30 जुलाई, 2013

जापान में सत्संग


जापान में आए हुए एक बरस से ज्यादा हो गया । यह एक खूबसूरत देश है । अनुशासन और दूसरे के प्रति सम्मान हमें सभी जगह देखने को मिलता है । राजधानी तोक्यो में भी जहाँ बहुसंख्य लोग रहते हैं धक्का-मुक्की, गाली-गुत्ता और लड़ाई-फसाद बहुत ही कम देखने को मिलता है। समय का सम्मान करना हम जापान से सीख सकते हैं । दूसरी विशेषता हमें यहाँ निजता के अधिकार के प्रति देखने को मिलती है। लोग दूसरों की व्यस्तता का आदर करते हैं । इसलिए मेल-जोल और गप्पबाजी का अवसर कम होता है। यह बात हमें खलती है। हमें का मतलब मैं और मेरे पाकिस्तानी सहयोगी सुहेल साहब तथा बंगाली भाषा की प्रो० सुभा दी को। लोग अत्यंत व्यस्त होते हैं। इसलिये एक-एक मिनट का सम्मान किया जाता है। हर व्यक्ति अपने काम में मगन रहना अपनी जवाबदेही मानता है। काम पहले है, बाकी बातें बाद में । इसलिए आप अपने काम के लिये कहीं भी जाइए आपका काम बिना किसी बाधा के बहुत जल्द हो जाता है। भ्रष्टाचार न के बराबर है इसलिए कोई किसी को परेशान नहीं करता । 
साहित्य का एक अध्यापक होने के नाते संवाद अौर गप्प का मेरा चस्का पुराना है। पर यहाँ इसकी संभावना कहाँ। छात्र हमेशा ही मेरे करीब रहे हैं । तो मैंने कुछ छात्रों से इसके बारे में चर्चा की । गप्प भी ज्ञान में इजाफा करता है, एेसा उनको बताया। उन्हें भी यह विचार पसंद आया। पर यहाँ तो प्रोफेसर लोग  इतने व्यस्त कि पूछो मत। अपने बगल के कमरे में रहने वाले हिन्दी विभाग के अध्यक्ष प्रो० मिज़ुनो जी को भी ई-मेल करके मिलना पड़ता है। दक्षिण एशिया अध्ययन विभाग के निदेशक प्रो० ताकेशि फुजिइ विश्वविद्यालय में ऐसे विद्वान हैं जो हिन्दी और भारतीय  परंपराओं में गहरी दिलचस्पी लेते हैं।वे दिल्ली विश्वविदयालय के छात्र भी रह चुके हैं। गप्प मारने के लिये उनका सानिध्य सबसे आवश्यक था। पर वे और भी व्यस्त हैं। मैं भी महीने में केवल 15-20 मिनट की एक मुलाकात ही कर पाता हूँ और केवल काम की बात तथा चाय का एक प्याला। अपनी एक ऐसी ही व्यस्त मुलाकात में मैंने उनसे शिकवे भरे अंदाज में कहा कि "आपको गप्प की परंपरा की शुरूआत यहाँ भी करनी चाहिए।" वे पहले तो आश्चर्य से मुझे देखते रहे फिर बोले कि विचार करुँगा। बात आयी-गयी हो गयी। मैं भी भूल गया। पर, एक दिन पता चला कि गप्प की परंपरा शुरू होने वाली है। हिन्दी अध्ययन के लिये एक कॉमन रूम अलग से निर्धारित है। उसकी संख्या है आठ सौ चालीस । एक दिन प्रो० फुजिइ जी ने सूचित किया कि आगामी शुक्रवार को 'श्री सत्संग चौरासी' की बैठक है। मैंने अनुमान लगा लिया कि यह मेरे आग्रह का ही परिणाम है। पर, नाम रोचक था और मैं जानने को उत्सुक था कि यह नाम उन्होंने कैसे सोचा। मेरे दिमाग में 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता' का ख्याल सबसे पहले आया। फिर चौरासी सिद्ध भी दिमाग में आए। शुक्रवारी सभा भी। पर भ्रम बरकरार रहा। मैंने सोचा चलो कुछ दिन का इंतजार और सही। शुक्रवार आया। प्रो० फुजिइ, मैं और कुछ वरिष्ठ छात्र निर्धारित कक्ष में एकत्र हुए। साके (एक प्रकार की शराब) जापानी जीवन संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। शाम होते ही साके का भी आगाज हो जाता है और साके के बिना कोई सभा, सम्मेलन, परिचर्चा और गोष्ठी संभव नहीं। सो साके भी मौजूद थी । भारत में शराब कभी-कभार ही पीता था पर यहाँ यह लगभग साप्ताहिक कार्यक्रम है। और उसके बिना बात बनती नहीं।कमरे के बाहर 'श्री सत्संग चौरासी' का बोर्ड टंग गया था। अनेक चर्चाएँ होती रहीं । अज्ञेय, अमृतलाल नागर और बहुत से अन्य साहित्कारों पर । हिन्दी फिल्मों और भारतीय संस्कृति के अनेक पक्षों पर भी। थोड़ी देर बाद मैंने पूछा कि यह ' चौरासी ' क्या है? प्रो० फुजिइ ने मुस्कराते हुए जवाब दिया कि 'कमरा नं० 840' शून्य हटा दिया गया है, बस। अब इसकी तीसरी बैठक हो चुकी है तो संभावना है कि यह सत्संग चलता रहेगा और गप्प की यह परंपरा व्यस्त जापानी जीवन संस्कृति में नया शुकून पैदा करेगी। उम्मीद यह भी है कि अनेक अनलिखे संस्मरण और प्रसंग अनायास ही परिचर्चा में आएँगे अौर हमारे अनुभव को समृद्ध करेंगे ।

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