि अब मैं अपने जीवन का दायित्व स्वयं उठाऊँ। सच ही तो है। मुझे स्वयं ही रास्ते बनाने पड़ेंगे। (सामने नदी आ जाती है) अरे आगे तो नदी है। क्या करूँ?
(तभी एक स्त्री का प्रवेश, यह राका है जिसने जादू से अपना रूप बदला हुआ है)
स्त्री: अरे! क्या बात है?
शकुंतला: मैं यह नदी पार करना चाहती हूँ, पर लगता है बहुत गहरी है।
स्त्री: यदि तुम पार करना चाहती हो तो मैं तुम्हारी सहायता कर सकती हूँ, यदि तुम चाहो।
शकुंतला: जी हाँ, बिल्कुल करना चाहती हूँ। क्या आप मेरी सहायता करेंगी?
स्त्री: अवश्य।
शकुंतला: बहुत धन्यवाद।
स्त्री: अच्छा तो मेरे पीछे-पीछे आअो।
(दोनों नदी में उतर जाती हैं)
शकुंतला: मुझे बड़ा डर लग रहा है।
स्त्री: डरने की कोई बात नहीं। बस मेरे पीछे-पीछे चलती चलो। अाअो मेरा हाथ पकड़ लो।
(शकुंतला हाथ पकड़ लेती है, तभी राका उसे डुबाने की कोशिश शुरू कर देती है)
शकुंतला: अरे यह कर रही हो? तुम कौन हो?
राका: पहचान मैं राका हूँ। तूने मेरा प्यार, मेरा दुष्यंत मुझसे छीना है।
शकुंतला: अरे तू जादूगरनी कब बन गयी।
राका: (फिर उसे डूबाती है) अब इन बातों का कोई मतलब नहीं। तू मरेगी तो मैं जिऊँगी।
शकुंतला: एेसा मत कर राका। यदि मैं मर भी गयी तो दुष्यंत कभी तुझे नहीं मिलेगा।
राका: तो तू मर पहले।
(राका बार-बार शकुंतला को डुबाती है। पर शकुंतला किसी तरह बचकर निकल जाती है। राका पछताते हुए)
राका: अोह बच गयी। पर मैंने ये अँगूठी तो निकाल ही ली(अँगूठी देखते हुए) अब दुष्यंत उसे कभी पहचान न पाएगा। हहहहहहह। हहहहहह। हहहहहहह।
(राका बार-बार अँगूठी देखती अौर हँसती है, तभी नदी के अंदर से एक मछली उछल कर अँगूठी निगल लेती है, राका अपने खाली हाथ को देखती है अौर चिल्लाने लगती है)
राका: हाय मेरी अँगूठी! हाय मेरी अगूँठी। ले गयी मछली। चलो कोई बात नहीं शकुंतला का भाग्य तो बिगाड़ ही दिया मैंने।
(नदी से बाहर आते हुए हँसती है)हहहहह।हहहहहह।हहहहहह।
(मंच पर अंधेरा)
[पर्दा गिरता है]
दृश्य२
(दुष्यंत का राजमहल, द्वार पर शकुंतला थकी-हारी पहुँचते हुए)
शकुंतला: मुझे महाराज दुष्यंत से मिलना है।
प्रहरी: आप कौन है, देवि!
शकुंतला: मैं महाराज दुष्यंत की धर्मपत्नी, शकुंतला हूँ।
प्रहरी: (आश्चर्य से) हैं~~(स्वत:) लगता है कोई पागल स्त्री है (बोलते हुए)~~~~पर देवि जहाँ तक हमें मालूम है वे तो अभी तक वे अविवाहित हैं।
शकुंतला: नहीं प्रहरी। यह सत्य नहीं है।
प्रहरी: हूँ~~~~~~~~~(स्वत:)पूरी पागल है।
शकुंतला: आप जाकर महाराज को मेरे आने की सूचना दें।
प्रहरी: जी अवश्य!
(प्रहरी महल के भीतर जाता है। महाराज दुष्यंत अनमने से इधर-उधर घूम रहे हैं)
प्रहरी: महाराज ! क्षमा प्रार्थी हूँ।
दुष्यंत: कहो प्रहरी! क्या बात है?
प्रहरी: महाराज द्वार पर एक स्री स्वयं को आपकी धर्मपत्नी बताते हुए आपसे मिलने की अनुमति माँग रही है।
दुष्यंत: हहहहहहह! मेरी धर्मपत्नी!!! 
प्रहरी: जी महराज! लगता है कोई पागल अौरत है।
दुष्यंत: अच्छा!! एेसा है तो मिलना तो जरूर चाहिए। भेज दो उसे भीतर।
प्रहरी: जो आज्ञा महाराज।(बाहर आकर, शकुंतला से) जाइए, महाराज आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
शकुंतला: (भीतर जाते हुए) धन्यवाद प्रहरी!
(शकुंतला भीतर जाती है, महाराज अपने सिंहासन पर बैठे हैं)
शकुंतला: प्रणाम महाराज!
दुष्यंत: प्रणाम देवि! कहिए मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ।
शकुंतला: महाराज विवाहोपरांत स्त्री का अपने माता-पिता के घर रहना ठीक नहीं। मैं आपसे यहाँ रहने की अनुमति चाहती हूँ।
दुष्यंत: (स्वगत)सचमुच विक्षिप्त है!!! (बोलते हुए) तो देवि क्या मैंने आपसे विवाह किया है?
शकुंतला: महाराज दुष्यंत! क्या आपको हमारे प्रेम अौर विवाह की कोई स्मृति नहीं।
दुष्यंत: (स्वगत) सच में यह अौरत मानसिक संतुलन खो चुकी है। (प्रत्यक्ष) अच्छा देवि तो मैंने आपसे प्रेम भी किया अौर विवाह भी?
शकुंतला: (रोष में) महाराज दुष्यंत!! यह आपके अौर मेरे जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है। आप इसे विस्मृत कैसे कर सकते है?
दुष्यंत: देवि अभी तक तो मैंने सोचा कि आप विक्षिप्त हैं, इसलिए आपकी बात सुनता रहा। पर अब आप मर्यादा पार कर रही हैं। 
शकुंतला: महाराज दुष्यंत! सदियों से पुरुष स्त्रियों को मर्यादा का पाठ पढ़ाते आ रहे हैं जबकि सच तो यह है कि उनको बिल्कुल मर्यादा पालन का ज्ञान नहीं।
दुष्यंत: देवि यह अशिष्टता है। यदि मैंने आपसे प्रेम अौर विवाह किया है तो उसका कोई प्रमाण उपस्थित कीजिए, अन्यथा राज-प्रसाद से प्रस्थान कीजिए।
शकुंतला: जी महाराज! आप महाराज हैं अौर पुरुष भी। आपको याद नहीं कि आपने मुझसे प्रेम अौर विवाह किया। पर, प्रमाण मैं दूँ।
दुष्यंत: आप मेरा समय व्यर्थ कर रही हैं। प्रमाण दीजिए अन्यथा मुझे प्रहरियों को आदेश देना होगा।
शकुंतला: नहीं महाराज दुष्यंत! इसकी आवश्यकता नहीं ।वैसे प्रेम को प्रमाण की आवश्यकता न होनी चाहिए पर, मेरे पास प्रमाण है। यह लीजिए प्रमाण…..
(शकुंतला अपने हाथ की उँगली ऊपर उठाती है, पर यह देखकर सन्न रह जाती है कि उसमें अँगूठी नहीं है)
दुष्यंत: (अट्टहास करते हुए) हाहाहाहा। हाहाहाहा। यह आपकी कनिष्ठा!!!! हाहाहहाहा। यह है प्रमाण।
शकुतला: (उदासी अौर शर्म से) महाराज! मुझे क्षमा करें। लगता है जो राज-मुद्रिका आपने मुझे दी थी वह कहीं गिर गयी।
दुष्यंत:(रोष में) अब आप स्वत: तुरंत बाहर चली जाँए। मेरे पास व्यर्थ करने के लिए समय नहीं है।
(शकुंतला चुपचाप राजसदन से बाहर जाते हुए, आत्मगलानि से)
शकुंतला: (स्वगत) कहाँ गयी अँगूठी। अपने प्राणों से भी प्यारी। अोह क्या करूँ…….
{मंच पर अंधेरे के बाद प्रकाश}
कालिदास: जब भाग्य अच्छा न हो तो सारा परिवेश प्रतिकूल हो जाता है। चंद्रमा सूरज की तरह तपिश पैदा करता है अौर बादल अंगार बरसाते हैं। शकुंतला के साथ भी अभी एेसा ही हो रहा था। पर समय अौर भाग्य तो बदलते रहते हैं। तो देखिए आगे क्या हुआ।
दृश्य३
(एक मछुआरे का घर)
मछुआरा: (पत्नी से)सुनो जी! आज बड़ी मछली हाथ लगी है।
मछुआरी: सच! तो आज भरपेट खाएँगे।
मछुआरा: जल्दी करों, बहुत जोर की भूख लगी है। लाअो चाकू तो दो।
मछुआरी: (चाकू देते हुए) लो जल्दी से काट लो।
(मछुआरा काटने के लिए तैयार होता है, मछली इधर-उधर भागती है, comedy …///dialogue of fish????, अंतत: मछली काटने पर उसे अँगूठी दिखाई देती है,  उसे हाथ में लेकर,आश्चर्य से)
मछुआरा: अरे देखो-देखो! कैसी सुंदर अँगूठी है।
मछुअारी: अरे वाह!! ये तो बहुत सुंदर है। पर यह क्या है?
मछुआरा: कहाँ?
मछुआरी: यह (ध्यान से देखते हुए) यह!! इस पर तो राजा की मुहर है।
मछुआरा: अरे हाँ! ये तो राज-मुद्रिका है। बड़ी कीमती है। अब हम अमीर हो जाएँगें। (नाचने लगता है)हहहह
मछुआरी: (गुस्से में) नहीं, कदापि नहीं। इसे तुरंत राजा को लौटा देना चाहिए। इस पर हमारा कोई अधिकार नहीं।
मछुआरा: सच कहती हो। मैं अभी जाकर इसे राजा दुष्यंत को सौंप देता हूँ।
मछुआरी: हाँ। यही उचित है।
दृश्य४
(दुष्यंत का राजसदन)
(मछुआरा दुष्यंत के द्वार पर पहुँचता है, प्रहरी से)
मछुआरा: मुझे महाराज दुष्यंत से मिलना है।
प्रहरी: क्या काम है?
मछुआरा: एक विशेष काम है। केवल महाराज को ही बता सकता हूँ।
प्रहरी: अच्छा प्रतीक्षा करो।
(प्रहरी का दुष्यंत के पास जाकर)
प्रहरी: महाराज की जय हो। एक मछुआरा आपसे मिलने की अनुमति चाहता है।
दुष्यंत: प्रहरी! भेज दो उसे। मेरा सदन हमेशा ही मेरी प्रजा के लिए उपलब्ध है।
प्रहरी: जो आज्ञा महाराज।
(प्रहरी मछुआरे के पास आकर)
प्रहरी: जाअो। महाराज बहुत दयालु हैं। उनसे कोई भी मिल सकता है। अभी कुछ दिनों पहले वो पगली भी मिलकर गयी थी।
(मछुआरा अंदर जाता है)
मछुआरा: महाराज की जय हो।
दुष्यंत: कहो मछुआरे ! मेरे राज्य में प्रजा सुखी तो है न। मैं तुम्हारी क्या सहायता कर सकता हूँ?
मछुआरा: महाराज के शासन में प्रजा बिना किसी भय अौर संताप के सुखी जीवन व्यतीत कर रही है। आप जैसा दयालु राजा
भाग्यवान प्रजा को ही मिलता है। आज मैं एक विशेष प्रयोजन से यहाँ आया हूँ।
दुष्यंत: नि:संकोच कहो!
मछुआरा:(अँगूठी निकलते हुए) महाराज! यह राज-मुद्रिका मुझे एक मछली के पेट से मिली। मैंने सोचा यह शायद आपके किसी काम की हो।(अँगूठी पास जाकर देता है)
दुष्यंत: (अँगूठी देखते हुए चकरा जाता) अरे! मछुआरे!! कहाँ मिली यह अगूँठी!!!!
मछुआरा: महाराज मछली के पेट से।
दुष्यंत:(शकुंतला की याद ताजा हो जाती है) अरे! क्या अनर्थ हुआ मुझसे। मैं देवि शकुंतला को पहचान ही नहीं सका। बिल्कुल ही भूल गया था।क्या दुर्व्यवहार किया मैंने देवि के सा़थ। (चक्कर खाकर गिर जाता है, प्रहरियों को आवाज देते हुए)प्रहरी!! प्रहरी!!!
(प्रहरी अंदर आते हैं, मछुआरा डरकर भाग जाता है)
प्रहरी: अरे महाराज! क्या हुआ?
दुष्यंत: मेरा अश्व तैयार करो।
प्रहरी: जो आज्ञा! महाराज!
दुष्यंत: शीघ्र! अतिशीघ्र!!!
दृश्य५
(महाराज दुष्यंत अपने अश्व पर सवार हो कण्व ऋषि के आश्रम पहुँचता है, कण्व ऋषि अपने अध्ययन में व्यस्त हैं, ऋषि-पत्नी साथ में बैठी हैं)
दुष्यंत: प्रणाम ऋषिवर!
कण्व: कौन है?
दुष्यंत: मैं पुरु पुत्र दुष्यंत अापको प्रणाम करता हूँ।
ऋषि-पत्नी: महाराज दुष्यंत!! 
दुष्यंत: जी मातृ श्री!
ऋषि-पत्नी: (क्षोभ के साथ) अपने राजसदन में मेरी पुत्री का अपमान करने से आपकी क्षुधा शांत नहीं हुई जो आप यहाँ तक चले आए राजा दुष्यंत!!
दुष्यंत: मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। मुझे कुछ भी याद नहीं था उस समय। लज्जित हूँ अपने कुकृत्य पर अौर देवि शकुंतला से क्षमा माँगने आया हूँ।
ऋषि-पत्नी: पुरुष अौर स्त्री का यही भेद है राजन् । पुरुष को कुछ भी याद नहीं रहता अौर स्त्री कुछ भी भूलती नहीं।
दुष्यंत: मैं क्षमा चाहता हूँ, मातृ श्री।
(अचानक शकुंतला का आना)
दुष्यंत: (शकुंतला से) देवि शकुंतला! मैं अपने कृत्य के लिए आपसे क्षमा माँगने आया हूँ। मुझ अभागे को…….
शकुंतला: आप कब से अभागे हो गए चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत। अभागे तो हम हैं जिन्हें प्रेम करने का अपमान झेलना पड़ता है। स्त्री जीवन की यही तो विडंबना है।
दुष्यंत:देवि लज्जित हूँ। अपने किए के लिए। मुझे क्षमा करें अौर राजसदन चलकर साम्रज्ञी का पद सुशोभित करें।
शकुंतला: साम्राज्ञी के पद का लालच नहीं है मुझे। दुख तो इस बात का है कि आपने मुझ पर विश्वास नहीं किया।
दुष्यंत: क्षमा करें देवि। अपने कृत्य पर लज्जित हूँँ। 
कण्व: शकुंतला! इसमें दुष्यंत का दोष कम अौर दुर्वासा के शाप का प्रभाव अधिक है। अब बिलंब करना ठीक नहीं। जाअो बेटी , दुष्यंत को तुम्हारी जरूरत है।
शकुंतला: जो आज्ञा पिता  श्री।
दुष्यंत: आभारी हूँ ऋषिवर।
(कण्व ऋषि के आश्रम के पास ही दुष्यंत के सैनिक पहुँच जाते हैं। अौपचारिक विवाह की तैयारी होती है)
सैनिक अौर आश्रम वासी: महाराज दुष्यंत की जय!!
सैनिक अौर आश्रम वासी: महारानी शकुंतला की जय!!
(मंच पर अंधेरा)
[पर्दा गिरता है]
{नृत्य}








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