युवा प्रो0 मुक्तकेशी को जब स्थायी नौकरी मिल गयी तो उन्होने मान लिया कि दुनिया उनके ज्ञान का लोहा मानती है। अपने साक्षात्कार के दौरान उन्होंने सवालों के जववाब में एैसी दलीलें दी थीं कि उससे विशेषज्ञ समिति को उनकी नियुक्त्िा करना एक मजबूरी बन गयी। लेकिन इस बात को सिर्फ वे मानते थे। बाकी लोग कहते थे कि यदि उनके पी0एच0डी0 सुपरवाइजर नियुक्ति-समिति में बतौर एक्सपर्ट नहीं होते तो इनका ज्ञान, दलीलें और नजीरें सब कूड़ेदान की तरह किसी कोने में पड़े रहते और ये खुद भी।
खैर, अब वे विश्वविद्यालय की पहाडि़यों के नीचे बने कला संकाय में निश्चिंत विचरण करते हैं और फुर्सत के क्षणों में पहाड़ी के ऊपर बड़ी मार्मिक दृष्टि से से नजरें दौड़ा लेते हैं। उस पहाड़ी पर एक पूजाघर और एक हॉस्पिटल आसपास बने हैं। दर्द और दुआ का कार्यव्यापार वहाँ साथ-साथ चलता रहता है। यही बात मुक्तकेशी को आकर्षित करती होगी, ऐसा उनके दोस्तों का अनुमान था। लेकिन, एक दिन अनायास उनके मुँह से इसका भेद खुल गया। वे कहते नजर आए कि ‘ऊपर पहाडि़यों पर जो पूजा घर है उसकी तरफ से एक ऑफर है। वह यह कि यदि उनकी परंपरा में दीक्षित हो जाओ तो डेढ़ लाख रूपया और एक सुन्दर कन्या विवाह के लिए मुहैया करायी जाएगी। अपने गुरू की ही तरह मुक्तकेशी बाजार की वैल्यू समझते थे और डेढ़ लाख रूपया ज्यादा न होने के बावजूद एक छुटके पुरस्कार से कहीं अधिक था इसलिए वे इस प्रस्ताव पर शिद्दत से सोचते रहते। और यही कारण था कि पहाड़ी की ओर उनका ध्यान बरबस चला जाया करता था। एक बात और भी थी कि इस प्रस्ताव में सुन्दर कन्या के अनेक बिंब उनके मस्तिष्क में नाचते रहते। कभी-कभी यह कन्या अपने विदेशी स्वरूप में भी उभर आती और पामेला एंडरसन, शकीरा या केट विंसलेट कोई भी रूप धारण कर लेती। पर वे बौद्धिक थे और मुक्तिबोध की कविता से प्रभावित भी इसलिए खुद को ही तमाचा मारते और शिल्पा शेट्टी, ऐश्वर्या और तब्बू पर आ टिकते। यह सौदा भी उन्हें बुरा न लगता और इसके कारण बेचैनी और अनिद्रा उनके जीवन के साथ-साथ चलने लगे।
मुक्तकेशी खुद को कुजात कम्यूनिस्ट कहते थे इसलिए धर्म में उनकी कोई खास आस्था नहीं थी। वे धन और कन्या के लिए कोई भी धर्म अपना सकते थे।वे उधेड़बुन में रहते और सोचते कि एक दिन वे इन पहाडि़यों पर जरूर चढ़ेंगे और जीवन में नौकरी के बाद गृहस्थी का दूसरा अध्याय भी समाप्त कर देंगे।
अक्टूबर का आखिरी सप्ताह था। धूप गुनगुनी हो चली थी। मुक्तकेशी विश्वविद्यालय में राज की तरह ही अपने साथियों के साथ घूम रहे थे। तीसरे पहर अचानक बादलों का रेला आ गया। पूरे परिसर में अंधेरा छा गया। तूफानी बारिश शुरू हो गयी थी और मुक्तकेशी का पास ही बने कैफेटेरिया में कॉफी की चुस्की लेने का मन हो आया। उन्हों ने एक स्ट्रांग कॉफी आर्डर की और एक खाली टेबल पर आ जमें। उन्होंने कोशिश की कि पहाड़ी पर बना पूजागृह दिख जाय पर वह नहीं दिखा। उन्होंने कुर्सी को थोड़ा घुमाया भी पर असफल रहे। अब संतोष कर लेने और कॉफी के स्वाद में खुद को रमा लेने के सिवा उनके पास विकल्प ही क्या था। उनकी कॉफी आ गयी थी। वे अकेले थे और इसका पूरा लाभ उठाना चाहते थे। ऐसे ही एकांत क्षणों में उनका दिमाग सक्रिय होता और वे सर्वथा नए विचारों और विजन को जन्म देते। अभी वे विचारों की प्रसव पीड़ा से गुजर ही रहे थे कि सामने खाली पड़ी कुर्सी पर कॉफी के साथ शोधार्थी नैना टाकिया आ बैठी। उसने हेलेा कहा और मुक्तकेशी का ध्यान चिंतन और पहाडि़यों से उतरकर जमीन पर आ टिका। उन्होंने भी हेलो कहकर प्रतिउत्तर दिया। नैना ने मुक्तकेशी को थेाड़ा असहज पाया और शिष्टतावश पूछा-‘सर, मैने आपको डिस्टर्ब तो नहीं कर दिया।‘ मुक्तकेशी ने नैना को अब ठीक से देखा अपनी नीली टी-शर्ट में वह कतल लग रही थी। ‘कतल’ द किलर, बेपनाह सौन्दर्य की अभिव्यक्ति के लिए यह उनका पसंदीदा शब्द था। वे तसल्लीबख्स मुस्कराए और कहा- ‘नहीं, बिल्कुल नहीं।‘ साहित्य और समाज पर चर्चा शुरू हो गयी। मुक्तकेशी अपनी कॉफी ऐसे पीते मानो वे इलाहाबाद के कॉफी हाउस में बैठे कोई प्रख्यात साहित्यकार हों। वे बोलते रहे और जिज्ञासु भाव से सुनती रही।इस जिज्ञासा को वे नैना की ऑखों में पढ़ते और तृप्त होते चलते। उनकी मुद्रा ज्ञान के गुरूर से डबडबाई नजर आ रही थी। बाहर बारिश थम गयी थी। नैना चलने को हुई तो उसने कहा-‘ सर अपना मोबाइल नं0 दे दीजिए, जरूरत पडेगी तो इस मुद्दे पर आप से आगे भी बात करूँगी। विषय तो मेरा है पर गहराई से सोचा आपने है। मुक्तकेशी ने एक उदार विद्वान की तरह अपना नं0 दे दिया और नैना का नम्बर भी सेव कर लिया। वे विषय की गहराई के साथ नैना की समंदर सी गहरी आँखों में भी डूब गए थे।
--------आगे भी जारी
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