27 नवंबर, 2008




एक
तुम्हे देखते हुए
मैं देख पाया
तुम्हारी आँखों में
उमड़ता
नीला सागर अपार।
मैं
देख पाया
तुम्‍हारे होठों पर ठहरे
किसी ऋषि के
हवनकुंड से निकले
तपते लाल अंगार, पवित्र
मैंने देखा
तुम्हारे वक्ष में छिपी
गंगोत्री
प्रवाहित होने को आतुर
देखे मैंने
तुम्‍हारे माथे पर
बीचों बीच फैले
विराट बियाबान
अंधेरों और भय से भरे हुए।
मैं देख पाया
पूर्वजों को
और भावी पीढि़याँ
तुम्‍हारी मुस्‍कान में
पर
नहीं देख पाया कि तुम
कैसे देखती हो पुरुष को।
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दो


उस रोज
शाम के धुंघलके में
हवाएँ जब पागल हो उठी थीं
अवारा बादलों से लिपट
उतार लायीं थीं उन्‍हें
धरती की नंगी सतह पर।
तब
तुम बिजली-सी कौंध उठी थीं
मेरे खुले आकाश पर।
तुम्‍‍हारी आँखों में बैठा
शैतान झिंझोड़ गया था
मेरे देवता को।
परत दर परत खामोशी
जम गयी थी
मेरे भीतर
कहीं बहुत गहरे।
मेरे फरिश्तों के पंख
तुम्‍हारे जल्लादों की गिरफ्त में
आ गए थे।
फिर
उधर
धरती की देह पर बादल बरसे
इधर तुम
सराबोर सृष्टि
भर उठी अनूठी गंध से।

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