25 मार्च, 2010

प्रिंट माध्‍यम, महिलाएँ और उनकी छवियाँ

उधर जादी का आंदोलन जोर पकड़ रहा था तो इधर पत्रकारिता में साप्ताहिक-मासिक की अपेक्षा दैनिको का विकास रंभ हो गया था। जादी के पहले दशक (1947-1957) के महत्त्वपूर्ण दैनिकों में नई दुनिया (1947, इंदौर) राष्ट्रदूत(1951,जयपुर) व नवयुग (1955,जयपुर) पंजाब केसरी(1965,जालन्धर), हिन्दी मिलाप ( 1949), वीर अर्जुन (1955), नवभारत (1947,दिल्ली),स्वतन्त्रभारत (1948,उज्जैन) अमर उजाला (1947,गरा) प्रमुख थे। पत्रकारिता मिशन से प्रोफेशन की दिशा में सक्रिय हुई और उसे महिला सरोकारों से रुबरु होना पड़ा । कामकाजी महिलाओं का एक वर्ग भी इसी वक्त उभरने लगा था। देश की जादी के बाद महिलाओं को अपनी जादी पुन: तलाशनी थी। जाद भारत में पितृसत्ता से उन्हें निर्णायक लड़ाई लड़नी थी। महिला -केन्द्रित पत्रिकाएँ सिलाई-बुनाई विशेषांक या रसोई विशेषांक निकालकर अपने दायित्त्व की इतिश्री मान रही थीं। इन्हीं दिनों ‘दिनमान’, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में सौन्दर्य प्रसाधन और स्त्री, स्त्री- पुरुष संबंध, भारतीय नारी और पश्चिमी नारी तथा स्त्रियों की राजनीतिक सक्रियता संबंधी दस्तक दिखने लगती है।

8 मई 1966 को ‘नवभारत टाइम्स ‘ में रविवारीय परिशिष्ट के ‘महिला मंडल’ स्तंभ में ‘हम लड़कियाँ देखने जा रहे हैं’ शीर्षक लेख में रामशरण शर्मा ने लड़की देखने की प्रथा को ‘जिल्लत’ करार दिया।वे कहते हैं कि माल तो पैसा देकर लिया जाता है किन्तु यहाँ पैसे देकर बछिया साथ बाँधी जाती हैं। इस ‘मर्यादा’ और ‘नैतिकता’ पर वे करारा व्यंग्य करते हैं। इसी प्रकार 10 नवंबर, 1968 के ‘हिन्दुस्तान’ में किशोरियों को समझाया गया है कि वैवाहिक जीवन सुख की खान है। विवाह की पूर्वकल्पना न करें और सब कुछ झेलने के लिए तैयार रहें तथा फैशन परस्ती से बचें वरना वर्ना घर र्थिक भँवर में डूब जाएगा । उद्धरण दर्शाते हैं कि स्त्रियाँ अधिक मुक्ति कामी हुई हैं। स्त्री शिक्षा एवं जागरण के बाद रोजमर्रा जीवन के अनुभव और तकलीफें उनसे संबंधित लेखों में सक्रिय होने लगीं। पुरुष समाज में इस मुक्तिकामिता को लेकर चिंता की नयी लकीरें दिखाई देती है और वे अपनी नयी उपदेशक शैली में कुछ बातों से दूर रहने की शिक्षा देते नज़र ते हैं। कहना न होगा कि स्री मुक्ति का रास्ता अभी भी अवरुद्ध था परंतु वह मार्ग साफ झलकने लगा था जिन पर उसे गे बढ़ना था।सन् 1970- 80

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला दशक घोषित हु। स्त्री आंदोलन की विभिन्न स्थितियों को यदि हम देखें तो मुख्यत: पाँच कालखण्ड दिखाई देते हैं-

१ स्वाधीनता आंदोलन के पूर्व ‘ स्त्रियोद्धार’

२ स्वाधीनता आंदोलन के दौर की ‘ राष्ट्रवादी स्त्री’

३ स्वतंत्र भारत की (1970-80) ‘कामकाजी स्त्री’ - (SWI महिलाओं की स्थिति संबंधी समिति का प्रतिवेदन 1975)

४ अन्तरराष्ट्रीय महिला दशक एवं उसके उपरांत (महिला कल्याण बनाम महिला विकास 1970-2000)

५ 21 वीं सदी में नारी

अंतरराष्ट्रीय महिला दशक का मूल्यांकन करती रपट के अनुसार- संयुक्त राष्ट्र महिला दशक जिसने समूचे विश्व में महिलाओं के विचारों को प्रभावित किया और ( हमारे देश की सरकार सहित) सभी देशों की सरकारों को महिला कार्यक्रमों में कल्याण के स्थान पर विकास पर बल देने को मजबूर किया ( महिलाओं के लिए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना- 1988, भूमिका पृ०1) जादी के बाद की कामकाजी महिला अब उन क्षेत्रों में प्रवेश करने लगी जिन पर पुरुषों का वर्चस्व स्थापित था। पहले उनके लिए पारंम्परिक क्षेत्र -अध्यापन, नर्स, डॉक्टर दि ही हु करते थे लेकिन अब वे इंजीनियरिग, प्रबंधन,वकालत, पत्रकारिता, अनुसंधान समेत बिल्कुल नए एवं चुनौतीपूर्ण क्षेत्रों में सक्रिय होने लगी। महानगरों का विकास भी इसी समय तेजी से बढ़ा और विधवाओं, परित्यक्ताओं और गैर विवाहित महिलाओं को इन शहरों ने पनाह दी। जिस पेशे में वे गई, उन्होंने अपने संगठन कायम किए और पुरुषों के साथ अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी। इस संघर्ष ने उन्हें क्षमता, कुशलता का प्रमाण पत्र तो दिया ही साथ ही पुरुषों की बराबरी वाली सेवा शर्तें भी उन्हें मिलीं। विभिन्न पेशों में महिलाओं के संगठनों का सक्रिय होना तथा एक दूसरे का सहयोग करना इस दौर की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि रहा। 1977-78 में छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) के एक अभ्यास के रूप में महिला रोजगार के संबंध में एक सरकारी कार्यदल का गठन किया गया। 1980 में बलात्कार विरोधी लहर के परिणाम स्वरूप 1983 में अपराधिक विधि संशोधन विधेयक को अधिनियम बनाया गया। 1984 तथा 1986 में दहेज प्रतिषेध अधिनियम में 1961 में संशोधन हु। 1986 में स्त्री अशिष्टरुषण (निरोधक) अधिनियम पारित हु। शिक्षा,स्वास्थ्य, रोजगार और राजनीति में महिलाओं की स्थिति में सुधार हुज यह संख्या सम्माननीय है। इन सारी जातियों का ब्यौरा हमें मीडिया उपलब्ध कराता है। वरन् इस दौर का मीडिया महिला सरोकारों को सहानुभूतिपूर्वक नहीं वरन् संघर्षशील ढंग से उठाता है और महिला लेखन का स्वर एक नयी ऊर्जा से भरा दिखाई देता है।

‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘मनोरमा’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘ज’, ‘नई दुनिया’, ‘दिनमान’, ‘वामा’, ‘मानुषी’, ‘धर्मयुग’, दि पत्र-पत्रिकाओं ने अन्तरराष्ट्रीय महिला दशक और महिला वर्ष (1975) में चल रहे कार्यकर्मों का विभिन्न दृष्टियों से विश्लेषण किया। अनेक पत्रिकाओं ने इन पर अपने विशेषांक निकाले और महिलाओं की स्थिति पर व्यापक चर्चा हुई। परिणाम यह हु कि महिलाओं से संबंधित वे मुद्दे भी सामने ए जो अभी तक पहचाने नहीं जा सके थे। ‘टाइम्स अॉफ इंडिया’ के जून 1982 के सम्पादकीय के अनुसार हमारे देश में भ्रूण परीक्षण की तकनीक गमन के बाद 1978 और 1982 के बीच लगभग 78,000 स्त्री भ्रूणों को जन्म देने से पहले ही नष्ट कर दिया गया। बाद के वर्षों में स्त्री संगठनों ने इस परीक्षण को बंद करवाने के लिए सतत् संघर्ष किया । महिला वर्ष मनाने को अलग- अलग दृष्टियों से समझा गया। कई महिला लेखकों ने इसकी कठोर निंदा की तथा इसे कर्मकाण्ड कहते हुए खारिज कर दिया तो दूसरी ओर इसे एक बेहतर शुरुत और महत्तवपूर्ण कदम मानते हुए इसका स्वागत भी किया गया। ‘नवनीत’ में प्रकाशित अपने लेख में ‘धिक्कार महिला वर्ष’ में जर्मन ग्रेयर संयुक्त राष्ट्र सचिवालय की अन्तराष्ट्रीय महिला वर्ष मनाने की घोषणा को उनके ‘असमंजस और दृष्टिहीनता की मिसाल’ बताती है, एशिया, अफ्रीका में ‘पशुओं की तरह जुतने वाली’ महिलाओं को इससे कोई लाभ नहीं हु ऐसा उनका मानना था।

इस दौरान महिलाओँ ने मीडिया की भूमिका का भी जायजा लिया और मीडिया के पक्षपात पुष्टि वैसे और पितृसत्तात्मक चरित्र का पर्दाफाश हु। पार्वती कृष्षन समेत अनेक महिलाओं ने उस प्रश्न को उठाया और महिलाओं से संबंधित कार्यक्रमों को ठीक कवरेज न देने के लिए मीडिया की लोचना भी की। मीडिया पर महिलाओं से संबंधित मुद्दों से वाह-वाही लूटने को प्रश्नांकित करती हुई शुक्ला रूद्र ने कहा कि औरतों की बेबसी को भुलाकर पत्रकारों को रातोंरात हीरो बनते हुए देखा गया है(दिनमान, 5 मई,1985)। महिलाओं ने युद्ध विधवाओं, कानूनी खामियों, सम्पत्ति उत्तराधिकार, दहेज उत्पीड़न,ईसाई, इस्लाम कि विभिन्न धर्मों में महिलाओं की स्थिति, वलात्कार, वेश्यावृति, नारी रोजगार, विभिन्न विभागो-न्याय, प्रशासन में महिलाओं की संख्या, अनब्याही स्त्री समेत अनेक मसलों को मीडिया के द्वारा विभिन्न तरीकों से उठाया। मीडिया लोचना का शिकार हु तो साथ ही उसके दायित्व की सराहना हुई। मृणाल पांडे ने ‘होना कुँरी: रहना दिल्ली में’ नामस लेख(धर्म पुत्र) 18 दिसम्बर 1977 में लिखा कि-” कुँरी महिला के वजूद मो लेकर सत हिंदुस्तानी दिमाग में अभी भी पर्याप्त घपला है। अपनी सारी पढ़ाई लिखाई (और कई जगह र्थिक समृद्धता) के बावजूद हर कुँरी महिला निर्मल वर्मा के प्रवासी भारतीय की तरह सबकी आँखों में संदिग्ध है, सबसे अधिक खुद अपनी । वह एक अपूर्ण सामाजिक गलग्रह है, एक प्रच्छन्न खतरा है, एक भद्दी चुनौती है और जाने क्या-क्या।” महानगरों में रोजगार की तलाश में पुरुष ही नहीं ए महिलाएँ भी यी। उच्च शिक्षा मो बेहतर सुविधाओं के चलते भी महानगरों में कुँरी स्त्रियों का प्रवास बढ़ा। पैतृक घर से दूर उन्हें नयी जादी का एहसास हुर्थिक त्मनिर्भरता और शैक्षिक दर्प ने उनमें त्मनिर्भरता का साहस भी पैदा किया परंतु उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि पुरुषवादी मानसिकता ने उन्हें ‘सम्मान सहित’ जीने का अधिकार नहीं दिया। घर से बाहर स्त्री की छवि या तो गणिका की है या फिर जोगन की। पैतृक संपत्ति में उसे अधिकार नहीं मिलता और यदि वह अपनि संपत्ति कमाने की दिशा में अग्रसर होती है तो लांछन और ताने उसे छलनी कर देते हैं,मीडिया ने लगातार कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा और शोषण से संबंधित मुद्दों को जगह दी। पत्रों के माध्यम से व्यापक बहस चलायी गई परिणामत:कार्मिक महिलाओं के हॉस्टल अस्तित्व में ए। विभिन्न प्रान्तों की महिलाओं का पसी संवाद सुनिश्चित हु और उन्हें संगठित सत्ता और प्रशासन पर अधिक दवाब बना सकते है। जिससे स्त्री सशक्तिकरण का रास्ता खुलने लगा और स्त्रीवादी आंदोलन का चरित्र ज्यादा व्यापक, तर्कपू्र्ण और जागरूक होने लगा। मीडिया और स्त्रियों के संबंध को लेकर एक रोचक प्रसंग नवभारत टाइम्स (5 नवम्बर,1974) में छपा। शीर्षक था ’लड़कियाँ यानी अखबार’। यह लेख पूर्व न्यायाधीश (उच्चतम न्यायालय ) श्री एच. र. खन्ना द्वारा एच.एस.र कॉलेज की छात्राओं के संबोधन से जुड़ी थी। श्री खन्ना दोनों के बीच सादृश्य स्थापित करते हुए कहा था कि दोनों के पास रूप है, दोनों अपनी बात मनवा लेते है और दोनों व्यापक असर रखते हैं। साथ ही उन्होंने कहा कि- दोनों के पुराने हो जाने पर कोई माँग नहीं रहती और दोनों की वातों पर पूरी तरह भरोसा नहीं कर सकते। दोनों की हालत पहले से ज्यादा पतली है और उनका काम विज्ञापनों के ही बूते चल रहा है। (अन्तरराष्ट्रीय महिला दशक और हिन्दी पत्रकारिता, डॉ० मीराकांत,पृ०275)। यह खबर महिलाओं और मीडिया के अन्तरसंबंधों को दर्शाती है। इसे कई तरह से पढ़ा जा सकता है और इसे सोचा जा सकता है। अंतिम संकेत महत्त्वपूर्ण है जहाँ विज्ञापन और स्त्रियों के सशक्तिकरण के बीच रिश्ते को जोडने की कोशिश है।

विज्ञापन में महिलाओं की उपस्थिति (विषयगत या सजीव) सदैव रही है। 20वीं सदी की शुरुत में ही विधवा विवाह के विज्ञापन छपने लगे थे। अधिकांश विधुर इस तरह के विज्ञापन देते थे। विधवाओं कौ ओर से ऐसा विज्ञापन कम ही निकलता था। जाति से मुक्ति इन विज्ञापनों में नहीं थी। परंतु राधाकुमार ने 1905 में ‘हिन्दू’ में छपे एक पत्र का हवाला दिया कि एक ब्राहमण के सुब्रमया अय्यर ने विधवा से विवाह की इच्छा जाहिर की जिसके उत्तर में एक महिला पाठक ने स्वयं को ‘कुँवारी विधवा’ बताते हुए पूछा कि क्या वे एक शूद्र विधवा से विवाह करेंगे ? अय्यर का उत्तर ‘हाँ’ था। परंतु इस तरह के विवाह सामाजिक तिरस्कार एवं पारिवारिक निंदा का कारण बनते थे। विज्ञापनों के माध्यम से विधवा विवाह का मुद्दा स्त्रियों के लिए नए अवसर लाया और उत्साही युवकों ने इसमें काफी सहयोग भी दिया । इसी समय यदि हम हिंदी पत्रकारिता को देखें तो पाते है कि श्लीत्व/अश्लील की बहस हिंदी पत्रिकाओं में विज्ञापन का मुख्य विषय बनने लगी थी। साक्षरता का प्रतिशत अत्यंत कम होने और पत्र-पत्रिकाओं की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी होने का परिणाम था कि प्रतियोगिता सीमित पाठक वर्ग के चलते बढ़ गयी थी। ऐसे में हिन्दी पत्रिकाओं का अपना वजूद बचाए रखने के लिए विज्ञापनों का सहारा लेना पड़ा और इनमें स्त्रियों की छवि का इस्तेमाल भी जरूरी हो गया । विज्ञापन ने स्त्रियों को नए रूप में प्रकाशित किया। विज्ञापनों में उसकी उपस्थिति वस्तुओं की बिक्री में इजाफ़े के लिए कारगर सिद्ध हुई। विज्ञापन में स्त्री पारंपरिक, धुनिक और अतिधुनिक रूपों में अवतीर्ण हुई।

1 टिप्पणी:

shikha varshney ने कहा…

प्रिंट माध्यम में महिलाओं की स्थिति पर सिलसिलेवार और विस्तृत रिपोर्ट...आभार