आज मई की 21 तारीख है। सुबह ( 20 की मध्य रात्रि) के 1 बजे हैं। सब सो रहे हैं।
आसमान से बारिश की झड़ी लगी हुई है। फड़फड़ाती हुई ट्यूबलाइट की निरंतर बिजली कड़क रही है। नींद उचट गयी है। बारिश देखने का लालच मेरे लिए बहुत बड़ा है। मेरे अस्तित्व के एहसास का जैसे अविभाज्य अंग। प्राय: मैं ऐसे मौकों पर वेदना और उल्लास के मिश्रित भाव से भर उठता हूँ । मेरे मित्र अंधेरे और उजाले की इस गुमनाम बेला में एक कौंध की तरह मन के क्षितिज पर फूटने लगते हैं। पहाड़, नदियॅां , आकाश, समंदर सब के बीच बारिश एक पवित्र सा संबंध जोड़ने लगती हैं। संबंध – एक जटिल पद है। न जाने कितनी चीजें कौंधने लगती हैं मेरे मन: आकाश पर । बादल लगातार गरज रहें हैं। अत्यंत भयावह गर्जना। बे सहारा लोग जो सड़को पर होते हैं आम दिनों में आज अभी कहां होंगे ।यह बरसात डराती और पुलकित करती है, एक साथ।
अध्यापन का पेशा भी अजीब है। अनेक विद्यार्थी और उनकी अनंत स्मृतियॉ । चाहने वाले और विरोधी भी। ऐसे जिनमें अनंत ऊर्जा भरी रहती है और वे भी जो गुमशुदा से कहीं खोये हुए खामोश बैठे रहते हैं। अध्यापकों में मेरे प्रिय शिक्षक थे दीपक सिन्हा। बरबस उनकी याद आ गई। वे विद्यार्थी को पूरी तरह ‘बरबाद’ करके छोड़ते थे। ऐसी क्षमता बहुत कम अध्यापकों में होती है। मेरे मन और दिमाग को उन्होने बिल्कुल बदल दिया। जब मुझे उनकी सख्त जरूरत थी तब वे नहीं रहे। मेरी चाहत कुछ इसी तरह मिटती रही है।जब जो चाहा मिला तो जरुर पर ठहर न सका।
अभी मुझे नौकरी मिली ही थी कि मेरे पिता मुझे छोड़कर चले गए। और, जब ‘उसकी’ सख्त दरकार थी तो उसने भी ‘न’ कह दिया । ऐसी लड़खड़ाती जिंदगी मेरे नसीब का हिस्सा है। वैसे मैं नसीब में विश्वास नहीं करता । सोचा था कुछ और लिखूंगा- बारिश के रोमांटिक मूड पर पर देखिए लेखनी (कीबोर्ड) भी कहॉं से कहॅां चली जाती है , जिंदगी तरह। बादल अभी भी गरज रहे हैं, पर उनका डर जैसे खत्म हो गया है। सृजन की यही ताकत होती है। एक घंटा हो गया है आपको यह सब बताते हुए, सुनने की सीमा होती है । इसलिए बंद करता हूँ । बस इस कविता को सुनते जाइए-
रतनसेन पद्मावती संवाद (जायसी के प्रेम आख्यान ‘पदमावत’ के ऋण के साथ)
उस दिन
मेरी बगल में बैठी
तुम
पिघलने लगी थीं
लाल कपोल
उबलने लगे थे तुम्हारे
तुम्हारे होंठों से
उठती हुई
निर्धूम लपटों को
मैंने चुपके से देख लिया था।
उस दिन
पहली बार
तुम्हारे भीतर उतरकर
मैंने पहचाना था
तुम कितनी गहरी हो
अथाह
छू सका था
मोती और मूंगे अनमोल
जो तुमने छिपा रखे थे अपने अतल में।
तुम्हारे शिखरों पर
लड़खड़ाते
कदमों से पहुंच
मैं अनुभव कर पाया था
दूर-दूर तक फैले तुम्हारे भीतरी निजी सन्नाटे का
कि
शिखर अपनी ऊॅचाई में होता है कितना
अकेला
निहत्था और अजनबी
बिल्कुल एकाकी
उस दिन
करीब रहकर मैंने जाना था
तुम्हारी रचना
कितने आदिम पाषाण खण्डों से हुई है
जो एक तरल गंध से सराबोर हैं
तुम्हारी शिराओं में बहता ज्वालामुखी
मुझे लगा था गलाने
धीरे-धीरे उस दिन
उसी दिन
मैंने जाना था
हम दोनों पिघल सकते हैं
गल सकते हैं
धातुओं की तरह
साथ-साथ
एक-दूसरे की ऑच में।
आसमान से बारिश की झड़ी लगी हुई है। फड़फड़ाती हुई ट्यूबलाइट की निरंतर बिजली कड़क रही है। नींद उचट गयी है। बारिश देखने का लालच मेरे लिए बहुत बड़ा है। मेरे अस्तित्व के एहसास का जैसे अविभाज्य अंग। प्राय: मैं ऐसे मौकों पर वेदना और उल्लास के मिश्रित भाव से भर उठता हूँ । मेरे मित्र अंधेरे और उजाले की इस गुमनाम बेला में एक कौंध की तरह मन के क्षितिज पर फूटने लगते हैं। पहाड़, नदियॅां , आकाश, समंदर सब के बीच बारिश एक पवित्र सा संबंध जोड़ने लगती हैं। संबंध – एक जटिल पद है। न जाने कितनी चीजें कौंधने लगती हैं मेरे मन: आकाश पर । बादल लगातार गरज रहें हैं। अत्यंत भयावह गर्जना। बे सहारा लोग जो सड़को पर होते हैं आम दिनों में आज अभी कहां होंगे ।यह बरसात डराती और पुलकित करती है, एक साथ।
अध्यापन का पेशा भी अजीब है। अनेक विद्यार्थी और उनकी अनंत स्मृतियॉ । चाहने वाले और विरोधी भी। ऐसे जिनमें अनंत ऊर्जा भरी रहती है और वे भी जो गुमशुदा से कहीं खोये हुए खामोश बैठे रहते हैं। अध्यापकों में मेरे प्रिय शिक्षक थे दीपक सिन्हा। बरबस उनकी याद आ गई। वे विद्यार्थी को पूरी तरह ‘बरबाद’ करके छोड़ते थे। ऐसी क्षमता बहुत कम अध्यापकों में होती है। मेरे मन और दिमाग को उन्होने बिल्कुल बदल दिया। जब मुझे उनकी सख्त जरूरत थी तब वे नहीं रहे। मेरी चाहत कुछ इसी तरह मिटती रही है।जब जो चाहा मिला तो जरुर पर ठहर न सका।
अभी मुझे नौकरी मिली ही थी कि मेरे पिता मुझे छोड़कर चले गए। और, जब ‘उसकी’ सख्त दरकार थी तो उसने भी ‘न’ कह दिया । ऐसी लड़खड़ाती जिंदगी मेरे नसीब का हिस्सा है। वैसे मैं नसीब में विश्वास नहीं करता । सोचा था कुछ और लिखूंगा- बारिश के रोमांटिक मूड पर पर देखिए लेखनी (कीबोर्ड) भी कहॉं से कहॅां चली जाती है , जिंदगी तरह। बादल अभी भी गरज रहे हैं, पर उनका डर जैसे खत्म हो गया है। सृजन की यही ताकत होती है। एक घंटा हो गया है आपको यह सब बताते हुए, सुनने की सीमा होती है । इसलिए बंद करता हूँ । बस इस कविता को सुनते जाइए-
रतनसेन पद्मावती संवाद (जायसी के प्रेम आख्यान ‘पदमावत’ के ऋण के साथ)
उस दिन
मेरी बगल में बैठी
तुम
पिघलने लगी थीं
लाल कपोल
उबलने लगे थे तुम्हारे
तुम्हारे होंठों से
उठती हुई
निर्धूम लपटों को
मैंने चुपके से देख लिया था।
उस दिन
पहली बार
तुम्हारे भीतर उतरकर
मैंने पहचाना था
तुम कितनी गहरी हो
अथाह
छू सका था
मोती और मूंगे अनमोल
जो तुमने छिपा रखे थे अपने अतल में।
तुम्हारे शिखरों पर
लड़खड़ाते
कदमों से पहुंच
मैं अनुभव कर पाया था
दूर-दूर तक फैले तुम्हारे भीतरी निजी सन्नाटे का
कि
शिखर अपनी ऊॅचाई में होता है कितना
अकेला
निहत्था और अजनबी
बिल्कुल एकाकी
उस दिन
करीब रहकर मैंने जाना था
तुम्हारी रचना
कितने आदिम पाषाण खण्डों से हुई है
जो एक तरल गंध से सराबोर हैं
तुम्हारी शिराओं में बहता ज्वालामुखी
मुझे लगा था गलाने
धीरे-धीरे उस दिन
उसी दिन
मैंने जाना था
हम दोनों पिघल सकते हैं
गल सकते हैं
धातुओं की तरह
साथ-साथ
एक-दूसरे की ऑच में।
2 टिप्पणियां:
वाह! क्या बात है। बहुत ही बढ़िया और भावपूर्ण लिखा है। पढ़कर आनन्द आगया। सुन्दर लेख और उससे भी सुन्दर कविता के लिए बधाई
dubara padhi ye kavita .or jada achi lagi.
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