13 मार्च, 2010

मीडिया ने समाज के उन तबकों की समस्याओं को प्रकाशित किया जो अंधेरे और गुमनामी में कहीं खो गए थे। दुनिया में वैज्ञानिक चेतना का विकास, प्रबोधन (Enlightenment) और जनसंचार माध्यमों का आविष्कार लगभग साथ-सा हुआ है। माध्यम अपनी युग संवेदना के ही वाहक होते हैं इसीलिए मीडिया में वैज्ञानिक चेतना और प्रबोधन से उपजे मूल्य सक्रिय रहे हैं। मध्ययुगीन इतिहास में स्त्री पण्य (Commodity) के रूप में ही दिखाई देती है। वह देवी और दासी के बीच में पारंपरिक कलाओं और अभिलेखों में उल्लिखित है। सामंती समाज में भूमि और स्त्री-जीतने,आधिपत्य करने या हारने-खोने की वस्तुएँ थीं। मौखिक प्रसारणों ,प्रवचन आदि के समय भी पुरुषवादी मानसिकता के चलते स्त्री का सामाजिक दख़ल नकारात्मक ही अधिक था। सभ्यता के व्यापक कालखण्ड में स्त्री की अतिवादी छवियाँ ही गढ़ी जाती रहीं और वह देवी- दासी, विदुषी-वेश्या के बीच ही सिमट (Reduced) कर रह गयी। शकुन्तला और सीता दोनों को ही यह सिद्ध करना था कि दुष्यंत ने उसे अंगीकार किया था या कि रावण की लंका में रहकर भी उसका शीलभंग नहीं हुआ । स्त्री को पुरुषों को ही पवित्रता की परीक्षा देनी होती थी और पुरुष ही इस पवित्रता के हरणकर्ता भी थे। स्त्री की इस छवि पर नए विचारों और बौद्धिक उन्मेष ने प्रहार किया तथा मुद्रण प्रणाली के विकास और जनसंचार के अाधुनिक माध्यमों के उदय ने उसके इस रूप को ध्वस्त कर बिल्कुल नये मानवी चित्र का निर्माण किया । मीडिया इस छवि का सबसे बड़ा वाहक बना और इसके चलते स्त्री जागरण और उसके सशक्तिकरण को नयी गति मिली।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो 19 वीं शताब्दी समाज सुधार आंदोलन और मीडिया के उभार की सदी है। समाज सुधार के केन्द्र में स्त्री थी और सुधार मूलक विचारों का प्रसार मीडिया के जिम्मे था। राजा राममोहन इसके अग्रदूत थे जिन्होंने सती प्रथा का विरोध किया और ‘बंगदूत’ का प्रकाशन किया। स्त्री शिक्षा की पहली पुस्तक किसी भी भारतीय भाषा में बंगला में 1819 में लिखी गयी। लेखक थे- गुरू मोहन विद्यासागर इसका प्रकाशन ‘कन्या बाल समिति’ कलकत्ता द्वारा 1920 में किया गया ( राधाकुमार, स्त्री संघर्ष का इतिहास-1800-1990,वाणी प्रकाशन पृ. 38)। स्त्रियों की दशा सुधारने के अारंभिक प्रयास पुरुषों द्वारा ही हुए। ब्रह्म समाज, अार्य समाज, प्रार्थना समाज को नेतृत्व पुरुषों ने ही प्रदान किया था। इस युग की महत्त्वपूर्ण बात यह भी कि पितृसत्ता के ढाँचे को सुरक्षित रखते हुए स्त्री की दशा में सुधार का प्रयत्न हुअा। फलस्वरूप स्त्री अपनी सुधार प्रक्रिया में भी पुरुष की दया-पात्र बनी रही और हमेशा की तरह अधिकारों से वंचित रही।
स्त्रियों का वास्तविक अांदोलन 19 वीं शताब्दी के अाखिरी दशकों में अारंभ होता है जब पंडिता रमाबाई, रमाबाई रानाडे, अानन्दीबाई जोशी , फ्रानना सारोबजी, एनी जगन्नाथन, रुक्मा बाई , स्वर्ण कुमारी देवी, इसमें सक्रिय होती हैं। काशी बाई, कान्तिकर ने 1890 के समय में (पहली महिला उपन्यासकार) लेखन अारंभ किया। इन्ही दिनों माई भगवती (हरियाणा) जो अार्य समाज से जुड़ी हुई महिला उपदेशिका भी ने विशाल जनसभा को संबोधित किया था ।दैनिक ‘ ट्रिबयून’ ने इस पर टिप्पणी करते हुए अपने संवाददाता की रिपोर्ट छापी जिसमें कहा गया था कि “ माई भगवती के उपदेश के पश्चात हरियाणा के किसी भी घर में अच्छी तरह पका हुअा भोजन पा लेना कठिन हो गया है। लोग बदहजमी के डर से हरियाणा में ठहरने से कतराते हैं।” घरेलू कामकाज से बाहर निकलने और व्यापक स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिशे अब अारंभ हो गयी थी। मीडिया में इन खबरों की अनुगूँज होने लगी थी। इसी प्रकार जन अांदोलन के संचालन की पहली मिसाल मनोरमा मजूमदार (ब्रह्म समाज) के द्वारा मिलती है जो काफी विवादस्पद रही परंतु बाद में उसे स्वीकार कर लिया गया। राजनीतिक क्षेत्र में 1900 में कलकत्ता में संपन्न कांग्रेस के 16 वें अधिवेशन के समापन पर इसकी प्रथम महिला प्रतिनिधि श्रीमती कादम्बिनी बाई गांगुली ने अध्यक्ष को धन्यवाद ज्ञापन कर मंचीय उपस्थिति दर्ज करायी। इस प्रकार, 19 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ही स्त्रियों का अांदोलन उनके अपने हाथों में अाने लगा था और पितृसत्ता से मुक्ति के चिन्ह उसमें अनायास समाविष्ट होने लगे थे।

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