भाषा और साहित्य का गतिशास्त्र उस भाषा-भाषी समूह के आर्थिक कार्य व्यापार पर भी निर्भर करता है. अर्थतंत्र और व्यावसायिक प्रतिष्ठान साहित्य और भाषाओं के संचरण के लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराते हैं. व्यावसायिक प्रसार के साथ साहित्य और भाषा के प्रवास भी सुनिश्चित होते हैं. प्रवास की इस प्रक्रिया में भाषा में नए आयाम जुडते जाते हैं और परिणामत: उसकी संप्रेषण क्षमता में इजाफा भी होता है. आधुनिक कार्पोरेट जगत ने हिन्दी भाषा के नव्यतर आयाम और रूप प्रकट किए हैं. यही कार्पोरेट संसार भाषा को तकनीक के साथ भी संपृक्त करने में अग्रणी रहता है, जिससे भाषा अपनी प्रासंगिकता बचाए-बनाए रखती है.
लेकिन कार्पोरेट जगत की मूल चिंता और सरोकार मुनाफा और आमदनी ही होते है. इनके अभाव में उनकी सरंचना नष्ट हो जाएगी. ऐसे में भाषा और साहित्य का अपने हित में इस्तेमाल कर ले जाना भी कारर्पोरेट संस्थानों के लिए सहज स्वाभाविक ही रहा है. तो भी इस प्रक्रिया से अभिव्यक्ति की नयी शैलियों का निर्माण होता है. विज्ञापनों की भाषा इस संदर्भ में द्ष्टव्य है. आम आदमी तक अपनी बात पहुंचाने की सघन चुनौती इस भाषा निर्माण में केन्द्रीय भूमिका अदा करती है.
तकनीकी अनुकूलन, साहित्य के नए मानदंड, भाषा की विविध वर्णी शैलियों के अतिरिक्त भूमंडलीकरण के इस युग में भाषा साहित्य को जीवनदान देने का कार्य कारर्पोरेट जगत करता है, लेकिन इसके पीछे जो समूची ताकत और उर्जा स्रोत छिपा है वह उस भाषायी समूह का आम आदमी ही है. हिन्दी और कारर्पोरेट जगत का संबंध आधुनिक युग के साथ आरंभ हुआ और पत्रकारिता के क्षेत्र में कारर्पोरेट समुदाय ने निर्णायक भूमिका निभायी. जनसंचार माध्यमों के नेटवर्क को बनाने में और हिन्दी को नए सरोकारों की भाषा बनाने में निश्चय ही कारगर भूमिका रही है. आदर्श स्थिति तब होती जब भैंस और बगुले जैसे संबंध बन पाते. जिसमें बगुला अपना आहार भी ग्रहण करता और भैंस कीटमुक्त होकर स्वस्थ होती. यह कितना संभव हो पाया है इसी बहस को इस सत्र में जानने समझने का यत्न होगा.
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