02 अक्तूबर, 2008

एक पत्रिका


 

                                    पारिजात:दीवार से इंटरनेट के द्वार तक


दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी पत्रकारिता की पढ़ाई कर
रहे विद्यार्थियों को यह सुविधा कम ही मिल पाती है कि वे अपनी अभिव्‍यक्ति के ठीक मुकाम तलाश सकें। ऐसे इस पत्रिका का महत्‍त्‍व बढ़ जाता है।

संपादकीय

पारिजात जिसका अर्थ है कल्‍पवृक्ष। जिस प्रकार कल्‍पवृक्ष स्‍वर्ग के देवताओं को अनेक मीठे और रसीले फल देता है। उसी प्रकार हमारी यह पत्रिका हमारे स्‍वर्ग रूपी महाविद्यालय के विद्यार्थियों को ज्ञान रूपी फल देगा।

यह पत्रिका बी़.ए.(आनर्स) हिन्‍दी पत्रकारिता एवं जनसंचार प्रथम वर्ष के विद्याथिर्यों का उद्यम है। इस पत्रिका के माध्‍यम से आपको अनेक रोचक एवं तथ्‍यपूर्ण जानकारी मिलेंगी। आइए जानते है क्‍या है हमारे इस पारिजात के प्रथम अंक में।
जैसा कि आप जानते है कि पूरा देश स्‍वतंत्रता कि तैयारी में डूबा हुआ है।ऐसे में हम कैसे पीछे रह सकते है।‍ हमारी सहपाठी सुगंधा के लेख द्वारा आपको स्‍वतंत्रता दिवस के बारे में अनेक जानकारियॉं दी जाएगी। स्‍वतंत्रता दिवस की तैयारी के बीच हम रक्षाबंधन के पर्व को कैसे भूल सकते हैं। इस पर्व की महत्‍ता के बारे में आप जानेंगें सविता के लेख रक्षाबंधन द्वारा।
ये तो हुई पर्वो की बात अब बारी है कुछ राष्‍ट्रीय और अंतराष्‍ट्रीय मुद्दो की जैसे कि क्रिकेट का बदलता स्‍वरूप, आतंकवाद, बाढ और सूखा, क्षेत्रवाद, जगमगाते शहरो में सिमटता युवाओ का भविष्‍य, रेडियो और दूरदर्शन, बाल श्रम जिसके बारे में आप जानेंगे क्रमश: रवि‍, अभिषेक, रोहित, निरंजन, अमर, बबली और ललित के लेखों द्वारा।
हमें पूरी उम्‍मीद हैं कि आपको हमारी यह पहल अवश्‍य पसंद आएगी। फिर भी यदि‍ आपके कुछ सुझाव या शिकायतें हैं, तो आप हमे अवश्‍य सूचित करें।आपके सूझाव व शिकायतें आमंत्रित हैं।

तो तैयार हो जाइए हमारे ज्ञान के समुद्र में गोते लगाने के लिए।

फिलहाल तो यह वादा है कि पत्रिका आप तक नियमित पहुँचे।

'इसकी संपादिका हैं दीपिका शर्मा जो फिलहाल पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं। देहरादून से आयी दीपिका में काम के प्रति लगन तो है ही सीखने की जिज्ञासा भी ।पत्रकार बनने की दिशा में अग्रसर दीपिका की यह पहली कोशिश है।'

पन्‍द्रह अगस्‍त सुगंधा

पन्‍द्रह अगस्‍त 1947 को भारत अंग्रेजो के शासन से मु्क्‍त हुआ था और इस में कितने ही वीर शहीदों को आजादी लेने के लिए शहीद होना पडा़। इस आंदोलन में भारत के बड़े बुढे महिलाए बच्‍चे सभी कूद पडे़। कितनी ही महिलाएं विधवा हुई कितने ही बच्‍चे अनाथ हुए। कितनों के घर उजड़ गए। बडी मशक्‍कत के बाद हमे आजादी मिल पाई।
पन्‍द्रह अगस्‍त 1947 के बाद इस दिन सरकारी अवकाश रहता है। स्‍कूल कालेजो में यह दिन चौदह अगस्त को ही मना लिया जाता हैं। इस दिन सभी कार्यालय बंद रहते हैं। इस दिन भारत के प्रधानमंत्री लाल किले पर तिरंगा फहराते हैं और देश के नाम बधाई संदेश देते हैं।
यह दिन सभी भारतीयो के ज़हन में बसा हुआ हैं कि किस प्र‍कार भारत को आज़ादी मिली। लेकिन यह दिन एक दुखद समाचार लेकर भी आया, जब भारत को दो टुकडो में बॉंट दिया गया। एक मुस्‍लिम देश बना पाकिस्‍तान और दूसरा हिन्‍दू देश बना हिन्‍दूस्‍तान। कितने ही परिवार एक दूसरे से बिछड गए। यह दिन खुशी के साथ गम़ भी लेकर आया।
पन्‍द्रह अगस्‍त की याद ताजा करने के लिए बडे बुजुर्ग अपने बच्‍चो को इस दिन की कहानियॉं सुनाते हैं। किस तरह भारत के जवानों ने लहु बहाकर हमें आजा़दी दिलवाई और अंग्रेजो को मार भगाया था। करीब सौ सालो तक अंग्रेजो ने भारत पर शासन किया और जाते जाते भारत को कंगाल कर दिया। पन्‍द्रह अगस्‍त की यादें अभी भी हमारे ज़हन में बसी हुई हैं और जिनको याद करके हमारे आसूँ बह जाते हैं।

प्‍यार
का बंधन:रक्षाबंधन.................................................

सविता कुमारी पत्रकारिताप्रथमवर्ष

बंधन हमेशा बुरा नही होता। कुछ बंधन एक खूबसूरत एहसास देते हैं जैसे प्‍यार का बंधन। इसकी डोर में हर कोई बंधा चला जाता हैं। चाहे वह दोस्‍ती का बंधन हो,बहन भाई का हो,माँ बाप का हो,पति पत्‍नी का या फिर आत्‍मा परमात्‍मा का;पवित्र बंधन हमे जीने की कला सिखलाता हैं। जो इस बंधन को मुश्‍किल की घडी़ में भी निभाता हो वह फरिश्‍ता या देवता बन जाता हैं। ऋषि मुनियों ने और धर्म संस्‍थापको ने मनुष्‍य को बंधन में बांधे रखने के लिए प्राय:जितने भी त्‍यौहार और उत्‍सव बनाये हैं,उनके पीछे कुछ गूढ अर्थ हैं। ब्राह्मण चिरकाल से जन कल्‍याण की भावना से अपने यजमानो को सूत या मौली बांधता आया हैं। ठीक इसी उद्देश्‍य को बहन भी शुभ कामना की राखीरक्षासूत्रमौली या रक्षाकवच भाई को ही नही बल्कि समस्‍त परिवार के सदस्यो को बांधती हैं।
भृकुटि के मध्‍य जहॉं आत्‍मा का निवास माना जाता हैं वहाँ चावल केसर का टीका लगाती हैं,ताकि वह अपने स्‍वधर्म अर्थात पवित्रता की रक्षा कर सके। रक्षाबंधन यानी बलवान द्वारा निर्बल की रक्षा का बंधन। बहन भाई को इसलिए राखी का सूत्र बांधती हैं कि यदि वो किसी मुसीबत में पडे तो भाई उसकी रक्षा करे। उसके अस्तित्‍व और सतीत्‍व की रक्षा करे। बहन अपने अंतर्मन से स्‍नेह से अपनी कामनाओ से अपने भाई के लिए भगवान से प्राथर्ना करती हैं।
क्रिकेट का बदलता स्‍वरूप............................................
- रवि

हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार,


प्रथम वर्ष


 

क्रिकेट,फुटबॉल के बाद विश्‍व का सवार्धिक लोकप्रिय खेल हैं। क्रिकेट का जन्‍म इंग्लैंड में हुआ था और तब से यह विश्‍व के विभिन्‍न देशों तक पहुँच गया। यद्यपि हमारे देश का राष्‍ट्रीय खेल हॉकी हैं परन्‍तु क्रिकेट की लोकप्रियता के सामने हॉकी नतमस्‍तक हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता हैं कि वर्ष 2007 मे आई मशहुर फिल्‍म चक दे इंडिया़..........हॉकी का गाना था। लेकिन वह भी क्रिकेट ने छीन‍ लिया।
1870 के दशक से 1970 के दशक तक लगभग 100 वर्षो तक टेस्‍ट क्रिकेट सुचारू रूप से चला। उस समय टैस्‍ट मैच 6 दिनों का होता था। ऐसे में कुछ लोगों को यह लगा कि क्रिकेट एक रूचिहीन खेल हैं। और आई सी सी से परिवर्तन की मॉंग की। आई सी सी ने टैस्‍ट मैच को 6 दिन से घटाकर 5 दिन का कर दिया। सन् 1963 में एक दिवसीय मैचों की शुरूआत की गई। आरंभ में एक दिव‍सीय मैच 60 ओवरो का किया गया, पर आई सी सी ने इसमे परिवर्तन कर इसे 50 ओवरो का कर दिया। 50 ओवरो का मैच सुचारू रूप से चलने लगा।
फिर क्रिकेट में एक नया प्रारूप आया 20-20 क्रिकेट। यद्यपि 20-20 क्रिकेट का प्रथम अंतराष्‍ट्रीय मैच 18 फरवरी 2006 को आस्‍ट्रेलिया और न्‍यूजीलैंड के बीच खेला गया। जिसमे जोश जुनून और रोमांच सब कुछ था। वर्ष 2007 में दक्षिण अफ्रिका में आयोजित 20-20 विश्‍वकप ने इस खेल को नई उचाईयॉं दी। आई पी एल ने भी 20-20 क्रिकेट का आयोजन करके इस खेल को लोकप्रिय बनाया।
यद्यपि 20-20 क्रिकेट का विकास बडी तीव्रता से हो रहा हैं, परन्‍तु 20-20 क्रिकेट टेस्‍ट क्रिकेट के लिए खतरा हैं। और टेस्‍ट क्रिकेट को अभी से समाप्‍त करने की योजना बनाई जा रही हैं। हम टेस्‍ट क्रिकेट को भूल नहीं सकते,टेस्‍ट क्रिकेट ही असली क्रिकेट हैं।

आतंक: सुरक्षा, समाधान या कुछ और.............................

- अभिषेक चतुर्वेदी

हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार,                 प्रथम वर्ष


 

विगत दिनों बंगलुरू और अहमदाबाद में हुए खुफिया और सुरक्षा तंत्र की विफलता को जनता के सामने ला कर रख दिया हैं। बीते कुछ वर्षो में हुए आतंकी हमलों के बाद

की स्थिति पर विचार किया जाए, तो एक बात जो हर आतंकी घटना के बाद समान रही है। बहुत ही माननीय ग़ृहमंत्रीजी द्वारा रक्षा अधिकारियो की आपत बैठक बुलाना और विभिन्न खुफिया और सुरक्षा एजेन्सियों की एक समन्वय के गटन के आश्वासन देना। आतंकवाद जैसी समस्या से निपटने के प्रयासो के प्रति सरकरी तंत्र का उदासीन रवैया,आतंकी हमलों के प्रति सरकार की असंवेदनशीलता को जगजाहिर करता है। 2007 में हुए मुम्बई विस्फोटों, इस वर्ष जयपुर मे हुए विस्फोटों और मात्र 30 घण्टो के अन्तराल पर हुए बंगलुरु और अहमदाबाद धमाको की बात की जाए तो सैकड़ो निर्दोष लोग अपनी जान गवां चुके है। हजारो लोग विकलांग हो चुके है। देश का भविष्य कहे जाने वाले सैकड़ो बच्चे या तो अनाथ हो चुके या अपना बचपन रिश्तेदारो के रहमो करम पर जीने को मजबूर है। पिछले तीन दशको से ये देश आतंकवाद के विभिषिका को झेल रहा है। शायद झेलते रहने की आदत ने हमारी संवेदना को कुंद कर दिया है। देश में हमले हुए नही कि हम "आतंक विरोधी तंत्र" या पुलिस-आधुनिकीकरण की बात करने लग जाते है। कुछ दिन बीतते नही कि ये सारी कवायदें मात्र एक साधारण विचार के रुप में मस्तिष्क के किसी हिस्से में सुप्तावस्था को धारण कर लेती है। शायद इस इंतजार में कि एक धमाका इस अवस्था से विचारो को मुक्ति दिलाएं और ये विचार पुन: अपनी महत्ता का आभास किसी मंत्री या वक्ता के भाषण का अंस बन सकें।हर आतंकी हमले के बाद केन्द्र के साथ साथ राज्य सरकारें भा आतंक- पीड़ितों के लिए करोड़ो रुपये की सहायता राशि जारी करती है। ऐस लगता है सरकारो ने आतंकी हमलो को अपनी नियति मान अप्रत्यक्ष रुप से आतंक पीड़ित राहत कोष का गठन आपदा प्रबंधन कोष की तर्ज पर कर लिया है। जबकि पुलिस आधुनिकीकरण धन की अनुपलब्धता के कारण बाधित होता रहा है। कई बार विस्फोटों के बाद साक्ष्य न मिलने और चौतर फा दबाव के कारण पुलिस निर्दोष व्यक्तियों को आरोपी बना कर गिरफ्तार कर लेती है। असलियत सामने आने पर बेशक दोषियों को बर्खास्त कर पुलिस प्रशासन द्वारा अपने कर्तव्यों को इतिश्री कर ली जाती है। ऐसी घटनाओं के कारण पुलिस से जनता का मोहभंग हो जाता है और पुलिस की अनेक कार्यवाहियाँ(आतंकवाद या अराजकता के विरुद्ध) संदेहास्पद मान ली जाती है।


 

आवश्यकता इस बात की है कि आतंकवाद की जड़ों पर कठोर प्रहार कर आतंकवाद से त्रस्त जनता को भयमुक्त वातावरण उपलब्ध कराया जाए और सरकारी तन्त्र के प्रति व्याप्त अविश्वास किया जाए।


 


 


बाढ़ और सूखा..................................................................

-रोहितकुमार पाठक

हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार,                 प्रथम वर्ष


 

हमारे देश में जब जब जहाँ जहाँ सूखा पड़ा है, वही हर बार सूखा पड़ता है। जहाँ एक बार बाढ़ आती है वहीं बार बार बाढ़ आती है। जो इलाका कभी चक्रवात से तबाह हुआ होता है, उसी इलाके को महाचक्रवात की भी मार झेलनी पड़ती है। बार बार भुखमरी फैलती है और बार बार उससे निपटने के लिए सरकारी अनुदानों पर अभियान छेड़ा जाता है। यह प्रक्रिया पचास वर्षो से जारी है। राहत कार्यो के नाम पर खर्च होनेवाली अधिकांश रकम नेताओ,नौकरशाहो,ठेकेदारों और इंजिनयरो की जेब में चली जाती हैं। नतीजतन सूखा और बाढ का सिलसिला कभी टूटता नहीं। अतीत में किए गए सारे उपाय फेल हो जाते हैं। शायद ये उपाय किए ही जाते हैं फेल होने के लिए। यह सही है कि खाघान उत्‍पादन के मामले में हमारा देश इतना सक्षम हो चुका हैं कि अब सूखा या बाढ अकाल का रूप नहीं ले पाता।

1942-43 के बंगाल के अकाल की तरह तीन हजार लोग काल के मुँह में नहीं समाते। इथोपिया और सोमालिया जैसी स्थिती हमारे देश में नही होती,लेकिन लोग मरते हैं। कभी अकाल तो कभी पानी के तुफानी बहाव से। उत्‍तर प्रदेश, गुजरात,राजस्‍थान,आंध्र प्रदेश और अन्‍य राज्‍यो के दूरदराज़ के गॉंवो में ही नहीं पानी का संकट शहर में भी हैं। राष्‍ट्रीय राजधानी दिल्‍ली से लेकर इस संकट की गूँज देश के अनेक राज्‍यो में भी सुनी जा सकती हैं।

जिस देश में सैकडो नदियाँ बहती हो हजारो लाखो की तादाद में तालाब हो, और जहॉं औसतन 1100 मी.मी. बारिश होती हो उस देश में पानी के अकाल की बात पर विशवास नहीं होता। लेकिन हकीकत यही हैं। हमारे यहॉं पानी का अकाल हैं, कही ज्‍यादा तो कही कम।

क्षेत्रवाद...................................................................निरंजन
हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार,                 प्रथम वर्ष

यह एक ऐसी सामाजिक एवं सास्‍क्रतिक व्‍यवस्‍था हैं जो एक खास क्षेत्र के लोगो के द्वारा उस खास क्षेत्र के लिए विकसित की गई हो, जिसमे दूसरे क्षेत्रो लोगो अथवा उनकी संस्‍कती का समावेश वर्जित हो। संभवत: ऐसी व्‍यवस्‍था को क्षेत्रवाद की संज्ञा दी जा सकती हैं।
एतिहास की दृष्टि से देखा जाए तो ऐसा प्रतित होता हैं कि क्षेत्रवाद का जन्‍म सामंतवादी व्‍यवस्‍था से हुआ हैं। पूर्व में हमारी सामाजिक व्‍यवस्‍था छोटे छोटे क्षेत्रो में बँटी हुई हैं। इन क्षेत्रो में आपसी प्रतिस्‍पर्धा बनी रहती हैं। शायद यही क्षेत्रवाद के उदय का कारण रहा हो। हमारा स्‍वतंत्रता संग्राम भी इसी की भेंट चढ़ गया। इसका कारण भी क्षेत्रात्‍मक असंगठन था। समय समय पर हमारे राजनीतीज्ञों ने भी इसका गलत इस्‍तेमाल किया।हाल ही में राज ठाकरे और तेजेन्‍द्र खन्‍ना द्वारा किया गया पहल इसका ताजा उदाहरण हैं।
आज जरूरत हैं कि क्षेत्रवाद को बढावा देने वालों के प्रति कडी मुहिम चलाई जाए। हमारी संसद को चाहिए कि वह इस दिशा में कठोर कदम उठाए,जिससे हमारे राष्‍ट्र की एकता एवं सम्‍प्रभुता बनी रहे।
जमगाते शहरों में सिमटता युवाओ का भविष्‍य..................
-अमर भारद्वाज

हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार,                 प्रथम वर्ष

वर्तमान में बडे एवं जगमगाते शहरों को जनसंख्‍या विस्‍फोट बेरोजगारी एवं निर्धनता जैसी समस्‍याओं का सामना करना पड रहा हैं। जिन शहरों में इन समस्‍याअयों को अधिकतर देखा जाता सकता हैं उनमे मुख्‍य हैं दिल्‍ली मुम्‍बई चैनई गाजियाबाद और बंगलुरू। आखिर इन समस्‍याओ का मुख्‍य कारण क्‍या हैं क्‍या कभी हमने इस तरफ अपना ध्‍यान केन्द्रित किया हैं,तो आइए नजर डालते हैं इसके कुछ कारणो पर;
1-युवाओं के भविष्‍य के सुनहरे सपनों का रासता इन्‍ही शहरो में मिलता हैं।
2-बडे-बडे उद्योग धंधो की कम्‍पनी का शहरो में कंन्द्रयकरण।
3-शहरो की विकास दर में वृद्धि।
4-अनेक शिक्षध संस्‍थानो व व्‍यापारिक केन्‍द्रो का इन शहरो में स्‍थापित होना।
ये कुछ प्रमुख कारण हैं, जिनसे इन बडे शहरो की तरफ सबका रूझान हैं। इससे अन शहरो में उत्‍पन्‍न होने वाली समस्‍याए निम्‍नलिखित हैं;
1-इन शहरो का प्राकृकतक सौन्‍दर्य खोता जा रहा हैं।
2-निरंतर बढती जनसंख्‍या एक प्रमुख समस्‍या हैं

3-यहॉं के मूल निवासी व बाहरी व्‍यक्तियो के लिए घर एक सपना पूरा होने में बहुत समय लगता हैं।
रेडियो और दूरदर्शन:कुछ तथ्‍य........................................

-बबली

हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार,

प्रथम वर्ष

आकाशवाणी:- इसने 3 जून 1936 से कार्य प्रारंभ किया। अक्‍टुबर 1957 में विविध भारती कार्यक्रम शुरू किया गया। आज आकाशवाणी संसार का एक प्रमुख प्रसारण संगठन बन गया हैं। जिसमें 213 प्रसारण केन्‍द्र और 240 ट्रांसमीटर हैं। इसमे 147 मीडियम वेव 55 शार्ट वेव और 138 एफ एम ट्रांसमीटर हैं। इसके माध्‍यम से देश के 91.37 प्रतिशत भू-भाग में 99.13 प्रतिशत लोगो तक आकाशवाणी के प्रसारण पहुँचते हैं। नेशनल चैनल 18 मई 1988 को प्रारंभ किया गया।
रेडियो पेजिंग:- आकाशवाणी ने 14 जनवरी 1995 से यह सेवा आरंभ की। इस सेवा के माधयम से उन लोगो को संदेश पहुँचाया जाने लगा जो उस वक्‍त कहीं मार्ग में हो। आकाशवाणी ऐशिया का ऐसा पहला संस्‍थान हैं जिसने इस तकनीक का प्रयोग किया।
दूरदर्शन:- 1 अप्रैल 1976 से दूरदर्शन को आकाशवाणी से प्रथक कर एक महानिदेशक के नियंत्रण में सौंप दिया गया। पहला दूरदर्शन स्‍टेशन दिल्‍ली में 15 सितम्‍बर 1959 को स्‍थापित किया गया। 15 अगस्‍त 1953 को दूरदर्शन के पॉंच नए चैनल शुरू किए गए। दूरदर्शन का अंतराष्‍ट्रीय चैनल 14 मार्च 1995 को शुरू हुआ। दूरदर्शन सी एन एन न्‍यूज 30 जून 1995 को प्रारंभ हुआ। दूरदर्शन ने 18 मार्च को अपना स्‍पोटर्स चैनल शुरू किया।
देश की 87 प्रतिश्‍त से अधिक जनता 1042 ट्रांसमीटरो की मदद से दूरदर्शन के कार्यक्रम देख सकती हैं।

अब इन बच्‍चों ने क्‍या लिखा है इसकी गुणवत्‍ता पर तो मैं टिप्‍पणी नहीं करूँगा पर इसे आप एक प्रयोग भर मान सकते हैं। यदि चल निकला तो जारी रहेगा नहीं तो ठप।ऐसी ही हालत
है। पढ़ने-सीखने के लिए बच्चे का मंच बनाना ही मूल उद्देश्‍य है हमारा।

2 टिप्‍पणियां:

मिथिलेश श्रीवास्तव ने कहा…

बहुत अच्छी कोशिश है...दीपिका जी की...मुझे अपने यूनिवर्सिटी के दिनों की याद दिलाती है यह पत्रिका- पारिजात...मैं भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक दीवार पत्रिका निकाला करता था, 'उदघोष' नाम से...पत्रिका को बाद में मैंने मुद्रित रुप भी दिया था..नौकरी और बाकी चीजों की आपाधापी में सबकुछ जैसे छूट गया...

रंजन राजन ने कहा…

बहुत अच्छी कोशिश है...
दीपिका शर्मा को बधाई.