शाम होने के साथ वे घर लौट आए। रात को नींद न आयी। नैना से वे पहली बार कब मिले थे, याद करने लगे। नौकरी के बाद आज दूसरी बार उन्हें अपने ज्ञान की सार्थकता का एहसास हो रहा था।सुबह बीती और फिर शाम हो गयी।तीन दिन बीते।सप्ताह बीत गया।नैना टाकिया का फोन नहीं आया। वे परिसर पहुँचे। साथियों के बीच चलते-फिरते रहे पर निगाहें नैना की ताक में रहीं और कान उसकी आहट सुनने को बेचैन।सूरज ढल गया, वह कहीं न दिखी। वे लौट आए।न जाने कहाँ से ‘चल खुसरो घर आपनो रैन भई चहुँ देस’पंक्तियाँ कौंध उठीं।अब तक वे अपने अहंकार और मर्यादा के चलते नैना को फोन करने से बचते रहे। पर उनकी बेचैनी थी कि बढ़ती ही जा रही थी। उन्होंने फोन लगा दिया। आवाज आयी-सर कैसे हैं।
’ठीक हूँ शोध कैसा चल रहा है’मुक्तकेशी ने शुभचिंतक की तरह बात शुरू की
’आपकी बतायी बुक्स पढ़ रही हूँ और आपसे मिलना भी है सर’
‘चलो ठीक है आ जाना और पहले फोन कर लेना’
’जी सर मैं मिलती हूँ ‘
’ओ के’
इस संक्षिप्त बातचीत से वे संदेश देना चाहते थे कि वे बड़े व्यस्त हैं परंतु अपने खास लोगों के लिए थोड़ा सा समय निकाल सकते हैं।
मुक्तकेशी की परिसर में रोज आमद रहती। निगाहें नैना की छवि ढूढते और कान उसकी आहट का इंतजार। कई दिन फिर बीत गए। मुक्तकेशी का ध्यान अब पहाड़ी पर जाता ही नहीं था। बल्कि यह कहना ठीक होगा कि वे उस जगह को लगभग भूल ही गए थे।एक दिन वे शाम की चाय पी रहे थे अपने साथियों के बीच। फोन की घंटी बजी। स्क्रीन पर नाम जगमगा रहा था-नैना टाकिया। वे थोड़ा दूर हटे और मधुरता से बोले-‘ हेल्लो नैना, कैसी हो’
‘मैं ठीक हूँ सर, कल थेाड़ा समय चाहिए आपका’नैना ने काम की बात की।
’सुबह तो व्यस्त हूँ, दोपहर दो बजे आ सकती हो ’ मुक्तकेशी ने अपने महत्व को अपनी व्यस्तता के जरिए दिखाने की कोशिश की।
’तो फिर मैं कल मिलती हूँ आपसे’
‘बॉय सर’
‘बॉय’
मुक्तकेशी अपने दोस्तों के पास आए और अपनी आधी पड़ी चाय को खत्म करने लगे।चाय में मिठास बढ़ गयी थी। उन्होंने अपने दोस्तों पर एक नजर दौड़ायी। ज्यादातर नाकरी पाने की जद्दोजहद में थे फिर प्रेम की परिकल्पना तो उनसे कोसों दूर थीं। दोस्तों के मुरझाए चेहरे को देख उन्हें अजीब सा आनंद मिला। वे सोच रहे थे नैना से बात बनी तो इन सबको सरप्राइज दूँगा और उन्हें इस बात को पूरा भरोसा था कि मेरे इस सरप्राइज से ये मेरे दोस्त घनघोर दुखी होंगे। परपीड़ा में आनंद तलाशते वे घर लौट रहे थे। नैना टाकिया का शोध विषय ‘मछली मरी हुई-एक अध्ययन’ पर उनका चिंतन केंद्रित हो गया। नैना के वे शब्द कि-‘सर विषय तो मेरा है पर इस पर सोचा गहराई से आपने है’रह-रह कर बुलबुले की तरह उनके जहन में खदबदाता और उन्हें इस विषय पर सोचने की प्रेरणा, चाह और अभिमान पैदा करते।
सारा शहर सो रहा था।सड़क पर हैलोजन लाइट का विशाल स्तंभ चुपचाप रोशनी विखेर रहा था। अनेक प्रकार के कीट उस रोशनी में मडरा रहे थे। पेड़ों की दूर तक चली गयीं कतारें पंक्तिबद्ध प्रार्थना में खड़े स्थविरों के समान लग रहीं थीं। मुक्तकेशी ने घड़ी देखी रात के दो बज रहे थै। बारह घंटे और-सहसा उन्हें कल का इंतजार भारी लगा। वे काफी पढ़ चुके थे और बातचीत के लिए तैयार थे। इतनी मेहनत से उन्होंने अपने नौकरी के इंटरव्यू के लिए भी न पढ़ा था। रात के अंधेरे में नैना का चेहरा घूम गया और उसको समर्पित पंक्तियाँ उभरने लगीं। उन्होंने कलमबद्ध करना आरंभ कर दिया-
शहर की
तपती धूप में
उबलती हवाओं से जूझता
एक आशियाने की तलाश में
जब पहुँचता हूँ तुम्हारे पास
अपनी केशराशि की सघन छाँव
देती हो विखेर
मेरे मुरझाए मुखमंडल पर
तपन मेरी कुछ कम हो जाती है
जब सूरज
उड़ा जा रहा होता है अपने सातों घोड़ों के साथ
धरती नदिया लहरें
तालाब और जंगल
मरुस्थल
पेड़ और परिंदे
सब हो जाते हैं श्रम बिंदुओं से सराबोर
तुम्हारी वाणी
स्रोतस्विनी बन जाती है-शीतलता देती हुई
जब पहुँचता हूँ तुम्हारे पास।
जब पहुँचता हूँ
पास तुम्हारे
प्यास उभरी होती है मेरे होंठों पर
आत्मा के पटल पर
ठंडे पानी का पारदर्शी ग्लास रख देती हो सम्मुख मेरे
अपनी मुस्कान के साथ
भरी शरारती आँखों से
परोस देती हो तुम-सर्वस्व अपना
बुझ जाती है प्यास
होंठों की
पर
आत्मा रह जाती है अतृप्त
एक बार पुन: खींच लेता है तुम्हारा आकर्षण
मुझे।
मुक्तकेशी को लगा आज उन्होंने वाल्मीकि को टक्कर दे दी है। आखिर उनकी यह कविता भी तो विरह-वेदना से ही फूटी है।
----आगे भी जारी
1 टिप्पणी:
बुझ जाती है प्यास
होंठों की
पर
आत्मा रह जाती है अतृप्त
एक बार पुन: खींच लेता है तुम्हारा आकर्षण
मुझे
...................................
ज़िंदगी का निचोड़...
पारखी नज़र...
गहरी सोच...
उम्र का तज़ुर्बा...
क्या क्या कहूँ...
क्या न कहूँ...
खींच लेता है आपका आकर्षण मुझे !
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