02 जुलाई, 2012

शिबुया की वह दोपहर


शिबुया^ की उस दोपहर में 
जबकि मौसम थोड़ा नम था
ताकेशिता डोरी में
खरीदारों की गर्मजोशी थी

मेइजी के मंदिर में
जिंदगी को खुशगवार बनाने के लिए
लिखी जा रही थीं अर्जियाँ
पूरा हो रहा था अनुष्‍ठान
मुरादों को हासिल करने को

सड़क पर अपनी माँगों को पूरा करने को
भीड़ उछाल रही थी नारे
लोकतंत्र का लुत्‍फ उठाते नागरिक
बूढ़े बच्‍चे महिलाएँ युवतियाँ
और युवक भी

एन एच के उसी समय
कर रहा था कुछ महत्‍त्‍वपूर्ण प्रसारण
बिल्‍कुल बगल से

खेल के मैदान पर
उछलती धमनियाँ
योयोगी उद्यान में
नृत्‍य का अभ्‍यास करती बालाएँ
वाद्ययंत्रों में डूबे वादक
फुहारों से निकलती जलतरंगें
हाथों में हाथ डाल
ऊर्जाओं का हस्‍तांतरण
फुनगियों पर मचलती गौरैया
हवा की सिहरन
सब कुछ चल रहा था
एक साथ 
शिबुया की उस दोपहर में
एक दूसरे से बेखबर

लेकिन
सूरज बीच-बीच में आ जाता था
लेने जायजा
इन सबका

सबको अपनी रोशनी देता हुआ
और कैद करता छवियाँ अपने अक्‍स में
सदा के लिए।
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^ प्रो0 फुजिइ ताकेशी की अनंत जिज्ञासा को समर्पित

3 टिप्‍पणियां:

sanjay joshi ने कहा…

टोक्यो मुबारक राम प्रकाश जी, अच्छी कविता है. कभी मौका लगे तो ओजू की फिल्म Tokyo Story देखिएगा.

डॉ॰ विजया सती ने कहा…

कविता में एक नए जीवन की हलचल साथ ही धड़कन पाना अच्छा लगा

हिमानी ने कहा…

सूरज पर यूं भी बहुत कुछ लिखा और पढ़ा है लेकिन इस कविता का अहसास सीधे उस सूरज के पास ले जाता है जिसकी किरणें सबसे पहले धरती को रोशन करती हैं।