17 अगस्त, 2013

साधनावस्था



यह कहानी कनाडा के वैंकूवर शहर के पास स्थित एबट्सफोर्ड में कार्यरत मेरे मित्र कापालिक शर्मा के अनुभव से प्रेरित है। अत: सभी जिम्मेवारी उनकी।
यह जो कहानी मैं आपको बताने जा रहा हूँ इसे प्रेमकथा समझने की भूल मत कीजिएगा। यह दो सधे हुए लागों का अपने-अपने तरीके से किया गया एक्‍सपेरीमेंट है। हुआ यह कि मेरी प्रमिका एक बार पहले धोखा खाकर पक्‍की हो चुकी थी। बकौल उसके वह बरबाद होते-होते बची थी। बची थी आज इस पर घोर संदेह होता है, क्‍योंकि उसका पूर्व प्रेमी आज मेरा मित्र है।मैंने आज तक जो प्रेम किए थे वे सब बड़े सात्विक किस्‍म के थे। मेरी सारी प्रेमिकाएँ आश्‍चर्यजनक ढंग से वफादार निकली थी। और मैने कुछ दिनों प्रेम कर लेने के बाद उनसे अपना-अपना विवाह कर लेने की विनम्र प्रार्थना के सिवा कोई बड़ी बदसलूकी नहीं की, लेकिन इस बार मामला कुछ अलग किस्‍म का था।हुआ यह कि घर वालों से लड़ता-भिड़ता एक-एक कर परीक्षाएँ पास करता मैं काफी ऊँची क्‍लास में प‍हुँच गया था। यहाँ पहुँच कर जो सबसे पहला काम मैने किया वह अपने घनिष्‍ठ मित्रों से दूरी बनाने का था। मैं भयभीत रहता कि मेरे प्रेममार्ग में सबसे बड़ी बाधा यही खड़ी कर सकते हैं। धीरे-धीरे प्रेम की संभावना जिस लड़की में मैने तलाश की उसके काफी करीब आ गया। ऐसा होने में उसने कोई व्‍यवधान उत्‍पन्‍न नहीं किया। लेकिन जब बात मैंने आगे बढ़ायी तो झटका मारने लगी। ‘मैं मम्‍मी से कभी झूठ नहीं बोलती।‘‘ आज तक किसी लड़के के साथ बाइक पर नहीं घूमी।‘ किसी लड़के के साथ फिल्‍म नहीं देखी’आदि-आदि तमाम शरीफाना सूक्तियाँ मेरे सामने रख दीं। इन पर, आप ही बताइए, बिना हँसे कोई रह सकता है। खास तौर पर जब आप अपनी जवानी पार कर रहे हों और पर्याप्‍त अनुभवी हो चुके हों। तो भी बड़े उदास मन से मैं उस दिन घर लौट आया। अभी तक इसप्रकार के प्रेम का मुझे अभ्‍यास नहीं था लेकिन जब त सांस तब तक आस के सिद्धांत का पालन करते हुए मैं जुटा रहा। हाँ, अपनी रणनीति मैंने अवश्‍य बदल ली थी।
कुछ लड़किया ऐसी होती हैं जिन्‍हें चण्‍ट नहीं बुड़बक प्रेमी में दिलचस्‍पी होती है। मैं बुड़बक बन जाना चाहता था। लेकिन मेरा तेवर इसके खिलाफ गवाही देता था। मेरी एक सहपाठिनी ने पूर्व प्रकरणों की सूचना भी फैलानी शुरू कर दी थी। इस बात को लेकर बाकायदा मैंने उससे झगड़ा और ख़ुशामद की। खैर जैसे-तैसे यह मामला ठंडा पड़ गया और इस दुनिया के तिकड़म से अनभिज्ञ और तटस्‍थ दिखने के लिए मैंने दाढ़ी बढ़ा ली और बिना इस्‍त्री किए कपड़े पहनने शुरू कर दिए। कहा जा सकता है कि अब मेरी प्रेमिका को यकीन हो चला था कि यह लड़का निहायत शरीफ है और वह मुझसे सधने लगी थी।  इस प्रकार हर दिन की प्रोग्रेस मैं अपनी डायरी में दर्ज करता अौर उसका मूल्यांकन करते हुए अगले दिन की व्यूह रचना करता । आप मेरी बात पर हँसे नहीं तो कह दूँ कि जितनी मेहनत कौरवों ने अभिमन्यु को घेरने में लगाई थी उससे ज्यादा  दिमाग मुझे इस लड़की को फाँसने में लगाना पड़ा अौर अगर आपको यह पुरानी तुलना समझ न आ रही हो तो युँ समझिए कि इतना दिमाग लगाने पर मैं आईएएस अधिकारी बड़े आराम से बन जाता।
मेरी  प्रेमिका काफी  पिछड़ी पारिवारिक पृष्ठभूमि  से ताल्लुक रखती थी।   उसके परिवार वाले अौरतों के मामले में ही ज्यादा पिछड़े थे, मर्द तो ऐसे थे जो पत्नी को छोड़ रखैलों के साथ घूमा करते थे।नारियों के प्रति इस पिछड़ी सोच के कारण मैं चाहकर भी उसके पास सीधे फोन तक नहीं कर सकता था अौर इसके लिये मुझे उसकी सहेलियों के लिये मिन्नतें करनी पड़ती थी।
जो भी हो अब हमारा प्रेम पूरे शबाब पर था। अपने प्रेम को अंजाम देने के लिये मुझे चूतिया-चूतिया किस्म के लड़कों से दोस्ती गाँठनी पड़ी आखिर 'एकोमोडेशन' की व्यवस्था वही सब करते थे। मैं इतना सब सहता गया लेकिन मेरी प्रेमिका सब कुछ संपन्न कर लेने के बाद भी अपनी शराफत की ढफली एक-आध बार पीट ही देती। दोस्तों ! बस यही वक्त होता जब मेरे गुस्से का पारावार न होता। 'सपन्नता' के बाद वैसे भी मुझे कोई अौरत हसीन न लगती अौर उस पर शराफत का राज मुझे सरासर बदतमीजी लगता। लेकिन मेरे ताऊ जी कहा करते थे कि "दुधारी गाय की दो लात भली।"वे काफी अनुभवी आदमी थे अौर उनकी बात को मैंने गाँठ बाँध लिया था, आखिर ऐसा तो था नहीं कि मुझे आगे उसकी जरूरत ही न पड़े।
प्यार के क्षणों में हम कई बार भावुक हो जाया करते थे। इस भावुकता में कुछ बहकी-बहकी बातें भी होती थीं। शरीफ प्रेम की सबसे बड़ी निशानी होती है कि आप जिससे प्यार करें उससे शादी का भी प्रस्ताव भी करें। इस चाल को मैं पहले ही चल देना चाहता था अौर बहुत सोच-समझकर प्रेम के चरम क्षणों में एक दिन यह प्रस्ताव मैंने रख दिया। मेरी प्रेमिका चौंक पड़ी अौर विवाह कि तमाम बुराइयों को उसने मेरे सामने गिना दिया। उस दिन उसकी प्रोग्रेसिव सोच पर मैं बेहद प्रभावित हुआ था अौर खुश भी कि यह गले की हड्डी नहीं बनेगी। इस निश्चिंतता ने मेरे प्रेम में चार चाँद लगा दिये।
स्वस्थ प्रेम की पहचान होती है कि वह सामाजिक हुआ करता है वैसे ही हमारे प्रेम को सामाजिक मान्यता मिलने लगी थी।मेरे कुछ मित्र अौर मेरी प्रेमिका की कुछ सहेलियाँ मान्यता देने में अग्रणी रहे। सामूहिक आयोजन अौर खान-पान होने लगा। जिन्दगी बड़े शुकून से बीतने लगी।
एक दिन मैं बड़ी देर तक प्रेम करता रहा अौर जब बाहर निकला तो जाड़े का अँधेरा घिर आया था। मेरी प्रेमिका मुझसे नाराज़ हो गयी अौर अण्ट-शण्ट बकने लगी-
'इतनी देर हो गयी मम्मी को क्या जवाब दूँगी?'
'भाड़ में गयी तेरी मम्मी। मम्मी! मम्मी!मम्मी! हमेशा मम्मी का डर।'
आज मेरा दिमाग गरम हो गया था। शायद थकान से मेरी झल्लाहट बढ़ गयी थी।बुड़बक बने रहने की क्षमता छीज गयी थी अौर मैं अपनी अॉरिजिनल फॉर्म में आ गया था। हर प्रेम-कलाप के बाद मैं अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंतित हो जाया करता था। इस चिंता ने संभवत: मेरे क्रोध को अौर बढ़ा दिया था। भयंकर गालियाँ सुनते हुए वह वहाँ से जल्द ही सरक गयी। उस दिन अपनी डायरी के विवरणों का मूल्यांकन करते हुए मैंने पाया कि आज एकमुश्त घाटा हो गया। एकबारगी तो डर लगा पर फिर धयान आया कि मुक्त बाजार व्यवस्था का जमाना है, एक जगह घाटा होने पर दूसरा कुछ जमाया जा सकता है। मित्रों यह विचार आते ही मैं वैसे ही निर्भ्रांत हो गया जैसे कुरूक्षेत्र के मैदान में कृष्ण का कर्म-संदेश सुनकर अर्जुन हो गये थे। हालाँकि अगले दिन मैंने अपने किये के लिये खेद व्यक्त कर दिया पर बात बनी नहीं। मैं भी समझ गया कि इस बदजात के साथ ज्यादा दिन निभने वाली नहीं। मेरी ऊब भभकने लगी थी। एक दिन वही हुआ जो होना था। मेरी प्रेमिका का होने वाला पति उससे मिलने आया। वह मेरी बगल में बैठी थी, उसे देखकर चुपचाप खिसक गयी। मैं भी समझ गया कि अब इस वृद्ध-प्रेम के दिन लदने वाले हैं। चलते-चलते बात क्यों बिगाड़ी जाय सो मैंने अंतिम कोशिश की। बात पटरी पर आती दिखाई दी पर ऐनवक्त पर गड़बड़ हो गया।
हुआ यह कि अपने होने वाले पति को लेकर उसने कई अफवाहें फैलानी शुरू कर दीं। मसलन, 'वह बड़ा नैरो माइंड (उसे इतनी ही अंग्रेजी आती थी) है। उसने आगे से किसी लड़के से बात तक करने को मना किया है। अब शायद तुमसे बात कर पाना मुश्किल हो।' वह यह सब बातें बोल रही थी अौर मेरा दिमाग ठनठना रहा था। जरा सोचिये झूठ काफी कायदे से बोलने की चीज है अौर वह उसे बड़े बेहूदे ढंग से बोल रही थी। ऐसे में मेरे दिमाग का ठनठनाना गैर वाजिब था क्या? उसका होने वाला पति अभियांत्रिकी में डिग्री लिये हुए था। साधारणतया यंत्रों में जुटे रहने वाले लोग इस तरह की संकीर्णताअों में विश्वास नहीं करते लेकिन यह लड़की मुझे आज भी बुड़बक बना रही थी। दोस्तों! मौलिकता को दबा पाना मुश्किल काम होता है अौर मेरा ठेठपन फिर बाहर आ गया था। 'ऐ, सुनो यह बकवासबाजी मैं सुनना नहीं चाहता। आगे से तुम्हें मुझसे मिलने की कोई जरूरत नहीं। हम दोनों एक दूसरे को पहचानते तक नहीं। हमारा एक दूसरे से कोई लेना-देना नहीं। समझ गई न। अब चल फूट।' कुछ इसीतरह कह कर मैंने अपना पिंड छुड़ा लिया। विवाह हो जाने तक शायद वह खुद भी ऐसा ही चाहती थी इसलिए उसकी शादी में मेरे साथ-साथ वे भी मित्र बिना न्यौते के रह गए जिन के मन में बड़ी अास थी।
उसका विवाह हो गया था। मैंने फोन कर विश्वस्त सूत्रों से पता किया अौर आश्वस्त हो गया। साथ ही अगले प्रयास में जुट गया। मैं पर्याप्त मेधावी था। अपने गुरुअों के बीच मेरा बड़ा सम्मान था। अपनी इज्जत की बधिया उड़ते मैं नहीं देख सकता था। इज्जत के साथ प्रेम के कुछ नियम हुआ करते हैं। एक प्रेम एक स्थान पर एक समय में करने से कोई झंझट नहीं होता। 'टाइम' अौर 'स्पेस' को साधना मेरे लिये बड़ा कठिन काम होता है। लेकिन मैंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि इस बार प्रेम ऐसी जगह करूँगा कि न मेरा को घनिष्ठ मित्र पहुँच सके अौर न ही कोई खास परिचित।
अभी मैं इसी खोज में लगा हुआ था कि मेरी अब पूर्व हो चुकी प्रेमिका की अोर से उसकी सहेलियों के मार्फत संदेश आने लगे। उसकी शादी हुए अभी दो भी महीना पूरा नहीं हुआ था कि वह मुझसे पुन: संपर्क की इच्छुक हो चली थी। दरअसल इस बीच मैंने उसकी चर्चा बिल्कुल ही बंद कर दी थी। लेकिन उसे लगा होगा कि प्रेम का जो वट-वृक्ष उसने बोया है उसकी सभी जड़े इतनी जल्दी नहीं सूखी होंगी। जब उस तक मेरी अोर से कोई पोजिटिव संकेत नहीं पहुँचा तो एकदिन वास्तविक स्थिति का जायजा लेने वह स्वयं पहुँच गयी। उसे अपनी सहेलियों पर मेरे रुख की जानकारी के बारे में भरोसा न  हुआ इसलिये वह एक दिन खुद ही धमक पड़ी।
अब मेरे कान खड़े हो गये थे। पहले तो कुछ दिन मैं मिला ही नहीं लेकिन एक दिन सामना करना ही पड़ा अौर मैं बड़ी बेरुखी हरकत कर बैठा। मेरे दो मित्र साथ थे। उन्हें इस पर घोर आश्चर्य हुआ होगा। मैंने सोचा वह समझ गयी होगी  लेकिन वह बड़ी नासमझ निकली अौर अगले दिन जब मैं उससे बचकर निकल रहा था उसने पीछे से दौड़ते हुए पुकारा। मैं रुका जरूर पर मेरा बेरुखापन अौर बढ़ गया था। दरअसल उसके दिमाग में हिंदी  फिल्मों के वे सीन दौड़ रहे होंगे जिनमें एक अोर से प्रेमिका दौड़ती है अौर दूसरी अोर से प्रेमी फिर दोनों आलिंगनबद्ध हो जाते हैं अौर अचानक सारा कंफ्यूजन खत्म हो जाता है। लेकिन जिंदगी फिल्म नहीं होती इसलिये ऐसा कुछ हुआ भी नहीं अौर जब मैं घर लौटा तो लगा आज इस प्रेम के नाटक पर आखिरी लात जड़ दी है, अब आगे का मार्ग प्रशस्त हो चला है। मैंने अपने लिए चाय बनाई अौर दूरदर्शन देखने लगा।
टी०वी० पर आजकल झालू किस्म के चेहरे दिखने दिखने लगे हैं। इस शब्द की व्याख्या मेरे एक मित्र बड़े अजीब ढंग से करते हैं। उनका कहना है कि इस प्रकृति में उन लोगों को शामिल किया जा सकता है जो बिना किसी कारण के हँसते हैं। इस किस्म में वे उन सभी स्त्री-पुरुषों को समाहित करते हैं जो अपने दाँत अौर मसूड़ों को दिखाते हुए हिजड़ों की तरह चुहलबाजी करते खीस निपोरते रहने में ही अभिनय की उत्कृष्टता समझते हैं। मैंने अपने जिन मित्र का हवाला दिया वे बिहार जैसी साहित्यिक उर्वर भूमि से ताल्लुक रखते हैं। इसलिए उनकी व्याख्या का विरोध मैं भला कर भी कैसे सकता हूँ।
अपने हाथ से बनाई चाय मैं बहुत दिन बाद पी रहा था। सामने स्क्रीन पर हिजड़ा साम्राज्य गझिन हो चला था अौर मेरी बर्दाश्त के बाहर भी। मैंने स्विच अॉफ कर दिया। अपनी डायरी निकाल ली अौर आज के वाकयात दर्ज करने शुरू कर दिये-
'वह शादी के बाद मिलने की कोशिश में जब पहली बार मेरे पास आयी तब भी अौर अाज भी शादी की ऊपरी निशानी उस पर कुछ भी न दिखाई दी। उसने चाहा होगा कि मैं देखूँ कि जैसे मैंने उसे छोड़ा था वैसे की वैसी वह अब भी बची हुई है। उसने मेरे मित्रों से अपनी ससुराल के कष्टों का वर्णन किया। सास की बुराई की अौर उस अपार दुख को समझाने की कोशिश करती हुई मेरी सहानुभूति पाने की उत्कट अभिलाषा लिये वह खाली हाथ वापस चली गयी। उसके पति का संकरा दिमाग लगता है अब राजपथ की तरह चौड़ा हो गया है जिससे उसे लड़कों से मिलने में अब कोई परहेज नहीं है। मेरा दिमागी उजड्डपन अब उसके चूतियापे में कोई इंटरेस्ट नहीं लेता। समझदार मैं पहले भी था लेकिन उसकी प्रौढ़ता आज पता चली।' मैंने अपनी डायरी बंद की अौर बाजार में घूमने निकल पड़ा।
बाजार उपभोक्ता वस्तुअों अौर मांसलता से बजबजा रहा था। ऐसा लगता था जैसे जनम-जनम के भूखे ये लोग आज क्या पाएँ क्या खा जाएँ। बाजार में वे पुरुष ज्यादा तनकर चल रहे थे जिनकी पत्नियों ने अपने होंठों को गाढ़े रंग रंगकर अपने गालों को बाकायदा सफेद करने का उपक्रम किया हुआ था। मेरे एक गुरु-मित्र दावा करते हैं कि  ऐसी महिलाअों के पेटीकोट को यदि सूंघकर देखा जाय तो सप्ताह भर से न धुले होने की गंध उसमें जरूर होगी। इस मुद्दे पर वे मँहगाई के इस जमाने में भी एक बड़ी रकम की बाजी लगाने को उद्धत रहते हैं। उनका शोधकार्य सौंदर्य बोध को लेकर है इसलिये कोई भी इतने पैसे गँवाने की जुर्रत नहीं कर सकता।
बाजार में बत्तिया जल गयीं थीं। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ती जा रही थी। बाजार स्त्री-पुरुषों से गच गया था। चूतड़ों की रगड़ शुरू हो गयी थी। यह नजारा मैं बड़ी दिलचस्पी अौर इत्मिनान से देखता रहा। लेकिन जब मेरी कमजोर नैतिकता लड़खड़ाने लगी अौर मैं तनावयुक्त होने लगा तो वहाँ से चल दिया।
इस घटना को बीते एक अरसा हो गया है।अब मेरी प्रेमिका मेरे एक मित्र के साथ दिख जाती है। उसने अपनी देह को विवाह की ऊपरी निशनियों से लैस कर लिया है। उसे अपना स्थायित्व मिल गया है अौर विवाह विरोधी चिंतन कुंद पड़ गया है। हम दोनों एक-दूसरे के साथ बेपनाह जिये। उसे देखता हूँ तो भीतर ही भीतर हँसी आती है पर मन में कोई कोफ्त नहीं होती। मेरी कुछ महत्तवपूर्ण किताबें उसके पास रह गयीं है, उसका थोड़ा-बहुत गम जरूर है, इसके अतिरिक्त कोई विशेष शिकवा नहीं। ईश्वर उसके पति का दिमाग अौर चौड़ा करे। बाजारों में भीड़ कम हो। टेलीविजन वालों को सद्बुद्धि आए बस यही तीन कामना है।    

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