31 अक्तूबर, 2010

मुक्तकेशी की प्रेमकथा-अंतिम भाग

अगला दिन। सुबह। वे सीधे कला संकाय पहँचे। उनके पास कविता, कलम और किताबें थीं। इन्‍हीं तीन अस्‍त्रों से वे नैना पर विजय पाना चाहते थे। राजकमल चौधरी और उनकी कृति ‘मछली मरी हुई’ बहुत कुछ सोचा, पढ़ा। अब दोपहर दो बजे का इंतजार था। उनके द्वारा निर्धारित समय। अभिलाषा अपने पूरे उठान पर थी। दो बजा। नैना टाकिया अभी न आयी थी। फिर तीन, फिर चार और फिर सात बज गए। नहीं आयी नैना। न कोई फोन न सूचना। दिमाग में गुस्‍सा भर गया। ‘मेरा कीमती समय लेकर भी बिना सूचना दिए न आना कहाँ की तमीज है।’मुक्‍तकेशी मन ही मन बड़बड़ाए। ‘मैं फोन क्‍यों करू, उसे ही करना चाहिए था।’वे खुद से जिरह कर रहे थे। भारी मन और खट्टे विचारों से भरे वे कमरे पर आ गए थे। खाने का मन न हुआ। भूखे पेट विस्‍तर पर पड़ रहे।

कई बार सुबह हुई और शामें बीत गयीं। चार महीने गुजर गए। नैना की छवि धुंधली पड़ गयी। फिर एक दिन वह अचानक दिखी और मुक्‍तकेशी के बिल्‍कुल सामने आ खड़ी हुई। बड़ी तहजीब से उसने अभिवादन किया। मुक्‍तकेशी मुस्‍कराए। पर, दिमाग में गुस्‍से और गुमान का कॉकटेल बन गया। नैना बोली-‘सर मैने अपना डिजर्टेशन सब्मिट कर दिया है। मैं बस आ ही नहीं पायी। पर उस दिन की बातचीत मेरे काम की थी‍।’

‘चलो मुबारक हो’ मुक्‍तकेशी ने झूठी हँसी हँसते हुए अपनी बात कही।

’थैक्‍यू सर।’ नैना ने निर्लिप्‍त भाव से और एक पोलीबैग से कागज निकालने लगी

’सर मेरी शादी का कार्ड, अगले सप्‍ताह है, लड़का बिजनेस मैन है, आइएगा ।’वह काफी जल्‍दी में दिख रही थी।

मुक्‍तकेशी ने कार्ड पकड़ा, नैना को संपूर्णता में देखा और तुरेत रुखसत हो लिए। कितनी रातों, सुबहों और शामों को देखे गए सपनें, नैना के प्रति की गयीं अनेक मधुर कल्‍पानाएँ, गृहस्‍थ जीवन के दूसरे पड़ाव पर पहुँचने की उनकी अभिलाषा- जैसे सब पर अचानक पूर्ण विराम लग गया हो। उन्‍होंने गुस्‍से में आकर वाल्‍मीकि को टक्‍कर देने वाली कविता के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। अपने इस नए अनुभव को उन्‍होंने डायरी में दर्ज किया-‘कविता, कलम और किताबों से आज के युग में प्रेम संभव नहीं।’ वे कब सोए कुछ पता नहीं।

आजकल मुक्‍तकेशी परिसर में जीन्‍स की नीचे से फटी हुई पैंट,एक जोड़ी चप्‍पल और कुर्ता पहने चहल कदमी करते है। दिल टूटने का यह उनका तीसरा वाकया है।दुनिया बदल गयी है। यह बात उन्‍हें खूब पता थी, परंतु उदारीकरण के दौर में भी अपनी वेशभूषा और बातों के चलते वे आजादी के आंदोलन का मजा लेना चाहते थे। पढ़ा-लिखा होने के चलते वे जल्‍द ही नैना टाकिया को भूल गए। अब उनका परिसर में आना भी कम हो गया है। हाँ, फेसबुक पर वे बराबर ऑनलाइन रहते हैं और नित नई संभावनाओं को तलाशते मिटाते हैं।

हाल‍-फिलहाल एक दिन वे शोधतल की तीसरी मंजिल पर बनी कैंटीन में पहाड़ी की ओर मुखातिब चाय पीते देखे गए। उनके इस व्‍यवहार पर साथियों में गहरा मतभेद है। किशन कहता है कि वे जल्‍द ही पहाडि़यों पर चढ़ेंगे और अपनी पामेला एंडरसन के साथ डेढ़ लाख रूपये के नोट लहराते हुए नीचे उतरेंगे। सत्‍तू का मानना है कि वे अब आजन्‍म प्रेम के फेर में न पड़ेंगे। जो भी हो वे जब-जब पहाडि़यों की ओर देखते हैं तो करुणा और कराह उनकी आँखों में बिल्‍कुल साफ झलकती है, मानों पहाड़ी का पूजाघर और हस्‍पताल साक्षात उनकी दोनों आँखों में आकर पास-पास बस गए हों।

समाप्‍त

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

बात समझ में आ गयी मित्रवर। खूब तबीयत से पिरोया है।

nilabh vijay chaubey ने कहा…

behtarin kahani hai sir.main to shayad har kon se na soch pau,lekin mere matanusar aapne prem pane ki abhilasha ka manushya ke zid sath dvand evam kuch na milne par khiz aur thakan ka adbhut saamanjasya sthapit kiya he.

Unknown ने कहा…

gud sr aapne to is prem katha m apne leykhne se jaan daal di...........