25 फ़रवरी, 2008

मेरी कविता हो तुम

अश्रु पूरित ऑखों से
हमेशा क्‍या सोचती रहती हो तुम
लगता है
जैसे कोई समुद्र मंथन हो रहा हो
तुम्‍हारे भीतर
सब कुछ कहकर भी
जैसे कुछ न कह पाने की विवशता
क्‍यो झलकती है
बार-बार तुम्‍हारे भीतर
तुम भरोसा करो
मैं बिना बोले ही तुम्‍हारे
जान जाता हॅू
बात की गहराई तुम्‍हारी ।
आसॅू अच्‍छे होते हैं
आत्‍मा को पवित्र बनाने के लिए।
इसलिए रोना आए तो रोओ
और पवित्र होओ तुम
बिना किसी संकोच के।

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