आज, बहुत दिन बाद
बादलों से सघन संवाद हुआ
वे गरजते रहे
मैं सुनता रहा
वे बरसते रहे
मैं भीगता रहा
मेरा
उनसे पुराना रिश्ता है
वे नाचते रहे
सर के ऊपर
मैं जब-जब निकला बाहर
बादलों से
एक और भी रिश्ता है
उन्होंने गढ़े हैं
मेरे सारे आकार
कल्पनाएँ
कभी भालू की आकृति
तो
कभी हाथी की
कभी तैरते हुए घडि़याल और मगरमच्छ
धवल दौड़ते अश्व
फिर धुंधलके में
इस संसार से चले गए
पिता का बिंब
रचते हैं बादल
ये बादल
जिन्हें देखा था
कालिदास ने
तुलसी, निराला, नागार्जुन ने
और
घन आनंद ने भी
आज
बादलों के संग
बूँदें आयीं
तो
न जाने कितने संदेश मिले
पूर्वजों के।
1 टिप्पणी:
द्विवेदी जी बहुत गहरे भाव झिपा रखे हैं आपने अपनी इस कविता में, बहुत उमदा।इन बंदो का नया अर्थ समझा गए।
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