तुम्हारी
डबडबाई आँखों से
जब
टपक रहा था
दर्द
मौन था मैं
पर शिराओं में उग गये थे
जख्म मेरे भी।
तमाशबीन बने
मित्रों की
उपहास मुद्राओं में
घिरी तुम
कहने को आतुर कुछ
कह गयी थी कुछ
छूट गयी वह
बात
और
जीवन भी।
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