27 जनवरी, 2009

गजनी: मर्दवादी पीठ अौर पाठ

िकसी देश का सिनेमा उस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक बनावट की पहचान किए ब किना बॉक्स-ऑफिस पर अपनी सफलता दर्ज नहीं कर सकता। गजनी फिल्म ने पहले दो हफ्तों में 200 करोड़ रूपये का व्यापार कर बॉलीवुड में नया इतिहास रचा है।इसकी बॉक्स-ऑफिस की सफलता हमारे समाज के स्वप्न और उसकी कुंठाओं की पहचान में सहायक हो
सकता है। फिल्म की सफलता का मूल्यांकन सिर्फ इसलिए नहीं किया जाना चाहिए कि उसका प्रोडक्शन खूबसूरत था वरन् इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि वह हमारी किन मनोदशाओं, अभिरुचियों, कुंठाओं,चाहतों,लालसाओं और लिप्साओं को पकड़ने में समर्थ रही है। एक सफल फिल्म वह भी हो सकती है जो हमारी पिछड़ी मानसिकता का प्रतिबिंबन करती हो और हमें प्रगतिशील बनाने के बजाय हमारे जड़ीभूत मूल्यों को संतुष्ट करती हो। कहना चाहिए कि गजनी फिल्म की सफलता का आधार यही है। इस फिल्म ने हिंदुस्तानी समाज के पितृसत्तात्मक स्वरूप और भाववादी स्वप्न को करीने से अभिव्यक्त किया है। गजनी में मर्दवादी पाठ की निर्मिति के लिए तीन मूल आधार बनाए गए हैं।

1. देह और स्मृति

2. बदला और

3. पूँजी तथा सत्ता

आप याद करें कि मध्यकाल में जब राजनीति,धर्मनीति और भूमि पर वर्चस्व के लिए दैहिक बल सर्वाधिक उपयोगी था तब स्त्रियाँ सामाजिक परिदृश्य से गायब हो गयी थीं। देह तो उनके पास थी परंतु वह अनुपयोगी थी। आधुनिक युग में स्त्री की देह एक मूल्यवत्ता अर्जित करती है। वह आकर्षण और अकर्मण्यता के आयाम से बाहर आकर आर्थिक अस्मिता और श्रमजीविता की पहचान अर्जित कर रही है। परंतु हमारी फिल्मों में इस नए संदर्भ को उभारना फिल्म के फ्लाप होने का खतरा मोल लेना है। गजनी में भी स्त्री की देह रागभाव की रचना करती है और पुरुष की देह बदले,आधिपत्य और पूँजी के स्वामित्व को

धारण किए हुए रहती है। स्त्री की देह केटेलिस्ट का कार्य करती है और पुरूष की देह की परिचालक भर बन कर रह जाती है।फिल्म की नायिका अपनी भोली अदाओं और रहनुमाई स्वाभाव से नायक(संजय सिंघानिया-आमिर खान) को आकर्षित करती है । उसको अपनी विज्ञापन एजेंसी में भी तभी महत्त्व मिलता है जब उसके संबंध एक पूँजी-पुरुष से जुड़ते हैं। इस जगह पर भी उसके अपने स्वतंत्र अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं। परंतु वह अपने परोपकारी उद्यम को बचाने में खुद शहीद हो जाती है । अब इस शहादत का बदला नायक को लेना होता है और वह इसमें सफल भी होता है। पुरुष वर्चस्व को बड़ी चतुराई से

फिल्म में दैहिक स्तर पर स्थापित कर दिया गया है। सवाल उठता है कि दर्शकों ने इस फिल्म के इस दैहिक ट्रीटमेंट को कैसे समझा । स्वाभाविक है कि आज भी हमारे समाज में लड़ने-भिड़ने, कमाने,खर्चने और दोस्ती-दुश्मनी के सभी फैसले पुरुष ही लेता है इसलिए यह फार्मूला हमारे आम दर्शक को पसंद आना था और आया भी। फिल्म में एक शोधार्थी महिला(जिया खान) भी है पर उसका भी काम उत्प्रेरक मात्र का है । बदला लेने में वह नायक की सहायिका बनकर ही उभरती है अपने स्वाधीन व्यक्तित्व के रूप में नहीं।

गजनी में स्मृति के दो रूपों का इस्तेमाल हुआ है। मानव-स्मृति और यांत्र

िक-स्मृति दोनों की समानांतर उपस्थिति से फिल्ममें बदले की भावना को बुना गया है। मानव-स्मृति का गुण है कि वह स्वाभाविक रूप से परिष्कृत होती चलती है और अवांछनीय कुंठाओं को कूड़ेदान में डालती चलती है। मनोविश्लेषक सिग्मंड फ्रायड ने मानव मन के अवचेतन भाग को स्मृतियों का कूड़ेदान ही कहा है। इसलिए मानव-स्मृति हार्ड-डिस्क की तरह न होकर एक जैविक प्रक्रिया के तहत काम करती है। फिल्म के शुरुआती भाग में संजय सिंघानिया मानव-समृति का उपयोग करता है जिसमें उसकी आंकाक्षाएँ,स्वप्न,प्रेम और ख्वाहिशें पलती-पनपती हैं।परवर्ती भाग, मानव-स्मृति को मशीनी-स्मृति में तब्दील करने

का है। नायक की देह कंप्यूटर की हार्ड-डिस्क की तरह उपयोग की जाने लगती है। हर डेटा सुरक्षित रखने का उद्यम शुरू होता है। गजनी धर्मात्मा इस स्मृति को मिटा देना चाहता है। देह का मशीनी कनवर्जन और मशीन को नष्ट कर देने का प्रयत्न फिल्म के दोनों प्रमुख पुरुष पात्र ही करते हैं। डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ के पहलवानों का दृश्य याद कीजिए,मनुष्य नहीं मशीनों की टकराहट प्रतीत होती है वह कुश्ती। संजय सिंघानिया अपनी देह को इसी तरह ढालता है। भारत में अभी महिलाओं की छवि का ऐसा बिंब नहीं बन पाया है,इसलिए स्मृति के मशीनी रूप को महिला नहीं मर्द ही धारण कर सकता था। देह और यांत्रिक-स्मृति मिलकर बदले की भावना का सघनतम निर्माण करने में सक्षम हो जाती हैं जिसे मर्दवादी ढाँचे में ढाले बिना संभव न था।

बदला गजनी फिल्म का केंद्र है। इसीलिए दर्शकों को इंटरवल के बाद फिल्म अपनी जद में लेती है।यह बदला भी लेने का काम संजय सिंघानिया ही करता है। बदला जिससे लिया जाता है वह भी गजनी धर्मात्मा –पुरुष ही है। यानी फिल्म यह दिखाती है कि पुरुषों के खेल में औरतें या तो उपकरण हैं या फिर मर्दवादी क्रीड़ाभूमि के लिए मात्र खिलौना। हमारे समाज में भी स्त्री-पुरुष का यही संबंध कार्यरत रहता है। औरतों की भूमिका अधिकांशत: पुरुष-निर्मित क्रीड़ा भूमि में एक बॉल की तरह होती है जिसे मनचाहे स्थानों पर फेंका जा सकता है। पुरुष,खिलाड़ी की तरह इनका नियंता बन जाता है। कला का तर्क जागरूक महिलाओं को भी इसकी भनक नहीं लगने देता और वे शायद ही फिल्म के इस अंतर्विरोध को पहचानने में समर्थ हो पाती हैं। गजनी फिल्म में इस सामाजिक सच्चाई को अंतर्विन्यस्त कर दिया गया है और वह दर्शकों को छूने लगती है। बदले की वजह(बॉल) वह बन सकती है, बदला लेने वाली (खिलाड़ी) नहीं।बॉक्स ऑफिस की सफलता की पढ़त बिल्कुल नए नजरिए से करने की जरूरत भी होनी चाहिए।

आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण भी हमारे समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। इस फिल्म में सभी प्रकार की पूँजी पर पुरुषों का ही नियंत्रण दिखाई देता है।पूँजी अर्जित करने और खोने का सारा खेल पुरुषों के बीच ही खेला जाता है। संजय सिंघानिया हो या गजनी धर्मात्मा, पूँजी और सत्ता पर वर्चस्व इन दोनों पुरुषों का ही है।सत्ता और पूँजी की लड़ाई में पुरुष ही शामिल हैं और वे पूरी पटकथा को नियंत्रित करते हैं। फिल्म की खूबी यह है कि संजय सिंघानिया अपनी संवेदनाओं के चलते अपनी पूँजी और व्यवसाय को गौण कर देता है और बदले की भावना को तरजीह देता है,जबकि गजनी धर्मात्मा इन्हें बचाए रखने के लिए संवेदनहीन हो जाता है। आर्थिक संसाधनों का महत्त्व और उनकी निस्सारता दोनों ही फिल्म के भीतर बुनी हुई हैं, पर इन दोनों स्थितियों को उभारने वाले पुरुष-पात्र ही हैं।

यह फिल्म अपनी अंतर्संरचना में हमारे समाज की पितृसत्ता की कई तहों को समाहित किए हुए है। रोजमर्रा की गतिविधियों में यह इतनी रच-पग जाती है कि बिल्कुल स्वाभाविक-सी लगने लगती है। इसी स्वाभाविकता को यह फिल्म पकड़ती है और बॉक्स-ऑफिस पर सफलता अर्जित करती है।कहना न होगा कि गजनी पितृसत्ता को ही पोषित करती है,अपनी सफलता के बावजूद। बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि इसका मर्दवादी पाठ ही इसकी सफलता के केन्द्र में है।

3 टिप्‍पणियां:

Neelima ने कहा…

आपने गजनी फिल्म की एक अच्छी समीक्षा प्रस्तुत की !

राजीव जैन ने कहा…

बढिया

आपने गजनी को एक नए अंदाज में पेश किया है।

वैसे सीधी साधी कहानी तो हमने भी लिखने का प्रयास किया था।

http://shuruwat.blogspot.com/2008/12/blog-post_26.html
बॉस एक लाइनें ब्रेक हो रही हैं आपके टेक्‍टस में जरा देखिएगा।

भावना ने कहा…

Whenever you get time, must read 'Starry Nights' by Shobha De or its hindi tranlation as 'sitaron ki ratein'.

aake gajini ke akhayn ko aur vistar dekhi...halanki asha rani (shayad devika rani)ke filmi safar par based hai...par uski yadra ke kai parav mein hindustain cine samaj aur dakshin bhartiy cinmema ke sambandho ko paribhashit karne wale kai sutra milte hain.

www.bhawna-media.blogspot.com

ko apni blog list mein jagah dekhar kritarth karein.