सिने समीक्षा(Film Review)के कुछ और पहलू
उपन्यास को राष्ट्रीय रूपक कहा जाता रहा है। लेकिन, सही नजरिए से देखें तो अब फिल्में किसी देश-समाज का प्रतिबिंब अधिक पेश करती हैं। सभ्यताओं के संघर्ष को फिल्म में निहित कोडों के जरिए बखूबी पढ़ा जा सकता है। इस क्लास को भी मैं अन्य कक्षओं की तरह ही 1000 शब्दों में सीमित रखूँगा। हाँ यह जरूर है कि यहाँ पहले वाली क्लास से थोड़ा आगे बढ़ाते हुए आज हम फिल्म के रूप और प्रकार पर ही अधिक केंद्रित रहेंगे।
तो आइए शुरुआत करें-
फिल्म की श्रेणी-
मोटे तौर फिल्में दो वर्गों में बाँटी जाती हैं:
(1) मुख्यधारा अथवा लोकप्रिय सिनेमा(Popular or Mainstream Cinema)
(2) समानांतर अथवा नया सिनेमा(Parallel or New Wave Cinema)
(अनेक फिल्मकार इस विभाजन का विरोध करते हैं, पर आम आदमी को समझाने के लिए आप इसकी चर्चा करें )
लोकप्रिय सिनेमा आम फार्मूले पर चलता है। गंभीरता के निषेध की बात से मैं पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। इनकी संदेश रचना उतनी ही मूल्यवान हो सकती है जितनी अन्य किसी फिल्मों की। फिर भी, दर्शकों को रिझाने-लुभाने के लिए मौलिक अवधारणाओं के बावजूद लोकप्रियता के अपने नुस्खे होते हैं, जिन्हें इन फिल्मों में इस्तेमाल किया जाता है।‘देवदास’ पर बनी फिल्में अपने जेहन में रखिए जो समय के साथ बदलती रहीं और नए-नए फार्मूले ढूढ़ती रहीं। लोकप्रिय फिल्म की समीक्षा करते हुए आप संभावित दर्शक को उस फिल्म के स्टारडम, आइटम सांग, रंग-रंगीली ड्रेस, पल-पल परिवर्त्तित भूदृश्य और कहानी के भावुक प्रसंगों की विशेषताएँ बताएँ।
भुवन शोम(1969) को हिंदी समानांतर सिनेमा की पहली कृति कहा जाता है। फिल्म विधा का परिपाक इस तरह की फिल्मों में ही दीखता है। सत्यजित रे इसके मास्टर थे। इसप्रकार कि फिल्म तक भी दर्शक पहुँचे इसके लिए आप यह करें कि सीधे-सीधे कहें कि ऐसी फिल्में कम बनती हैं और इन्हें देखना चाहिए। फिल्म की गूढ़ समस्या को आसान शब्दों में बताइए। यह कहिए कि फिल्म रोजमर्रा के दृश्यों-एहसासों से बनी है। वास्तविकता की ओर लोगों का ध्यान खीचिए। हो सकता कि फिल्म का कोई हकीकी आधार भी हो। जैसे ‘बैंडिट क्वीन’का।तो इसका थोड़ा-सा विस्तार कर दीजिए।अगर कुछ दर्शक जुटा पाए तो यह सिने अभिरुचि के विकास में आपका बड़ा योगदान होगा।
फिलहाल हम लोकप्रिय फिल्मों तक ही खुद को महदूद रखेंगे।
फिल्म की विधाएँ-
फिल्म के कई रूप होते हैं।रूप निर्धारण मूलत: दो आधारों पर हो सकता है।
(1) विषय-वस्तु (Content)
(2) टेकनीक (Technique)
विषय-वस्तु के आधार पर फिल्मों की निम्न लिखित विधाएँ देखने को मिलती हैं-
इन्हें ही मूलत: फीचर फिल्मों के विविध रूप कहते हैं। हम आज इनकी ही चर्चा करेंगे और जानेगे कि इन रूपों का फिल्म समीक्षा से क्या लेना-देना है।
रोमांस
कॉमेडी
ड्रामा
मेलोड्रामा
म्यूजि़कल्स
हॉरर
पीरियड सिनेमा
एक्शन
थ्रिलर
सस्पेंस
विज्ञान फंतासी आदि
जबकि टेकनीक के आधार पर हम फिल्मों के निम्न रूप देखते हैं।
फीचर फिल्म
वृत्तचित्र
वृत्तनाट्य
विज्ञापन
एनीमेशन आदि
यहाँ हम , जैसाकि पहले कहा गया है केवल फीचर फिल्म के विभिन्न प्रकारों की समीक्षा
पर ध्यान देंगे। समीक्षा करते हुए आपको यह बता देना चाहिए कि फिल्म किस विधा की है। इससे दर्शक उत्साह से फिल्म और समीक्षा दोनो की ओर मुखातिब होगा।
ये रोमांस क्या है अगर आप पहले ‘मांस’ को ले लें तो मैं कहूँगा कि शरीर से संबंधित भाव-बोध यानि जिसमें प्यार-मोहब्त हो। और अब ‘रो’ को ले लीजिए अर्थात जिसमें रोना-गाना खूब हो।खैर इस व्यंग्योक्ति को छोडि़ए। अच्छी रोमांटिक फिल्म में आप उसमें बुनी ऊर्जा की चर्चा करें।
कॉमेडी की समीक्षा करते हुए आप बताएँ कि फिल्म में हास्य और व्यंग्य का मिश्रण किस अनुपात में है। व्यंग्य अच्छी कॉमेडी की आत्मा माना जाता है। कॉमेडी- भाषा संवाद, भाव-भंगिमा, कास्ट्यूम्स, ध्वनि प्रभावों और एक्शन द्वारा सामान्यत: दिखायी जाती है। आप इन घटकों पर अपनी टिप्पणी कर सकते हैं।
ड्रामा/ मेलोड्रामा में कथानक की भूमिका सर्वाधिक महत्व की होती है। एक पंक्ति में कहें तो ड्रामा वह होता है जिसमें सत्य का उदघाटन उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए सबसे अंत में होता है। यह कॉमिक (सुखात्मक) अथवा ट्रैजिक(दुखात्मक) हो सकता है। अपनी समीक्षा आप कथा-प्रवाह के तनाव के बारे में बताएँ और ड्रामार्इ पहलू का विश्लेषण करें।
म्यूजिकल्स भारतीय सिनेमा की यह खास विशेषता है। निश्चित ही इसमें अन्य बातों के अलावा गीत-संगीत का सर्वाधिक महत्व होता है। यदि आप संगीत की बारिकियों से परिचित नहीं हैं तो किसी से जान लीजिए और अपनी टिप्पणी को गंभीर तथा रोचक बनाइए।
हॉरर ये फिल्में वातावरण निर्माण और अच्छे ध्वनि तथा विशेष प्रभाव पर टिकी होती हैं।इसलिए आप भी इनके इसी कंपोनेंट की चर्चा करें । फिल्म प्रदर्शन के उपकरणों से भी इसप्रकार के सिनेमा पर असर पड़ता है। चाहें तो उन थिएटरों का उल्लेख कर दें जहाँ ये फिल्में पूरी त्वरा के साथ देखी जा सकती हैं।
पीरियड फिल्में इन फिल्मों के लिए समीक्षा का प्रथम स्रोत हमें इतिहास में मिलता है। इतिहास से टकराए बिना आप इन फिल्मों की समीक्षा नहीं कर सकते। ऐतिहासिक कालखंड और समस्या को कितनी शिद्दत से प्रासंगिक बनाया गया है इस बात पर टिप्पणी आपकी समीक्षा को समृद्ध करेगी।
एक्शन ये फिल्में मारधाड़ से भरपूर होती हैं लेकिन एक कॉज़ इनमें मौजूद रहता है। इस कॉज़ की चर्चा किए बिना आपकी समीक्षा अधूरी रह जाएगी।
थ्रिलर/सस्पेंस इन दोनों में थोड़ा अंतर होता है। संस्पेंस बना रहता है और अंत में खुलता है। थ्रिलर हर हर क्षण अपना एहसास कराता है।
विज्ञान फंतासी ये फिल्में विज्ञान की दंत कथाओं पर आधारित होती हैं। मौलिक कल्पना, विशेष्-प्रभावों की अतिशयता और वैज्ञानिक तार्किकता इसके केंद्र में होते हैं। यानी फैंटेसी के साथ तर्क भी साथ-साथ चलता है। अब आपको इसी संरचना की चर्चा करनी है।
इन प्रकारों की एक खास मानसिकता होती हैं। दर्शक इनमें से कुछेक विधाओं में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। ऐसा देश और समाज के स्तर पर भी होता है और वैयक्तिक रूप में भी। उदाहरण के लिए भारत में म्यूजिकल्स और चीन-जापान-हांगकांग में एक्शन फिल्में अधिक पसंद की जाती हैं। पूर्वी देशों में कथा प्रधान और पश्चिम में तकनीक प्रधान फिल्में अधिक लोकप्रिय होती रहीं हैं। ऐसा संस्कृति,परंपराओं,ऐतिहासिक संघर्ष की विरासत और बदलती जीवन शैली के कारण होता है।
तो रह गयी बात राष्ट्रीय रूपक(National Allegory) और फिल्म के कोडों (Codes) की तो उसे अगली कक्षा के लिए रखते हैं।
वायदे के मुताबिक और बेताल-पचीसी के वैताल की तर्ज पर 1000 शब्द पूरे हुए और मैं चला डाल नं0 09312276633 पर। जानकारी और सहयोग के लिए आप भी आइए ।
3 टिप्पणियां:
मित्रवर आपकी कक्षा में आकर बड़ा मज़ा आता है. आप तो बड़े कायदे से चीज़ों को समझाते हैं. ऐसे करें बंधु एक 'इसपेसल किलास' लगाइए हम जैसों के लिए, जिनका फिल्मबोध बहुत ढीला है. :)
शिकायत की यदि इजाजत दें तो कहूंगा कि नियमित लिखें. बहुत लाभ होगा विद्यार्थियों को.
शुभकामनाएं
राकेश जी की ही भांति इस शिष्य को भी यही शिकायत है गुरुवर से
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