नित्यानंद जी को सुनने से हमेशा अपने भीतर नयी उर्जा का संचार पाना है।
साहित्य अकादमी के एक सेमिनार में बहुत दिनों के बाद प्रो. नित्यानंद तिवारी को सुना। कक्षाओं में भी उन्हें सुनता रहा हूँ। उनको सुनना हमेशा ज्ञानवर्धक और रुचिकर लगता है। उस दिन भी उन्होंने अमर्त्य सेन और मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की जो तुलना की वह अनूठी थी। टाटा के विज्ञापन का विश्लेषण भी गजब का। उनके पास एक ताकतवर शब्दावली है।बीज वाक्यों की अद्भुत बनावट करते हुए वे एक प्रेरणा आज भी देते हैं। गरीबी और मजलूमों के प्रति जो मानवीय करूणा पैदा होनी चाहिए, वह उनके व्याख्यानों को सुनकर आज भी प्रस्फुटित होती है। पाठालोचन का अनूठा अध्यापक है यह व्यक्ति।
आज जबकि अधिकांश अध्यापक ‘उदर भरहि सोइ धर्म सिखावइ’ की शैली में अध्यापन करते हुए आत्ममुग्ध रहते है वहीं तिवारी जी ने एक बौद्धिक की चिंता को व्यापक बनाने का सतत प्रयास किया है। बौद्धिक जैसे एक ‘कॉसमिक फेनोमेना’ बन जाता है, अपनी सीमाओं और क्षुद्रताओं का अतिक्रमण करते हुए।यह उन्हीं का बहुप्रयुक्त शब्द है।
मुझे वे दिन याद आते हैं जब मेरे स्व0 गुरू दीपक सिन्हा जी प्रो. तिवारी के बारे के बारे में बताया करते थे। जब मैं एम.ए. में आया और उनकी पाँच-सात कक्षाएँ ली तो कुछ समझ न आया। मुझे लगा उनकी प्रशंसा उनके विभागाध्यक्ष होने के चलते है। फिर भी मैं उनकी कक्षाओं में उपस्थित रहा। एक-दो कक्षाओं के बाद जब वे ‘पदमावत’ के पाठ और उसकी व्याख्या पर आए तो मानो एक चमत्कार-सा हुआ। शब्दों के भीतर से अर्थ, विस्फोट की तरह निकलने लगे। एक वाक्य की अनेक अर्थ लपटें। बस ,फिर मैं उनका कायल हो गया। जब मैं एम.फिल करने लगा तो मेरा मन दुबारा हुआ कि मैं उनकी एम.ए. प्रीवियस की क्लास में बैठूँ। उनसे इजाजत माँगी। वे सकुचाए (यह उनकी शालीनता ही थी) और कहा, ‘चलो आ जाया करो’। इस बार भी कुछ नया ही सीखने को मिला। बाद के दिनों में जब मैं खुद अध्यापन करने लगा तो उनकी अध्यापन शैली ही मेरी प्रेरणा स्रोत बनी। इसका फीडबैक आज भी जब मेरे विद्यार्थी देते हैं तो मुझे तिवारी सर की कक्षाएँ याद आती हैं।
उनकी दुबली-पतली काया मानों गलकर ज्ञान का उत्पादन करती हैं। पहले जब उनसे मिलता था तब कुछ लेाग कहते थे यह स्वार्थबस है। पर ऐसा तब भी नहीं था। आज उनको देखकर खुशी हुई कि वे स्वस्थ हैं और वैचारिक ऊर्जा से उतने ही भरे हुए जैसा कि में 1994-95 में थे।
अपने व्याख्यान में उन्होंने राजेश जोशी की कविता की प्रशंसा करते हुए कहा कि ‘कविता लिखना ही नहीं कवि द्वारा पढ़ते हुए सुनना भी एक अनूठा अनुभव होता है। बड़े कवि खराब ढंग से कविता पढ़ते देखे गए हैं। राजेश में काव्य वाचन की मार्मिकता है’।मैं भी कह सकता हूँ कि अध्यापन, ज्ञान का ही नहीं एक शैली का भी मसला है। तिवारी जी की शैली और उच्चारण साहित्य के मर्म को भेदने में समर्थ है। उनसे मैं सिर्फ एक ही व्यक्ति की तुलना थोड़ी अधिक गरिमा के साथ कर पाता हूँ- वे थे श्री किशन पटनायक।
यह पोस्ट शायद इसलिए लिख रहा हूँ कि अब उनसे मिल नहीं पाता, और यह बात उनसे कभी आमने-सामने कह नहीं सका।
साहित्य अकादमी के एक सेमिनार में बहुत दिनों के बाद प्रो. नित्यानंद तिवारी को सुना। कक्षाओं में भी उन्हें सुनता रहा हूँ। उनको सुनना हमेशा ज्ञानवर्धक और रुचिकर लगता है। उस दिन भी उन्होंने अमर्त्य सेन और मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्र की जो तुलना की वह अनूठी थी। टाटा के विज्ञापन का विश्लेषण भी गजब का। उनके पास एक ताकतवर शब्दावली है।बीज वाक्यों की अद्भुत बनावट करते हुए वे एक प्रेरणा आज भी देते हैं। गरीबी और मजलूमों के प्रति जो मानवीय करूणा पैदा होनी चाहिए, वह उनके व्याख्यानों को सुनकर आज भी प्रस्फुटित होती है। पाठालोचन का अनूठा अध्यापक है यह व्यक्ति।
आज जबकि अधिकांश अध्यापक ‘उदर भरहि सोइ धर्म सिखावइ’ की शैली में अध्यापन करते हुए आत्ममुग्ध रहते है वहीं तिवारी जी ने एक बौद्धिक की चिंता को व्यापक बनाने का सतत प्रयास किया है। बौद्धिक जैसे एक ‘कॉसमिक फेनोमेना’ बन जाता है, अपनी सीमाओं और क्षुद्रताओं का अतिक्रमण करते हुए।यह उन्हीं का बहुप्रयुक्त शब्द है।
मुझे वे दिन याद आते हैं जब मेरे स्व0 गुरू दीपक सिन्हा जी प्रो. तिवारी के बारे के बारे में बताया करते थे। जब मैं एम.ए. में आया और उनकी पाँच-सात कक्षाएँ ली तो कुछ समझ न आया। मुझे लगा उनकी प्रशंसा उनके विभागाध्यक्ष होने के चलते है। फिर भी मैं उनकी कक्षाओं में उपस्थित रहा। एक-दो कक्षाओं के बाद जब वे ‘पदमावत’ के पाठ और उसकी व्याख्या पर आए तो मानो एक चमत्कार-सा हुआ। शब्दों के भीतर से अर्थ, विस्फोट की तरह निकलने लगे। एक वाक्य की अनेक अर्थ लपटें। बस ,फिर मैं उनका कायल हो गया। जब मैं एम.फिल करने लगा तो मेरा मन दुबारा हुआ कि मैं उनकी एम.ए. प्रीवियस की क्लास में बैठूँ। उनसे इजाजत माँगी। वे सकुचाए (यह उनकी शालीनता ही थी) और कहा, ‘चलो आ जाया करो’। इस बार भी कुछ नया ही सीखने को मिला। बाद के दिनों में जब मैं खुद अध्यापन करने लगा तो उनकी अध्यापन शैली ही मेरी प्रेरणा स्रोत बनी। इसका फीडबैक आज भी जब मेरे विद्यार्थी देते हैं तो मुझे तिवारी सर की कक्षाएँ याद आती हैं।
उनकी दुबली-पतली काया मानों गलकर ज्ञान का उत्पादन करती हैं। पहले जब उनसे मिलता था तब कुछ लेाग कहते थे यह स्वार्थबस है। पर ऐसा तब भी नहीं था। आज उनको देखकर खुशी हुई कि वे स्वस्थ हैं और वैचारिक ऊर्जा से उतने ही भरे हुए जैसा कि में 1994-95 में थे।
अपने व्याख्यान में उन्होंने राजेश जोशी की कविता की प्रशंसा करते हुए कहा कि ‘कविता लिखना ही नहीं कवि द्वारा पढ़ते हुए सुनना भी एक अनूठा अनुभव होता है। बड़े कवि खराब ढंग से कविता पढ़ते देखे गए हैं। राजेश में काव्य वाचन की मार्मिकता है’।मैं भी कह सकता हूँ कि अध्यापन, ज्ञान का ही नहीं एक शैली का भी मसला है। तिवारी जी की शैली और उच्चारण साहित्य के मर्म को भेदने में समर्थ है। उनसे मैं सिर्फ एक ही व्यक्ति की तुलना थोड़ी अधिक गरिमा के साथ कर पाता हूँ- वे थे श्री किशन पटनायक।
यह पोस्ट शायद इसलिए लिख रहा हूँ कि अब उनसे मिल नहीं पाता, और यह बात उनसे कभी आमने-सामने कह नहीं सका।
3 टिप्पणियां:
चलिये, आमने सामने न सही, ऐसे ही सही-कह तो दिया.
मन की बाते आपने पन्नों में उतार दी है यही समझिये कि उन्हीं के समक्ष कहीं है।
mere man ki baat kahi gurudev
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