उसे लालच कभी
लुभाता नहीं था। प्रलोभनों से उसे कभी प्यार नहीं हुआ। प्रशंसा उसे कभी पुचकार
नहीं पायी। व्यंग्य विचलित नहीं कर सका। हर उपहास को वह एक उपक्रम बना लेती।
उसे ट्रेक्रिंग का शौक था और पहाड़ों के शखिर उसे सहज ही आकर्षित करते थे। शतरंज
उसे पसंद था और उसकी हर बाजी वह जीतना चाहती थी। उसे बिछी हुई विसातें दिलचस्प
लगतीं और वह इन विसातों को विछाने में गजब का सुकून अनुभव करती। उसकी उम्र तेईस
साल थी और उसकी चर्चा तेरह साल के लड़कों से लेकर तिरसठ साल के बूढ़ों में एक समान
होती थी। सोहा सान्याल चितरंजन पार्क के जिस अपार्टमेंट में रहती थी वह अपने आप
ही प्रसिद्ध हो चला था। उसके पास की सड़क पर चाय की दुकान अब ज्यादा चलने लगी थी।
लोग सोहा की एक झलक पाने के लिए ही वहाँ आ जमते थे। राजकुमार चायवाला इससे खुश
रहता था। इसी चाय की दुकान से सोहा के सौन्दर्य की पहली समीक्षा निकली थी जिसमें
अधेड़ उम्र के एक व्यक्ति ने कहा था, ‘उसकी त्वचा में
पंजाब का पानी और दिमाग में बंगाल का जादू है।’
तन्मय सान्याल
और तान्या सेठी की बेटी सोहा का बचपन कलकत्ता में बीता था। माँ से पंजाबी और
हिंदी तथा पिता से बंगला और अंग्रेजी भाषाएँ उसे सहज ही विरासत में मिल गयी थीं।
पिता घर पर भी ज्यादातर अंग्रेजी में बात करते थे। अंग्रेजी के समाचार पत्रों और
पत्रिकाओं से घर पटा रहता था। पिता तन्मय सान्याल राजा राम मोहन राय के आदर्शों
में पनाह लेते थे।पश्चिम के जीवन-दर्शन और अंग्रेजी भाषा के प्रति उनका बड़ा लगाव
था। बांगला रचनाकारों की भी अंग्रेजी पुस्तकें ही घर पर आती थीं। बंगाल का
भद्रलोक और अंग्रेजी आभिजात्य का अनूठा संयोजन उन्होंने कर लिया था। तान्या से
प्रेम विवाह करने के बावजूद वे एक वर्चस्व की भूमिका में थे। तान्या सेठी ने
विवाह के बाद आम भारतीय महिला की तरह उनके वर्चस्व को स्वीकार कर लिया था और इस
तरह घर चल निकला था। सोहा पर अपने पिता की गहरी छाप थी । माँ से रूप सौन्दर्य और पिता से समाज में
वर्चस्व पाने की चाह उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन चुके थे। इसलिए अपने
आसपास का माहौल उसे सतही, तुच्छ और अधूरा और आभजित्यहीन लगता। उसमें एक अहं था
जो अक्सर लोगों की उपेक्षा कर जाया करता था। इसलिए उसके करीब कुछ गिने-चुने लोग
थे बाकी फसानों से काम चला लेते थे क्योंकि उसको अनदेखा कर देने का संयम और विवेक
आम आदमी के पास न था। राजकुमार उर्फ राजू चायवाले की दुकान अब इन्हीं फसानों में
उलझी रहती थी। लोग अब राजू भैया की दुकान पर यूँ ही चाय पीने आ जाया करते थे।
अफसानों को प्रमाण तो चाहिए ही इसलिए राजू झूठी-सच्ची गवाही देता था। सोहा घर से
कहाँ जाती है, कौन उससे मिलने आता है इस बारे में वह कुछ दबे स्वर में हाँ में
हाँ मिला देता था। अफसानेबाजों ने उसके धंधे को तरक्की जो दे दी थी।
राजू चायवाले
की दुकान से पेड़ों से घिरा सोहा का अपार्टमेंट कुछ धुंधला-धुंधला सा दि खाई देता
था। इसलिए उसकी चाय की दुकान तमाम उम्रों के लिए एक अडडा बन गयी थी। कशिोर जवान,
बूढ़े सबका। उम्र के भीतर भी उम्र होती है। इसलिए कशिोर जब निराश होते हैं तो वे
बूढ़े हो जाते हैं और बूढों में जब आशा जगती है तो वे जवान हो उठते हैं। जब कभी
सोहा की नजरें चलते हुए अनायास ही किसी बूढ़े की ओर उठ जाती तो अचानक उसका कैशोर्य
सक्रिय हो जाता। राजू चाय वाले की दुकान पर उम्र के भीतर उम्र की आवाजाही का यह
खेल निरंतर चलता रहता और उसका मुनाफा दो गुना हो चला था। सोहा की उम्र तेइस की थी
लेकिन वह हमेशा अपने से दस-पन्द्रह साल बड़े लोगों से ही बात करना पसंद करती थी।
इसी उम्र के लोगों से उसे कुछ बौद्धिक तोष मिलता था। अपने समव्यस्कों की बातों
को वह बचकाना मानती और उसमें लिजलिजापन ज्यादा होता। उसकी चाहत की दिशा ऊर्ध्वगामी
थी।
लेडी श्रीराम
कॉलेज उसके घर से अधिक दूर न था। इसलिए अपनी कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहती।
पत्रकारिता एवं जनसंचार पाठ्यक्रम उसके लिए यूँ ही आकर्षण का वषिय नहीं थे। घर में
बचपन से ही उसने अपने पिता को अखबारों के बीच पाया था। सुबह की चाय और अखबार पिता
की नियमित जीवन शैली का हिस्सा थे। उनकी अधिकांश बातें भी खबरों और समाचार पत्रों
के इर्द-गिर्द घूमती रहती थीं। अखबारों के बीच उसका बचपन पला था और अब युवावस्था
में इनके लिए एक अजीब आकर्षण था। अंग्रेजी, बांग्ला और हिंदी के अखबार उसका
नशा-सा बन चुके थे। नींद टूटने के साथ उसे अखबार चाहिए होता था। और, इन सबके बीच
उसने न जाने कब पत्रकार बनने का सपना पाल लिया था। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के
प्रति अटूट आकर्षण ने उसके जीवन के शेष सभी सपनों को पृष्ठभूमि में डाल दिया था।
वह जुलाई
2009 की सुबह थी। थोड़ी उमस के साथ हवा के झोके चल रहे थे। बादल बड़ी कंजूसी से
कभी-कभी कुछ फुहारें जमीन पर छोड़ देते जो राहत का एहसास लेकर आतीं। सोहा आज बड़ी
खुश थी। उसका अकादमिक सत्र आरंभ हो रहा था। आज ही कोई जाने-माने पत्रकार विशेष व्याख्यान
के लिए आमंत्रित थे। उसमें नए और पढ़े-लिखे लोगों से मिलने की बड़ी आतुरता रहती थी।
ऐसे मौकों पर वह चहक उठती थी। ऐसे अवसरों पर वह थोड़ा समय अपने मेक-अप पर भी देती और
सचेत होकर अपनी ड्रेस का चयन करती। ऐसे मौके पर उसकी कुछ ‘एथनिक’ और प्रगतिशील-सा
दखिने की कोशशि होती। आज भी वह इसी जद्दोजहद में थी कि क्या-क्या पहना जाय और
कैसे वह प्रगतिशीलता लायी जाय।
जारी--------
1 टिप्पणी:
उम्र के भीतर भी उम्र होती है ।
वाकई ।
द स्टेशन की पूरी प्रस्तुति का इंतजार है सर ।
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