24 अक्तूबर, 2008

पारिजात

पारिजात


 


पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, भीमराव अंबेडकर कॉलेज, दिल्‍ली विश्विद्यालय


 

             पाक्षिक अंक: 2 वर्ष: 1

संपादक-दीपिका शर्मा सहसंपादक-जतिन,ललित परामर्श-डॉ0 राम प्रकाश द्विवेदी


 

15-31 अक्टूबर,2008 नर्इ दिल्‍ली


 

संपादकीय

अब तक तो आप हमारे पारिजात से भली भॉंति परि‍चित हो गए हैं। चलिए पिछली बार तो आपने इस ज्ञान के समुद्र में गोते लगाए थे, और अब बारी हैं इस ज्ञान के समुद्र में तैरने की अर्थात कुछ गहराई में जाने की। इस बार आपको हमारी इस पत्रिका में पिछली बार से कुछ अच्‍छा पढने को मिलेगा। ऐसा नही कि हमारे पिछले संस्‍करण में कुछ कमी थी, पर हम लगातार प्रयास करते रहेंगे कि हम हर बार आपको बेहतर से बेहतरीन करके दिखाए।

इन पंद्रह दिनों के जो ज्‍वलंत विषय हैं हमारा प्रयास रहेगा कि हम उस पर प्रकाश डाले। सविता के लेख लहरों में डूबी जिंदगी से आपको बिहार की बाढ की वास्‍तविकता का ज्ञान होगा। जन्‍माष्‍टमी पर्व के महत्‍त्‍व के बारे में आप जानेंगे भारती के लेख द्वारा। इस बार अभिषेक के लेख का मुद्दा रहेगा जाना चौदह दशकों के गआहों का, और ललित लिख रहे हैं मँहगाई के विषय पर। इन सबके साथ आप पढ सकते हैं जतिन की स्‍वरचित कविता जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं? यहॉं हर किसी की कृति के बारे में बता पाना संभव नहीं हैं। हॉं पर यह जरूर कहा जा सकता हैं कि हर विद्यार्थी ने अपनी ओर से श्रेष्‍ठ लिखने की कोशिश की हैं। इसलिए हम चाहते हैं कि आप इस पत्रिका को पढकर हमारा उत्‍साह वर्धन करें।

यदि आपके कुछ सुझाव या शिकायतें हो तो आप हमे अवश्‍य सूचित करें। आपके सुझाव ही नही वरन् शिकायतो का भी हमे इंतजार रहेगा। आइए नयी बातों और विचारों के साथ पारिजात के एक और अंक में शिरकत करने के लिए।


 

दीपिका शर्मा

बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष


हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार


 

जन्‍माष्‍टमी

जन्‍माष्‍टमी का पर्व हिंदुओं का एक महत्‍वपूर्ण पर्व हैं। यह पर्व भगवान श्रीकृष्‍ण के जन्‍मदिवस के रूप में भादों मास(जुलाई- अगस्‍त) के कृष्‍णपक्ष को अष्‍टमी के दिन मनाया जाता हैं। उन दिनों ब्रज में अत्‍याचारी कंस का राज्‍य था। उसको ज्‍योतिषियों ने बताया था कि उसकी मृत्‍यु उसके भांजे कृष्‍ण के हाथों होगी। अत: उसने अपनी बहन देवकी व बहनोई वासुदेव को मथुरा के कारागार में डाल दिया। वहीं श्रीकृष्‍ण का जन्‍म अर्धरात्रि को हुआ। उनका बचपन नंद बाबा के यहॉं गोकुल में बीता। कृष्‍ण हमेशा से युवाओं के दिल के करीब रहे हैं। आज भी दूसरे भगवानों की अपेक्षा कृष्‍ण युवाओं को अधिक लुभाते हैं।

कृष्‍ण जी ने अत्‍याचारी कंस का वध कर महाराजा उग्रसेन को गद्दी में बिठाया। पीडित और सतृप्‍त जनता को सुख शांति प्रदान की। श्रीकृष्‍ण महान तत्‍वेता, दार्शनिक निपुन राजनितिज्ञ एवं मानवता के रक्षक थे। उनका जीवन दर्शन कर्म प्रधान हैं जो श्रीमद्भागवत गीता में संग्रहित हैं। जन्‍माष्‍टमी के दिन भर व्रत रखते हैं। शाम को पूजा पाठ करके, मंदिरो में श्रीकृष्‍ण के दर्शन करके रात्रि के ठीक बारह बजे उनके जन्‍म के पश्‍चात भोजन करते हैं।

कृष्‍ण की उपासना के लिए मंदिरों में उमडी युवाओं की भीड कृष्‍ण के प्रति उनके लगाव को दर्शाता हैं। युवाओं का मानना हैं कि कृष्‍ण की ओर उनके झुकाव की सबसे बडी वजह कृष्‍ण का जीवन को लेकर प्रैकटिकल होना हैं। कर्म की प्रधानता और फल की चिंता ना करने का कृष्‍ण का उपदेश युवाओं को शांति देता हैं, जिसके बल पर वो तमाम असफलताओं से उबरने की प्रेरणा पाता हैं।

युवाओं को जमीन से जुडने का कृष्‍ण का उपदेश भी खासा प्रभावित करता हैं। इस दिन लोग श्रीकृष्‍ण के जीवन से प्रेरणा लेकर अपना जीवन सफल बनाते हैं। इसी कारण जन्‍माष्‍टमी का ब‍हुत धार्मिक महत्‍व हैं।


भारती

बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष


हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार


 


 

लहरों में डूबी जिंदगी

बिहार का शोक कही जाने वाली कोसी नदी ने आखिरकार अपने विकराल रूप के दर्शन हमे करा ही दिये हैं। कहते हैं जब इंसान अपने राह से भटक जाता हैं तो उसका भविष्‍य बर्बादि की ओर अग्रसर हो जाता हैं, और इस पंक्ति को साक्षात किया कोसी नदी द्वारा रास्‍ता बदले जाने के बाद के परिणामों ने। अब बारी हमारी हैं कि जिस तरह से गलत राह पर गए हुए इंसान को सही रास्‍ते पर लाया जाता हैं, उसी तरह कोसी नदी को उसकी राह पर कैसे लाया जाए।

इसके रास्‍ते को सुधारने के लिए हमारे प्रशासन ने बहुत से कदम उठाए हैं। क्‍या ये कदम उन लोगों को कुछ राहत की सॉंसे दे पायेंगे। हॉं ऐसा तो बिल्‍कुल भी नही होगा जब राहत शिवीरों का उदघाटन करने के लिए हमारे नेता लोगों से घंटों इंतजार ना करवाये। वे लोग तो पहले से ही इतने परेशान हैं और अभी तक उस सदमें से उभर भी नही पाये हैं। क्‍या यह राहत उनके दर्द को कम कर पाएगी। जिन्‍होने इस त्रासदी में अपना परिवार ही खो दिया हैं। क्‍या वो उन पलों को भूल पायेंगे जिन्‍होने उनकी जिंदगी तबाह कर दी हो। इस बर्बादी की जड़ पानी को हम अमृत की संज्ञा देते हैं।

लेकिन किसी ने सच ही कहा हैं कि किसी चीज की अति भी अच्‍छी नही होती। क्‍योंकि इस बर्बादी का कारण हैं कि आज के युग में प्रगति के चक्‍कर में मनुष्‍य ने पर्यावरण संतुलन को बिगाड कर रख दिया हैं। और इसका परिणाम इस त्रासदी के रूप में हमारे सामने हैं। लेकिन कम से कम अब तो हमे इस बर्बादी के बाद सुधर जाना चाहिए। अगर हमने ऐसा नही किया तो हमारे अंत को कोई रोक नही सकता।

सविता कुमारी

बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष


हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार


चैम्पियंस ट्रॉफी का स्‍थगन

अगले माह से शुरू होने वाली चैम्पियंस ट्राफी का स्‍थगित हो जाना क्रिकेट प्रेमियों के लिए बुरा हुआ। जब से चैम्पियंस ट्राफी की बागडोर पाकिस्‍तान के हाथों में आई तभी से चैम्पियंस ट्राफी पर खतरे के बादल मंडराने लगे। चैम्पियंस ट्राफी का बहिष्‍कार करने पाली पहली टीम दक्षिण अ‍फ्रीका थी। जिसने अपनी राष्‍ट्रीय टीम को पाकिस्‍तान में खेलने की मंजूरी नही दी। इसके बाद आस्‍ट्रेलिया, न्‍यूजीलैंड

और इंग्‍लैंड आदि देशों के क्रिकेट बोर्डों ने भी अपनी-अपनी टीमों को पाकिस्‍तान में खेलने से रोक दिया।


 

खेल के दृष्टिकोण से यह पाकिस्‍तान के साथ अच्‍छा नही हुआ। आस्‍ट्रेलिया की तीन सदस्‍यीय जॉंच कमेटी पाकिस्‍तान में सुरक्षा जॉंच के लिए आती हैं और जॉंच से संतुष्‍ट हो जाती हैं। लेकिन कुछ दिनों बाद वो अपने बयान से मुकर जाती हैं। ऐसा नही हैं कि पाकिस्‍तान पहली बार किसी श्रंखला की मेजबानी कर रहा हैं। अभी हाल ही में पाकिस्‍तान ने जिम्‍बाबे व बांगला देश की टीमों की मेजबानी की थी। पाकिस्‍तान ऐशिया कप की भी सफल मेजबानी कर चुका हैं। यद्यपि भारत का पाकिस्‍तान को पूर्ण समर्थन प्राप्‍त था,लेकिन यह चैम्पियंस ट्राफी की मेजबानी के लिए नाकाफी था। चैम्पियंस ट्राफी के स्‍थगन से पाकिस्‍तान क्रिकेट र्बोड को जो नुकसान हुआ हैं उसकी भरपाई शायद ही कोई कर पाए।

यद्यपि पाकिस्‍तान में समय-समय पर आतंकी हमले व बम धमाके होते रहे हैं, फिर भी पाकिस्‍तान ने अपने देश में आई दूसरी टीमों को नुकसान नहीं पहुँचने दिया हैं। यह अलग बात हैं कि पाकिस्‍तान में स्‍थगित चैम्पियंस ट्राफी का अधिकतर देशों ने स्‍वागत किया हैं।


रवि

बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष


हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार


 

जाना चौदह दशकों के गवाह का

देश के सबसे बुजुर्ग व्‍यक्ति के निधन का समाचार गम के साथ खुशी भी लेकर आया। गम इस बात का, कि आजादी से पहले के 60-70 सालों के इतिहास का चश्‍मदीद गवाह हमारे बीच नही रहे। खुशी इस बात की,कि रोशनी खो चुकी ऑंखों, सुनना बंद कर चुके कानों और सहारे के लिए मोहताज हो चुके शरीर से उन्‍हे मुक्ति मिल गई।


 

राजस्‍थान के अलवर जिले के राजगढ़ में बीस मई 1870 को जन्‍में हबीब मियॉं ने जयपुर राज घरानों के बैंड-दल में नौकरी की और सन् 1938 में सेवानिवृत हुए। वे अपने परिवार की छ: पीढि़यों को देख चुके थे। सम्‍भवत: हबीब मियॉं पेंशन पाने वाले एकमात्र व्‍यक्ति थे, जिन्‍होने लगातार सत्‍तर वर्षों तक पेंशन सेवा का लाभ उठाया।


 

सन् 1905 में लिम्‍का बुक ऑफ वर्ल्‍ड रिकार्डस ने उन्‍हे विश्‍व के सबसे बुर्जुग व्‍यक्ति की श्रेणी में शामिल किया था। तब उनकी उम्र 136 वर्ष थी। अपनी राजस्‍थान यात्रा के दौरान भूतपूर्व राष्‍ट्रपति डॉ ए.पी.जे अब्‍दुल कलाम भी हबीब मियॉं से मिल चुके थे।


 

आधुनिक चिकित्‍सा विज्ञान जहॉं मानव को दीर्घ जीवी बनाने के लिए नई नई खोजों में लगे हुए हैं वही आधुनिक सभ्‍यता में युवाओं में पनपती हताशा, उन्‍हे जीवन के वास्‍तविक आनंद से दूर ले जाती हैं। और वे आत्‍महत्‍या से भी नही चूकते। ऐसे में जिंदगी को ज्‍यादा से ज्‍यादा जीने की हबीब मियॉं की जिजीविषवा हमे जीवन के संघर्षों को अपनाते हुए बढ़ते रहने की प्रेरणा देती हैं।

अभिषेक चतुर्वेदी

बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष


हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार

जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं


 

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि-

हम दुनिया में क्‍यों आये

अपने साथ ऐसा क्‍या लायें

जिसके लिए घुट-घुट कर जीते हैं

दिन रात कडवा घूँट पीते हैं

क्‍या दुनिया में आना जरूरी हैं

अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं।


 

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि,

बच्‍चे पैदा क्‍यों किये जाते हैं,

पैदा होते ही क्‍यों छोड दिये जाते हैं,

मॉं की गोद बच्‍चे को क्‍यों नहीं मिलती

ये बात उसे दिन रात क्‍यों खलती

क्‍या पैदा होना जरूरी हैं

अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं।


 

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि,

हम सपने क्‍यों देखते हैं

सपनों से हमारा क्‍या रिश्‍ता हैं

जिन्‍हे देख आदमी अंदर ही अंदर पिसता हैं

क्‍या सपने देखना जरूरी हैं

अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं।


 

कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि,

इंसान-इंसान के पीछे क्‍यों पडा हैं

जिसे समझों अपना पही छुरा लिए खडा हैं

अपने पन की नौटंकी क्‍यों करता हैं इंसान

इंसानियत का कत्‍ल खुद करता हैं इंसान

क्‍या इंसानिसत जरूरी हैं

अगर हैं,तो फिर जिंदगी क्‍यों अधूरी हैं।


 

(इस सोच का अभी अंत नही हैं)


( क्रमश: )

जतिन

बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष


हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार

बाढ़ का प्रकोप

हर वर्ष आने वाली बाढ, उत्तर भारत के लिए अभिशाप बन चुकी हैं। हर वर्ष इस बाढ से लाखों लोगों को बेघर होना पडता हैं। हजारों हैक्टेयर में फैली फसले नष्‍ट हो जाती हैं। बाढ से घिर हजारों लोगों और पशुओं की मौत अन्‍न और पेयजल के अभाव से हो जाती हैं।

बाढ प्रभावित राज्‍यों की स्थिती पर गौर करे तो पंजाब में सतलुज नदी के तटबंधों में पन्‍द्रह जगह दरार पड़ने के कारण सौ से अधिक गॉंव डूब गए। हजारों लोगों को विस्थापित होना पडा हैं। सरकारी तंत्र के नकोरपन के कारण,ग्रामीणों तक सही वक्‍त पर बॉंध के जलस्‍तर की सूचनाऍं नही पहुँच पाती जिस कारण जान माल की क्षति दर बढ़ जाती हैं।

अपनी विनाश लीला के कारण सुनामी और प्रलय का संबोधन पा चुकी बिहार की बाढ ने देश को झिंझोड कर रख दिया हैं। इस बाढ ने आठ जिलों के 417 गॉंवों की लगभग 40 लाख आबादी को बेघर कर,दान-दाने के लिए मोहताज कर दिया। पेयजल की किल्‍लत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता हैं,कि लोग दूषित पानी को चादरों से छान कर पी रहे हैं। नावों और स्‍टीमरों की कमी के कारण बाढ से क्षोभित लोगों को सुरक्षित स्‍थानों तक ले जाने में दिक्‍कतें आ रही हैं।

सरकारी लापरवाही कहे या संसाधनों की कमी के कारण हजारों लोग तडप-तडप कर दम तोड देते हैं। यदि सरकार इस स्थिती में तकनीकी साजो़सामान की खरीदारी भी करती हैं, तो बाढ के लौटने से पहले आपूर्ति नही हो पाती हैं। उचित गुणवत्‍ता या रखरखाव के भाव में तकनीकी साजो़सामान इस लायक नही रहता कि अगली बाढ में इस्‍तेमाल किया जा सके। हेलिकाप्‍टरों द्वारा गिरायी जा रही खाघ एवं राहत-सामग्री बाढ से बेहाल लोगों के लिए उँट के मुँह में जीरा सिद्व हो रही हैं। दशकों से उत्‍तर-बिहार की जनता पर बाढ का कहर बरपा रही कोसी नदी इस वर्ष सभी सीमाऍं लांघ चुकी हैं। इसका प्रमुख कारण कोसी नदी द्वारा अपने मार्ग में किया गया बडा परिवर्तन(करीब 100 किलोमीटर हैं। अररिया,पूर्णिया,मधेपुरा,कटिहार और सुपौल आदि जिलों का लगभग 69300 भू-भाग बाढ की चपेट में हैं।

आज आवश्‍यकताहैं सरकार द्वारा अपनी कार्यप्रणाली के उचित मूल्‍यांकन की। आवश्‍यकताहैं नेताओं, राजनीतिक दलों और अफसरों द्वारा अपने स्‍वार्थों को त्‍यागने और मानवीय संवेदनाओं को समझने की। आवश्‍यकताहैं पूर्व में हुई भूलों से सबक लेकर समस्‍याओं से निपटने को आतुर रहने वाले कर्मठ योगियों की। तभी एक और कोसी को कहर बरपाने से रोका जा सकेगा।


 


 

अभिषेक चतुर्वेदी

बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष


हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार


 


दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय: डूसू चुनाव 2008


 

एक ओर जहॉं देश के बडे़-बडे़ विश्विद्यालयों में एक अरसे से छात्र संघ चुनाव नही हुए हैं। वहीं देश के दो बडे केन्द्रीय विश्‍वविद्यालय नियमित रूप से छात्र संघ चुनाव करवा रहे हैं। ये दोनों विश्‍वविद्यालय हैं डीयू तथा जेएनयू। आने वाले महीने में डूसू चुनाव होने वाले हैं। डूसू चुनाव को देखते हुए पिछले वर्ष सर्वोच्‍च न्यायालय ने लिंगदोह समिति की सिफारिशों को लागू किया। सिफारिश में चुनाव की सीमा पॉंच हजार रूपये निर्धारित की गई। चुनाव खर्च मात्र पॉंच हजार तक सीमित किए जाने को लेकर छात्र संघों में जबरदस्‍त असंतोष व्‍याप्‍त हैं।


 

वैसे डूसू चुनाव का इतिहास देखा जाए तो मुख्‍य मुकाबला एनएसयुआई तथा एबीवीपी के बीच रहा हैं। कुछ दल जैसे एसएफआई एनएसओआई तथा एआईएसए संघर्ष को त्रिकोणात्‍मक बनाने में लगे हैं। परंतु पिछले वर्षो की तरह इस वर्ष भी मुख्‍य मुकाबला एनएसयुआई और एबीवीपी के बीच नज़र आ रहा हैं।


 

एक ओर जहॉं एनएसयुआई एवं एबीवीपी ने चुनावी पर्चो पर हजारों रूपये खर्च किए हैं। वही वामवपंथी छात्र संगठन जैसे एसएफआई और एआईएसए ने लिंगदोह समिती की सिफरि‍शों को ध्‍यान में रखते हुए कम से कम धन खर्च किया हैं। इब यह भी देखना लाजमी होगा कि डूसू चुनाव लिंगदोह समिती की सिफारिशों की किस हद तक अवहेलना करता हैं।


 

डूसू चुनाव में खर्च की सीमा को तय करने के लिए विश्‍वविद्याल को आदर्श प्रारूप बनाना चाहिए,जिससे छात्रसंघ में व्‍याप्‍त असंतोष को दूर किया जा सके। साथ ही चुनाव के दौरान कैपंस में कडी निगरानी रखनी चाहिए जिससे कि कोई हिंसक वारदात न हो। अगर छात्रसंघ एवं विश्‍वविद्यालय प्रशासन इस दिशा में पहल करे तो एक आदर्श लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था कायम की जा सकती हैं।

निरंजन कुमार

बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष


हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार

भार‍तीय लोकतंत्र

गत अनेक वर्षों में भारत की अच्‍छाइयों पर अने‍क सर्वे हुए हैं। परंतु आजादी के साठ वर्षों के बाद भी भारत की स्थिति दयनीय हैं। पिछले इन वर्षों में भारत में राजनीतिक सत्‍ता का दबदबा कायम हैं। परंतु क्‍या इस निरंतरता में आम आदमी की स्थिती भी मजबूत एवं महत्‍वपूर्ण हैं। भारत की संसद में सरकार द्वारा दस बात को स्‍वीकरा गया हैं कि भारत में 74-77 प्रतिशत जनता का दैनिक खर्च मात्र बीस रूपये ही हैं।

यह एक त्रासदी ही हैं कि जैसे भारतीय व्‍यवस्‍था अनुभवी होती जा रही हैं वैसे-वैसे वह आम जनता से कटती जा रही हैं। हर स्‍तर के चुनावों में मोलभाव हो रहा हैं। लोकसभा में नोट के बदले वोट कांड इसी का एक जीवंत उदाहरण हैं। भारत में आतंकवाद एक जटिल और स्‍थायी समस्‍या बन गया हैं, परंतु भारत सरकार कोई भी ठोस कदम नही उठा पा रही हैं। भारत का कोई भी शहर सुरक्षित नही हैं। अगर भारतीय नागरिक जिम्मेदार हो जाएं तो संसद में कोई भी आपराधिक पृष्ठभूमि का व्यक्ति नही पहुँच पाएगा।

बबली

बी.ए.(आनर्स) प्रथम वर्ष


हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार


 

कोई टिप्पणी नहीं: