जापानी लोककथा 'कागुया हिमे' पर आधरित हिन्दी नाटक
(हिन्दी विभाग, तोक्यो यूनिवर्सिटी आॉ़फ फॉरेन स्टडीज़ के द्वितीय वर्ष, 2013
के छात्रों की
प्रस्तुति)
: पात्र :
चंद्रिका: त्सुकासा इशिदा
युवराज: योसुके हाँदा
माता: रीना नकानो
पिता(लकड़हारा): नाओया मासुजिमा
पहला युवक (सामंत): रयो आन्दो
दूसरा युवक(व्यापारी): शोइचि इकेगामी
तीसरा युवक(शूरवीर): शोगो इनोउए
चंद्रदेवी: कनाको तमूरा
चंद्रदेवी की सेना:
युवराज की सेना:
समय:
आदि.......
प्रकाश:मिओ कुमागाई, ध्वनि: मसातो
कुरोसावा , वेश-भूषा: नत्सुमि
माशिको, प्रचार-प्रसार:कनाको
तमूरा,उपशीर्षक: कोनोमी
इशिबासी
नाट्य –सामग्री
बाँस, शीशी, तलवार, कुल्हाडी, सोने के सिक्के, मखमली खाल, कई प्रकार की पोशाकें आदि
मार्गदर्शन
प्रो0 ताकेशी फुजिइ
प्रो0 योशिफुमि मिज़ुनो
परामर्श
प्रो0 शिराइ
लेखन व निर्देशन
राम प्रकाश द्विवेदी
पहला अंक
दृश्य 1
[हिमालय के एकांत शिखर]
{भोर का पहला पहर}
(मंच पर सफेद बर्फ से ढके हिमालय पहाड़ का दृश्य
। एक युवराज अकेला और बेचैनी से टहलता हुआ । उसके हाथ में एक छोटी-सी बोतल है ।
अचानक वह बोतल खोलना शुरू कर देता है । पृष्ठभूमि में चाँद दिखाई देने लगता है ।
बोतल खोलते हुए उसकी बेचैनी और चाल बढ़ जाती है । मंच पर दृश्य भी बदलने लगता है ।
आँधी और अँधेरे का दृश्य । डरावनी आवाजों के बीच युवराज का बोतल से अमृत बिखेरना
।)
युवराज का आत्मकथन− अमरता ! किसलिए अमरता !! चंद्रिका, नहीं चाहिये मुझे तुम्हारी दी हुई अमरता । नहीं
चाहिए मुझे तुम्हारे बिना तुम्हारी दी हुई अमरता । नहीं चाहिए यह अमृत । (बोतल
मंच पर फेंकता है और घुटनों के बल बैठ जाता है ।) आह !!! यह संसार भी कैसा है।
कभी सुख, तो कभी दुख । याद है मुझे, आज भी याद है जब मैं युवराज बना था और कितना खुश था । कितनी बहादुरी से
मैंने लड़ाइयाँ जीती थीं और जो चाहा वो हासिल किया । पर, पर आज मैं कितना कमजोर और असहाय लगा, उस चंद्रदेवी के सामने, जो मेरी प्रिया को मेरी नज़रों के सामने से उठाकर ले गयी, और ,मैं
कुछ भी न कर सका । कुछ भी तो नहीं कर पाया मैं ।(सम्राट का बेचैनी से खड़ा होकर
बोलना) धिक्कार है मुझे । हे मेरे निष्फल जीवन ! (चाँद की ओर दौड़ते हुए) मैं आ रहा
हूँ चंद्रिका । तुम्हारे पास आ रहा हूँ ।
[मंच पर धीरे-धीरे अंधेरा]
दृश्य 2
[जंगल का दृश्य]
{रात का समय}
(जंगल के बीच एक आलीशान घर । एक बूढ़ा लकड़हारा
और उसकी पत्नी अपने समृद्ध और बड़े-से घर में सोच में डूबे हुए बैठे हैं । घर में
भुतहा सन्नाटा है । अचानक उस चुप्पी को तोड़ता हुआ लकड़हारा उठ खड़ा होता है । और
अपनी पत्नी से मुखातिब होकर टूटी-सी आवाज़ में बोलता है)
लकड़हारा−आज हम फिर कितने अकेले रह गए । पानी की बूँद की
तरह भाप बनकर, अचानक हमें छोड़कर चली गयी चंद्रिका । (पृष्ठभूमि
में चाँद का आगमन, दोनों उसकी ओर देखते हुए बोलते हैं) बहुत-बहुत दूर चली गयी चंद्रिका । लगता है कि
जीवन का कोई मकसद ही नहीं बचा । कोई उत्साह ही नहीं रहा मानो हमारी जिंदगी में ।
(पत्नी के और करीब आकर) तुम्हे याद हैं न वे अपने पुराने गरीबी के दिन । हम
गरीब तो थे पर जीवन में उम्मीद तो बची थी । आज तो बस निराशा ही निराशा ही बाकी रह गयी । (दोनों एक-दूसरे के गले लगकर रोते हैं) हे ईश्वर ! हमें लौटा दो हमारे वे बीते हुए दिन
। (रोने की आवाज और तेज हो जाती है )
[मंच पर हल्का अंधेरा]
[समय की गूँजती हुई ध्वनि]
समय- मैं समय हूँ । सब
मुझे लौटाना चाहते हैं । पर मैं लौट नहीं सकता । लौटूँगा तो दुनिया खत्म हो जाएगी
। हाँ, पर हर कोई लौटा सकता
है मुझे । जैसे इस लकड़हारे ने लौटा लिया था अपनी यादों के सहारे । यादों पर बंदिश
तो नहीं है न ।
दृश्य 3
[बाँस के जंगल में लकड़हारे का घर]
(लकड़हारा और उसकी पत्नी घर में काम करते हुए
बातें कर रहे हैं)
लकड़हारा-अरे मेरा खाना जल्दी दो । जाऊँ जंगल में । और
काट के लाऊँ बाँस । तब तक तुम टोकरी बनाने की तैयारी करो ।
पत्नी-तुम्हारा ध्यान खाने पर ज्यादा और काम पर कम
रहता है । ये जो बाँस लाए हो न इनसे अच्छी टोकरी न बनेगी । आज अच्छे बाँस लाना । (खाना
देते हुए) लो,
और जल्दी लौट आना ।
अँधेरा होने से पहले ।
लकड़हारा-(जाते हुए) अच्छा बाबा । मेरी कुल्हाड़ी । (कुल्हाड़ी
लेते हुए) चलो अपना ध्यान रखना ।
पत्नी- क्या ध्यान रखूँ अकेले का ? घर में कोई बच्चा होता तो भी मन लगा रहता
(सुबकने लगती है)
लकड़हारा-अरे क्यों रो रही हो । भगवान पर भरोसा रखो एक
दिन सब ठीक होगा । (आँसू पोछते हुए बाहर निकलता है)
[बाँस का घना जंगल]
(लकड़हारा अपने खाने की पोटली रखकर बाँस काटना
शुरू कर देता है । जंगल में एक चमकता हुआ विशेष बाँस भी है)
लकड़हारा- (सोचते हुए) एक काटूँ, दो काटूँ कि तीन काटूँ । (आश्चर्य से ) अरे यह क्या
! यह तो बड़ा चमक रहा है । चलो इसे ही काट लेता हूँ ।
(उसे काटने का प्रयास तभी उसमें बच्चे के रोने की
आवाज)
लकड़हारा- अरे, अरे यह क्या !! यह तो छोटी बच्ची है ।(उसे हाथ में लेते
हुए) बड़ी प्यारी और मासूम लग रही है । (आश्चर्य से चारों ओर देखते हुए )
अरे किसकी बच्ची है यह? कौन छोड़ गया इस मासूम को यहाँ अकेले । कोई बोलता क्यों
नहीं ?
समय-मैं समय हूँ । अब यह बच्ची तुम्हारी है । यह
खुशी भी देगी और गम भी । जाओ इसे ले जाओ अपने साथ । मैं फिर आऊँगा तुम्हारे पास ।
और सुनो वो सोने के सिक्के लेना मत भूलना जो बच्ची के पास पड़े हैं ।
लकड़हारा- (चौंककर) अरे ! अरे ! कौन था ! कहाँ गया ! क्या कह रहा
था ? सोने के सिक्के ! (ढूँढता हुआ, और खुशी से झूमता हुआ) अहा । ये तो बहुत सारे हैं । इन्हें रख लेता हूँ
। (उन्हें रखता है)
(बच्ची की रोने की आवाज़)
लकड़हारा- न न न ! रोओ मत । चलो घर चलते हैं ।
(लकड़हारा अपना सामान और सोने के सिक्के समेटकर
घर की ओर चल देता है)
[लकड़हारे की पत्नी घर के काम में जुटी हुई है]
लकड़हारा- अरे सुनती हो । दरवाजा खोलो । देखो मैं क्या
लाया हूँ ?
पत्नी- अरे ! बाँस कहाँ गये ? एक भी बाँस नहीं लाए । अब हम क्या बेचेंगे और क्या खाएँगे ?
लकड़हारा- ( खुशी से ) अरे छोड़ो बाँस । देखो ! इसे देखो !
(बच्ची की रोने की आवाज़)
पत्नी- अरे ! ये तो बहुत प्यारी बच्ची है । किसकी है ?
लकड़हारा- तुम्हारी !!! मुझे बाँस के जंगल में मिली थी और
मैं इसे ले आया ।
पत्नी- तो मैं इसे अपनी बेटी की तरह पालूँगी । बहुत
सुंदर है न ।
लकड़हारा- सो तो है । और ये देखो सोने के सिक्के ।
पत्नी-अरे ! (थोड़ा संशय से) ये सिक्के तुमने
कहीं से चुराए तो नहीं ।
लकड़हारा- क्या बात करती हो ! ये तो मुझे वहीं मिले थे
जहाँ ये -------बच्ची मिली थी ।
पत्नी-हूँ । अब हम इसे कब तक बच्ची-बच्ची कहते रहेंगे ? इसका कोई नाम सोचना चाहिए ।
लकड़हारा- हाँ । है तो यह बिल्कुल चाँद जैसी ।
पत्नी-तो क्यों न चंद्रिका कहे ।
लकड़हारा-बहुत सुंदर । आज से हमारी बेटी 'चंद्रिका' कहलाएगी ।
पत्नी-जी बिल्कुल ।
लकड़हारा-तो इस मौके पर कुछ खुशी तो मनाओ ।
पत्नी-आओ सब आओ । मेरी खुशी मे झूमो, नाचो ।
[नृत्य-आजा नचले]
[पर्दा गिरता है]
दूसरा अंक
दृश्य 1
समय-मैं समय हूँ
। हर्ष और विषाद के बीच तेजी से चलता हूँ । चंद्रिका अभी बच्ची थी । पर अब वह बड़ी
हो गयी है -नवयौवना । उसके चाहने वाले भी अनेक हो गए हैं ।
[लकड़हारे के घर का द्वार]
पहला युवक- मैं चंद्रिका के बिना नहीं जी सकता । कितने दिन
हुए यहाँ आते पर आज तक उसे देख भी नहीं पाया ।
दूसरा युवक-(पहले युवक से टकराते हुए) क्या चंद्रिका यहीं रहती है ?
पहला युवक- हे ! युवक अंधे हो क्या ? देखकर नहीं चला जाता । और चंद्रिका ! चंद्रिका
तो सिर्फ मेरी है ।
दूसरा युवक- हाँ अंधा ही हो गया हूँ चंद्रिका के प्यार में ।
चंद्रिका सिर्फ और सिर्फ मेरी है । मैं एक बड़ा व्यापारी हूँ और पैसों से उसके लिए
दुनिया की हर खुशी खरीद सकता हूँ ।
पहला युवक-(हँसते हुए) हा हा हा हा । पैसा
तो कुछ नहीं । मैं चंद्रिका को साम्राज्य का वैभव दे सकता हूँ । इसलिये चले जाओ
यहाँ से ।
दूसरा युवक- नहीं । कभी नहीं । अब मैं चंद्रिका को लेकर ही जाऊँगा ।
पहला युवक- यह कभी नहीं हो सकता । वह सिर्फ मेरी है ।
दूसरा युवक- नहीं बिल्कुल नहीं ।
पहला युवक-तो सावधान !
(दोनों युवकों में तलवारबाजी)
(तीसरे युवक का प्रवेश)
तीसरा युवक- अरे ! आप दोनों क्यों लड़ रहे हैं ?
(दोनों साथ-साथ बोलते हैं) -आप बीच में मत पड़िये । हमारा फैसला हो जाने
दीजिये ।
तीसरा युवक-किस बात का फैसला ।
(दोनों साथ-साथ बोलते हैं)-यही कि चंद्रिका किसकी पत्नी बनेगी ?
तीसरा युवक- हे दोस्तों । इसका फैसला तो हो चुका है । वह
मेरी और केवल मेरी पत्नी बनेगी । मैं एक परमवीर योद्धा हूँ । चंद्रिका को सिर्फ
मेरी बाहों में चैन मिलेगा ।
(दोनों साथ-साथ आश्चर्य से बोलते हैं) हूँ !!!!!!!!!
तीसरा युवक- हूँ नहीं हाँ । अब तुम दोनों लड़ाई बंद करो और
अपना रास्ता नापो ।
(दोनों साथ-साथ बोलते हैं)-नहीं ।
(दोनों का तीसरे युवक पर हमला और तीनों में
युद्ध)
(लकड़हारे का प्रवेश)
लकड़हारा- अरे भाई आप लोग कौन हैं और आपस में क्यों लड़ रहे
हैं, मेरे दरवाजे पर ।
(तीनों एक साथ)- हम चंद्रिका के प्रेमी हैं । उसे अपनी पत्नी
बनाना चाहते हैं ।
लकड़हारा- वाह वाह! पर वो तो शादी ही नहीं करना
चाहती ।
(तीनों एक साथ -आश्चर्य से) हैं । नहीं आप झूठ बोल रहे हैं । उसे हमारे
सामने लाइए ।
लकड़हारा- अच्छा मैं कोशिश करता हूँ ।
दृश्य 2
(लकड़हारे का घर के अंदर प्रवेश । घर में
चंद्रिका अपनी माँ के साथ बैठी है । लकड़हारा दोनों को संबोधित करते हुए)
लकड़हारा- सुनती हो । बाहर तीन युवक चंद्रिका से शादी के
लिये आपस में लड़ रहे हैं ।
चंद्रिका-(चौंककर खिन्न होकर) पिता जी मैंने आप से कितनी बार कहा है कि मैं
शादी नहीं करना चाहती । मैं यहाँ से दूर चली जाऊँगी । मैं शादी नहीं कर सकती ।
लकड़हारा और पत्नी-(एक साथ) हाँ तू ठीक ही तो कह रही है शादी के बाद लड़की
दूर ही तो चली जाती है । अपनी ससुराल ।
चंद्रिका-नहीं वो बात नहीं है ।(आत्मगत) इन्हें
कैसे समझाऊँ !
लकड़हारा- बेटी एक बार उन युवकों से मिल तो ले ।
चंद्रिका-अच्छा आप कहते हैं तो मैं मिल लेती हूँ ।
[दरवाजे के बाहर तीनों युवक प्रतीक्षारत बैठे हैं, चंद्रिका और लकड़हारे का प्रवेश]
लकड़हारा- बेटी ये तीनों युवक आपसे शादी करना चाहते हैं ।
(तीनों युवकों का खड़ा होकर अभिवादन करना और
परिचय देना)
पहला युवक-मैं सामंत--- मेरा अभिवादन स्वीकार कीजिये ।
दूसरा युवक-मैं व्यवसायी----- आपको प्रणाम करता हूँ और आपसे
विवाह करना चाहता हूँ ।
(पहला और तीसरा युवक एक साथ)- हम भी ।
तीसरा युवक-मैं शूरवीर---हूँ। मेरा शादी का प्रस्ताव
स्वीकार कीजिये
चंद्रिका- पर, मैं तो विवाह करना ही नहीं चाहती ।
तीनों-(एक साथ, आश्चयँ से) क्यों देवि !
चंद्रिका- मैं नहीं बता सकती ।
तीनों-(एक साथ, रोष से) नहीं आप इंकार नहीं कर सकती । हमारे अंदर आखिर क्या कमी है
।
चंद्रिका- अच्छा तो आप तीनों के लिए मेरी एक-एक शर्त है ।
जो भी इसे पूरी करेगा मैं उससे शादी कर लूँगी ।
तीनों-(एक साथ, खुशी से) बिल्कुल बताइए ।
चंद्रिका-अच्छा तो सबसे पहले शूरवीर (शूरवीर
सावधान हो जाता है) तुम हिमालय के सोन-पर्वत से मेरे लिये हीरे की जड़ी एक तलवार लाकर दो । और तुम व्यापारी मुझे नागराज की मणि पेश करो । और सामंत तुम मेरे
लिये गंगोत्री की घाटी मे रहने वाले बाघ की मखमली खाल लेकर आओ जो आग में भी नहीं
जलती । और ध्यान रहे केवल दो हफ्तों में ।
तीनों-(एक साथ, सोच मे पड़कर ) अच्छा तो मैं लेकर आऊँगा ।
(मंच पर तीनों अलग-अलग जाकर खड़े हो जाते हैं और
एक एक कर अपनी बात करते हैं)
शूरवीर- हिमालय के सोन-पर्वत की तलवार। आह । वहाँ तो
बहुत से भालू , शेर,
चीते होंगें जो मुझे जिंदा ही चबा जाएँगें । न मुझे न चाहिये चंद्रिका कोई
और ढूँढ लूँगा ।
व्यापारी- नागराज की मणि, ओह उसमे तो बड़ा समय लगेगा । खोजता हूँ । पैसे से क्या नहीं
मिल सकता ।
सामंत- अरे मेरे लिये गंगोत्री तक जाना तो बहुत मुश्किल
है पर मैं अपने दासों को लगाता हूँ वे ही मुझे ऐसी बाघ की खाल लाकर दें ।
दृश्य 3
समय- मैं समय हूँ । मैंने प्रेम भी देखा है । राधा-कृष्ण, लैला-मजनूँ और
सिरी-फरहाद के । और,
प्रेम
के नाटक भी । तो आप भी देखिये । यह प्रेम का नाटक ।
[चंद्रिका का घर]
व्यापारी-चंद्रिका ! चंद्रिका ! कहाँ हो तुम । ये लो मैं
नागमणि ले आया हूँ ।
(चंद्रिका का पूरा परिवार उसके साथ बाहर आता है)
चंद्रिका-अरे ! आप तो बड़ी जल्दी ले आए !
व्यापारी-बहुत श्रम करना पड़ा । पर सच्चे प्यार के लिए तो
मुझे अपनी जान की भी परवाह नहीं ।
चंद्रिका-(मणि देखते हुए, संशय से) हूँह ! पर यह तो कुछ ----------?
(अचानक एक आदमी का प्रवेश)
आदमी-हाय मेरी कीमती मणि । (व्यपारी की ओर संकेत
करते हुए) इसने मेरी मणि ले ली और पैसे भी नहीं दिए ।
व्यापारी- अरे क्या बकते हो ?
आदमी-(चंद्रिका से हाथ जोड़ते हुए) देवी जी ! कृपया
मेरे पैसे दिलवा दीजिए ।
चंद्रिका-(गुस्से से व्यापारी को देखते हुए) अच्छा तो ये बात है !!
व्यापारी-(डरा हुआ) ये ये झूठ बोल रहा है ।
आदमी- नहीं देवी !
चंद्रिका-(गुस्से से व्यापारी को देखते हुए) दफा हो जाओ यहाँ से ।
(व्यापारी डर कर भागता है और बोलता है)
व्यापारी-चल प्यारे पतली गली से निकल ले ।
चंद्रिका-(आदमी को मणि लौटाते हुए) लो भैया अपनी मणि संभाल कर रखना ऐसे लफंगों से ।
(आदमी मणि लेकर जाता हुआ, तभी सामंत का प्रवेश)
सामंत-ओह ! मैं ठीक समय पर आ गया ।
चंद्रिका- फरमाइए !
सामंत- यह रहा गंगोत्री से लाया बाघ-चर्म । बड़ा खतरा उठाकर लाया हूँ ।
(अलग हटकर) प्रेम में जान की परवाह किसे होती है ।
WARNING-Bagh hunting is prohibited in India.
चंद्रिका- अच्छा तो आप गंगोत्री की दुर्गम घाटी तक गए और
मेरे लिए ये उपहार लेकर आए ।
सामंत- जी
चंद्रिका- पर, विश्वास तो नहीं होता । (अपने पिता से) पिता जी ! इस
बाघ चर्म की आग में जला कर परीक्षा कीजिए ।
लकड़हारा-(घर में जाते हुए) अच्छा बेटी ।
सामंत- (बगले झांकते हुए) आल तू अलाल तू आयी बला को टाल तू ।
लकड़हारा-(घर से तेजी से बाहर आते हुए) अरे बेटी ! वो तो जलकर राख हो गयी ।
सामंत- (बिना किसी की ओर देखे भागता है)आल तू अलाल तू आयी बला को टाल तू । ।
नौ-दो-ग्यारह ।
चंद्रिका-(माता-पिता से) देख लिया आपने । मैं ऐसे लोगों से कैसे शादी कर सकती हूँ ।
माता-पिता-(एक साथ) ठीक कहती हो बेटी, दुनिया भरोसे के काबिल नहीं रही ।
[मंच पर उदासी का संगीत और अंधेरा]
[पर्दा गिरता है]
तीसरा अंक
दृश्य1
(मंच पर हल्की रोशनी ।युवराज का महल अत्यंत
वैभवपूर्ण है । सारी सुख-सुविधाओं से सुसज्जित । एक उदासी भरा संगीत बज रहा है ।
सामने की खिड़की में पूर्णिमा का चाँद दमक रहा है । सम्राट अनमना-सा चहल-कदमी कर
रहा है । बीच-बीच में वह चाँद को लगाव और ईर्ष्या भरी निगाहों से देख लेता है ।
बार-बार अपनी तलवार को म्यान से निकालता और फिर उसमें रख लेता है । उसके चेहरे पर
गहरी उदासी है ।)
युवराज-दुनिया में अपने जैसा एक भी आदमी क्यों नहीं
मिलता । आह कितना अकेला हूँ मैं । सब कुछ तो है पर कोई ऐसा नहीं जिससे अपने मन को
साझा कर सकूँ । उफ्फ ये अकेलापन!
दासी-(प्रवेश करते हुए) युवराज प्रणाम ! आपके लिए एक
अच्छी खबर है । सुना है अपने नगर में एक अमीर लकड़हारे की बेटी बला की खूबसूरत है
और बुद्धिमान भी ।
उसने तीन दुष्ट युवकों
के विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिये हैं ।
युवराज-अच्छा ! सच कहती हो ?
दासी- जी युवराज । बिल्कुल चाँद जैसी सुंदर है और नाम
भी चंद्रिका है ।
युवराज- तो आप बात चलाए न ।
दासी- युवराज ! प्रेम में बिचौलिए की जरूरत न होनी
चाहिए । आप खुद ही ----
युवराज-समझा । प्रेम में मेरा राजकुमार होना बाधा नहीं
बनना चाहिए । इस वक्त मैं प्रेमी हूँ युवराज नहीं । मुझे स्वयं ही जाना होगा ।
सुना है युद्ध और प्रेम में सब जायज है पर युद्ध के लिए सेना चाहिये और प्रेम के
लिए एकांत । तो चलता हूँ ।
दृश्य 2
(लकड़हारे का संपन्न घर)
युवराज-कोई है ?
लकड़हारा-(भीतर से) कौन ?
युवराज-जी मैं ।
लकड़हारा-(बाहर आते हुए, युवराज को देखकर, चौंकते हुए) अरे! युवराज आप । इस गरीब के घर ।(अंदर सब को
सचेत करते हुए) अरे सुनो ! अपने युवराज आए हैं ।
(चंद्रिका और उसकी माँ दौड़ते हुए बाहर आते हैं)
युवराज-(चंद्रिका की ओर देखते हुए) आज मैं युवराज नहीं प्रेम का फकीर हूँ ।
लकड़हारा-(दुविधा में) क्या युवराज ? मैं समझा नहीं ।
युवराज- जी , मैं आपकी पुत्री चंद्रिका का हाथ माँगने आया हूँ ।
लकड़हारा-मेरा सौभाग्य युवराज ।
चंद्रिका-(ग्लानि से) नहीं युवराज । मैं किसी से भी शादी
नहीं कर सकती । आप सब मुझे माफ करें ।
(सभी चंद्रिका को कौतूहल से देखते हैं)
युवराज-क्यों ! क्या मैं आपको पसंद नहीं ? यदि ऐसा है तो कुमारी तुम मुक्त हो । मेरा कोई
दबाव मत मानों ।
चंद्रिका-नहीं युवराज । मैं सौभाग्यशाली हूँ कि आपने मुझे
अपने काबिल समझा । पर-------
युवराज-पर---पर क्या कुमारी ?
चंद्रिका- (उदासी से) अब मुझे आप सबको सच बताना
ही होगा ।
सब एक साथ-(आश्चर्य से)सच, कैसा सच
चंद्रिका- यही कि मैं चंद्रदेवी की बेटी हूँ । एक दिन
गुस्से में आकर उन्होनें मुझे देश-निकाला दे दिया था । मेरा वहाँ जाने का वक्त आ
गया है । परसों ही मुझे मेरी माँ लेने आएगी ।
युवराज-नहीं मैं ऐसा नहीं होने दूँगा । ओ चंद्रदेवी तुम
मुझसे मेरा प्रेम नहीं छीन सकती । मेरे सैनिक चंद्रिका की रातों-दिन सुरक्षा
करेंगे ।
चंद्रिका- आप और हम कुछ नहीं कर पाएँगे कुमार । वे बड़ी
ताकतवर हैं ।
लकड़हारा-(अपनी पत्नी के साथ) हे भगवान ! (दोनों
मंच पर गिर जाते हैं) हाय ये क्या हो गया ?
युवराज- मेरे सैनिको तुम जहाँ भी हो यहाँ आओ । सुन रहे
हो मुझे ।
(कुछ सैनिक चारों ओर से आते हैं ----दर्शकों के
बीच से भी)
सैनिक-जी युवराज क्या आदेश है?
युवराज- ये मेरी प्रेयसी चंद्रिका है । आपको जी-जान से
इसकी सुरक्षा करनी है।
सभी सैनिक-जो हुक्म युवराज ।
(सैनिक तेजी से अपनी तलवार चलाने लगते हैं और
चंद्रिका के चारों ओर घेरा बना लेते हैं -comic creation)
(युवराज, लकड़हारा और उसकी पत्नी मायूस खड़े रहते हैं)
[मंच पर अंधेरा]
दृश्य3
समय: मैं समय हूँ
। जीत-हार, जीवन और मौत
सब अपने हाथ में रखता हूँ । युवराज को अपनी बहादुरी का बड़ा अभिमान है, तो देखिए उसके साथ
क्या हुआ ।
(मंच पर पहरा देते सैनिक । दूर चंद्रदेवी का अपनी
सेना के साथ आने की गरजती हुई ध्वनि, पृष्ठभूमि में बादल और बिजली के कड़कने की आवाज, सभी चौकन्ने हो जाते हैं)
चंद्रिका- वो आ रहीं हैं ।
युवराज-सैनिकों सावधान ।।। वो आ रही है ।
सैनिक-(तलवार चलाते हुए) युवराज चिंता मत कीजिये । हम तैयार हैं ।
(चंद्रदेवी का प्रवेश, अपनी जादुई छड़ी से सभी सैनिकों को बेहोश कर
देना)
चंद्रदेवी-(युवराज से) हमें कोई नहीं रोक सकता युवराज । कोई भी नहीं ।
(युवराज शर्म से सिर झुका लेता है, चंद्रदेवी लकड़हारे से) आपने मेरी बेटी को बड़े प्यार से पाला और बड़ा
किया हम आपके आभारी हैं। कभी जरूरत हो तो याद किजियेगा ।(चंद्रदेवी चंद्रिका
से) चलो बेटी ।
(चंद्रिका मायूसी में युवराज को देखती है और अपने
थैले से एक छोटी शीशी निकालकर)
चंद्रिका-(अपने माता-पिता से) आप दोनों का बहुत-बहुत धन्यवाद । मैं आपको कभी
भूल न पाऊँगी । आपने मुझे पाला-पोसा और बडा किया । आभारी हूँ । (युवराज से मुखातिब होकर) युवराज लो यह अमृत है । इसे पीकर आप अमर हो
जाएँगे । ईश्वर ने चाहा तो हम एक दिन जरूर मिलेंगे ।
(चंद्रदेवी के साथ चंद्रिका का प्रस्थान, युवराज शीशी को उलट-पलट कर उदासी से देखता हुआ, गिर जाता है)
लकड़हारा और पत्नी- (रोते हुए) नहीं बेटी हमें छोड़कर मत जाओ, मत जाओ । (मत जाओ मत जाओ की अंतर्ध्वनि)
(उदास संगीत)
[मंच पर अंधेरा]
[पर्दा गिरता है]
(नृत्य)
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