पहली बात- आइडिया की
(1) आइडिया या विचार-सूत्र की कौंध –One line story से ही फिल्म निर्माण की शुरूआत होती है। उदाहरण देंखें तो कहा जा सकता है कि अंबानी घराने की गूंज गुरु फिल्म में दिखाई देती है। प्रोड्यूसर के सामने कोई ऐसे ही एक लाइन का आइडिया लेकर जाता है और फिल्म बनाने का सिलसिला आगे बढ़ता है।
(2) इसी विचार-सूत्र को विकसित कर एक पूरी कहानी बनाई जाती है। निर्माता/निर्देशक द्वारा कहानी का चयन और परिवर्तन करने के बाद उसे स्वीकृत कर लिया जाता है। इसे हम फिल्म की कथा कह सकते हैं।
(3) कहानी के सामने आ जाने पर उसी के अनुसार मुख्य पात्रों (Hero & Heroines) का चयन निर्देशक करता है। सामान्यत: हीरो की स्वीकृति जरूरी मानी जाती है।ऐसा हो जाने पर फिल्म की प्रामाणिकता सिद्ध हो जाती है। यह बड़ा जोखिम का काम होता है। मसलन अशोका फिल्म में शाहरूख खान अपने अभिनय कौशल के बावजूद अशोक की भूमिका में फिट नहीं हो पाए।
(4) फिल्म की कथा को पटकथा में ढाले बिना फिल्म निर्माण बड़ा जटिल होता है।पटकथा लेखक/निर्देशक द्वारा कहानी की पटकथा (सिनेमा के फिल्मांकन के अनुरूप) तैयार की जाती है।दरअसल पटकथा एक नहीं अनेक होती हैं जिसमें कैमरा परसन और अभिनेताओं समेत सभी जरूरी लोगों के लिए आवश्यकता के अनुरूप पटकथाएँ तैयार की जाती हैं।
लेकिन,
लोचा यह है कि पटकथा लिखने से ज्यादा सुनने और बताने की चीज बन जाती है। बॉलीवुड में पटकथा लिखने के बजाय या फिर उस पर हू-ब-हू चलने के बजाय वह लगातार बदलती रहती है।
(5) पटकथा की तैयारी के साथ-साथ संवाद लेखक का आगमन होता है तथा र्निदेशक की सलाह से दृश्यों का ध्वनीकरण (spoken expression) करना तथा इससे जरूरी काट-छॉंट संभव हो जाती है और इससे पटकथा का नाटकीय विधान तन जाता है, उसमें कसाव पैदा होता है। पटकथा में स्पेसीफिक्स यानी समय, जगह और इनडोर तथा आउटडोर जैसी सूचनाएँ हमेशा इंगलिश में होते हैं।फिल्म के निर्माण में अनेक भाषा-भाषी लेाग काम करते हैं इसलिए आपसी बातचीत की भाषा हिंगलिश होती है।
(6) निर्माता द्वारा बजट (Budgeting) पर बातचीत तथा बजट के अनुरूप पटकथा का समायोजन एवं बदलाव जरूरी होता है।वास्तव में देखें तो बजट पटकथा पर दबाव बनाता है जिसके चलते पटकथा से कई दृश्य काट-छाँट दिए जाते हैं।
(7) फाइनेंसर और वितरक इसी दौरान स्टोरी सुनने आ जाते हैं। साथ ही वे तय करते हैं कि फिल्म में कितने गीत/नृत्य होंगे। इन दोनों की भूमिका कई बार निर्देशक की परिकल्पना को भी प्रभावित करने लगती है। अभिनेताओं के चयन में हेर-फेर भी इनके चलते कई बार करना पड़ता है।
(8) मुहूर्त की भारतीय सिनेमा में बड़ी भूमिका मानी जाती है। वास्तव में यह ऐसी शुभ प्रथा मानी जाती है जो फिल्म की शूटिंग का आगाज करती है। यह प्रोडयूसर का वित्त जुटाने का अवसर भी प्रदान करती है। कई बार तो वितरण के अधिकार भी इसी वक्त बिक जाते हैं।भारतीय फिल्म उद्योग में नारियल तोड़ने के साथ अनेक कार्य आरंभ किए जाते हैं।
(9) इसी दौरान संगीत निर्देशक के साथ पूरी तकनीकी यूनिट से संपर्क किया जाता है और संगीत और गीत रिकार्डिंग के काम के लिए समझौता(Contract) साइन कर लिया जाता है।कोरियोग्राफी का भूमिका भी जबर्दस्त होती है।गीत-नृत्य की शूटिंग अलग से की जाती है। भारतीय सिनेमा में गीत और संगीत फिल्म की सफलता की राह आसान बनाते हैं। आजकल बिना निश्चित संदर्भ के गाने भी जोड़े जाने का प्रचलन बढ़ा है। आयटम सांग का फिल्मों में समावेश इसी का परिणाम है।
(10) अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की सुविधा के अनुसार shooting की तारीखों और लोकेशन्स या स्टूडियों का निश्चय किया जाता है। स्टूडियो की शूटिंग एक समय सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती थी लेकिन समानांतर फिल्मकारों ने इससे बाहर निकलकर वास्तविक लोकेशन्स पर ही फिल्मांकन को तवज्जो दी।इसमें धनागम (Flow of money) का भी ध्यान रखना पड़ता है। फिल्म कैसे और कहाँ और कितने समय तक शूट की जाए्गी यह बहुत कुछ धन की उपलब्धता पर भी निर्भर करता है। शूटिंग का कालखंड सामान्यत: छ: माह से साढ़े तीन वर्ष तक होता है। मुहूर्त से लेकर फिल्म के सिनेमाघर तक पहुँचने में एक से पाँच वर्ष तक लग जाते हैं।
(11) शूट की गई फिल्म के गैर तराशे अंशों को रशेस कहते हैं। इससे कहानी की क्रमिकता की पहचान की जा सकती है। संपादक तैयार Rushes को देखते हैं और अन्य फिल्मी हिस्सो से मिलान कर उनका संपादन कर लेते हैं।
(12) संपादक फिल्मों के रफ कट तैयार कर (शूटिंग के दौरान Gap में) निर्देशक को दिखाते
चलते हैं और जरूरी बदलावों को उसी समय नोट कर लिया जाता है। फाइनेंसर
और डिस्ट्रीब्यूटर को ये Rushes दिखाए जाते हैं जिसके आधार पर उनसे आगे पैसा लिया
जा सके।
(13) फिल्मांकन एक जटिल काम है।फिल्म की रील काफी मँहगी होती है, यह पूरे बजट का 10 प्रतिशत हिस्सा ले लेती है। अधिकांश एक्टर सेट पर ही अपनी रिहर्सल करते हैं और संवादों को वहीं दुहराते हैं। संवादों को बाद में अलग से डब किया जाता है जिससे शूटिंग के दौरान सिर्फ लिप-सिंक की जरूरत होती है।जब बार-बार की कोशिशों और रि-टेक से फिल्म शूट होकर, संपादित तथा देखकर एवं बहस- मुबाहिसों के बाद तैयार हो जाती है उसका फाइनल कट (Final cut) तैयार कर लिया जाता है।
(14) संगीत कंपोजर को पूरी फिल्म दिखाकर उसका संगीत रिकार्ड करवा लिया जाता
है। साथ ही, वह पार्श्व ध्वनियों का भी अभिलेखन(रिेकार्ड) कर लेता है।
(15) संपादक सारी पार्श्व ध्वनियों,संवादों और विशेष ध्वनि प्रभावों को फिल्म के साथ जोड़ (Fit) देता है। यह प्रकिया डबिंग कहलाती है। संवादों को डब करने के लिए हीरो और हीरोइन समेत सह अभिनेताओं को कई बार स्टूडियो आना पड़ता है।डबिंग पूरी होने पर इसे दृश्य फिल्म के साथ तकनीकी दक्षता से जोड़ दिया जाता है।इस नयी तैयार फिल्म को विवाहित प्रिंट कहा जाता है।इस Married Print में अभिनेताओं, फाइनेंसर और वितरकों की संतुष्टि का ख्याल रखा जाता है।
(16) फिल्म (Married Print) अब Censor Board के पास Certificate लेने हेतु भेजी
जाती है और सेंशर द्वारा सुझाए बदलावों को संपादक , निर्देशक की अनुमति से
समाहित कर लेता है।
(17) पूरी फिल्म का पुनर्अभिलेखन(रि-रिकार्डिंग) होता है। इस बीच गीतों और टी0वी0 शो तथा ट्रेलर आदि के जरिए फिल्म दर्शकों में जिज्ञासा जगा चुकी होती है।
(18) अब कर्इ Release Prints तैयार किया जाते हैं। वितरकों को समझौते के अनुसार ये प्रिट उपलब्ध कराए जाते हैं।
(19) प्रेस के लिए प्रदर्शन आयोजित किये जाते हैं। इससे प्रिंट मीडिया में भी फिल्म की समीक्षाएँ आनी प्रारंभ हो जाती हैं और फिल्म दर्शकों को खीचनें में कामयाब होती है।
(20) अनेक अन्य स्तरों मसलन पोस्टर आदि द्वारा भी व्यापक प्रचार-प्रसार अभियान चलाया है, और
(21) सिनेमा थिएटरों में फिल्म प्रदर्शित कर दी जाती है।
2 टिप्पणियां:
जानकारीप्रद। शुक्रिया।
achchi jaankariyan de rahe hain aap filmo pr, niranter. aabhaar.
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