18 अप्रैल, 2012

डॉ0 एस0एस0राठी-जापान से एक श्रद्धांजलि

अप्रैल 2012 की 9 तारीख थ‍ी। मैं तोक्‍यो विदेश अध्‍ययन विश्‍वविद्यालय के अपने चैंबर में था और फेसबुक के माध्‍यम से भारत का हाल चाल जान रहा था। जापान में यह बसंत का मौसम है। लोग काफी दिन के बाद साफ मौसम का लुत्‍फ उठा रहे थे। साकुरा के फूल यहाँ के जीवन-दर्शन का अहम अंग है। ये फूल केवल एक हफ्ते तक अपनी छटा दिखाकर गायब हो जाते हैं। वैसे ही जैसे जीवन क्षण भंगुर है। वास्‍तव में जीवन की क्षणभंगुरता का ही उत्‍सव है जापान का साकुरा फूल।परसों जापान की हिंदी समिति के सदस्‍यों और प्रो0 सुरेश ऋतुपर्ण के साथ भारतीय दूतावास के पास साकुरा दर्शन के लिए गया था।चारों ओर लोगों का हुजूम था। खाते-पीते और मौजमस्‍ती करते लोग। शायद जापानियों के व्‍यस्‍त जीवन में कुछेक अवसर ही ऐसे आते हैं जब वे फुर्सत में हो पाते हैं। आज वे फूल झड़ने लगे हैं और सड़कों पर बिखर कर माहौल में अपनी खुशबू छोड़ गायब हो गये हैं।

फेसबुक पर आतिश पराशर ने एक दुखद सूचना दी। डॉ0 एस एस राठी नहीं रहे। अभिषेक ओमान में आन लाइन थे हम दोनों ने लगभग एक साथ एक दूसरे को बताया। यह सचमुच मेरे लिए गहरी छति थी। जापान आते वक्‍त उनसे मिल भी नहीं पाया था इसलिए और भी अफसोस हो रहा था। मेरे जहन में उनकी कई छवियाँ उभर आयी थीं।

राठी साहब के बारे में पहली बार तब सुना जब श्‍यामलाल कालेज सांध्‍य में पढ़ाने लगा था। उन दिनों मेरे गुरू दीपक सिन्‍हा जीवित थे और उनके प्रभाव और व्‍यक्तित्‍व के चलते मैं समाजवादी विचारधारा का ध्‍वजवाही था। आज भी गॉंधीवादी समाजवाद में मेरी दृढ़ आस्‍था है लेकिन झंडा मैने कंधे से उतार जरूर दिया है। उन दिनों विश्‍वविद्यालयी राजनीतिक चर्चाओं के दौरान राठी साहब का नाम अक्‍सर सामने आता था। आलम यह था कि यह धारणा बनी कि राठी विश्‍वविद्यालय का कोई गुंडा किस्‍म का आदमी है।एक दिन कला संकाय से गुजर रहा था एक कोने में कुछ लोग शराब पी रहे थे तब लोगों ने बताया कि सब राठी के लोग हैं। इससे राठी साहब की गुंडागर्दी संबंधी भ्रम और भी दृढ़ हो चला। दिन बीतते चले गए और जीवन का संघर्ष क‍ ठिन होता चला गया। लोग बात करते कुछ और काम करते कुछ और। इसी मुश्किल समय में मेरे मित्र डॉ0 तेज नारायण ओझा ने मेरी भरसक मदद की और राठी साहब के बारे में कुछ सामान्‍य चर्चा की और उनसे मिलने को कहा। मुझे याद आ रहा है कि मैं अंजन कुमार के साथ फिजिक्‍स वि भाग गया था जहाँ राठी सर से पहली बार मिला था। मित्रवर डा0 ओझा ने ही मिलवाया था। पर उस वक्‍त राठी सर बहुत व्‍यस्‍त थे और उन्‍होंने सिर्फ औपचारिकता भर पूरी की थी। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि आज जिस मुकाम पर मैं हूँ उसमें राठी साहब की निर्णायक भूमिका है। उनकी उपस्थिति मेरी तरह कई अध्‍यापकों को भयमुक्‍त बनाती थ‍ी। बात 31 दिसम्‍बर 2002 की है मुझे आदित्‍य भाई साहब ने सूचना दी थी कि मेरी नियुक्ति भीमराव अंबेडकर कॉलेज में हो गयी है। मैने फोन नम्‍बर उनसे लेकर पहली बार राठी सर से बात की और उनका धन्‍यवाद किया। 2 जनवरी की तारीख 2003 को मैं उनके उत्‍तरांचल अपार्टमेंट में मिला और मुझे याद है कि उनकी बेटी नीतू भी वहाँ मौजूद थ‍ी। काफी देर तक चर्चा होती रही। विश्‍वविद्यालय के बारे में और कुछ देश-समाज भी। घर लौटते हुए उनके बारे में मेरी धारणा बदलने लगी थी। फिर विश्‍वविद्यालय में लगभग रोज ही उनसे मिलना होता और एक समाजवादी होने के साथ कांग्रेस के प्रति भी झुकाव होने लगा। मेरे अग्रज अनिल ठाकुर ने कहा था कि आप कांग्रेसी होते जा रहे हैं और मैंने उत्‍तर दिया था कि संभव है फिर भी विचार तो समाजवादी ही हैं शायद मैं अब भी समाजवादी पत्रिका साम‍यिक वार्ता के लिए लिखता रहूँगा। मेरी इस बात पर वे मुस्‍कराते हुए बोले कि जिस दिन आप ऐसा करेंगे राठी साहब आपको ग्रुप से निष्‍कासित कर देंगे और मैं ठहाके मार कर हँस पड़ा था क्‍योंकि अब मैं राठी के अत्‍यंत करीब था और उनके व्‍यक्तित्‍व से परिचित हो चुका था। इसी के चलते मैंने वार्ता के लिए एक लेख भेजा और भाई महेश ने उसे छापा भी। लेख मैने राठी सर को भी दि खाया था और उन्‍होंने उसे पढ़ा और कहा अच्‍छा है लिखते रहो।

ट्रेड यूनियन के एक एक्टिविस्‍ट के रूप में उनका व्‍यक्तित्‍व कमाल का था। मुझे याद नहीं आता कि वे कभी भी ऐसे मुद्दे के खिलाफ रहे हों जो शिक्षक समूह के व्‍यापक हितों के अनुकूल रहा हो। कई बार उन्‍होंने अपने ग्रुप की समझ को भी सुधारा था और एक विस्‍तृत नजरिए को अपनाने की वकालत की थ‍ी। इसके साथ ही उनका मीडिया मैनेजमेंट भी गजब का था। अपने शिक्षक साथियों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए वे व्‍यग्र रहते थे। सबसे पहले एएडी का पैम्‍फलेट और पोस्‍टर विश्‍वविद्यालय में पहुँचाने की युक्ति सिर्फ उनके पास थ‍ी। डूटा के चुनावों के दौरान उनका उत्‍साह बढ़ जाता था। इन चुनावों को वे एक उत्‍सव की भाँति लेते थे। हमें भी इन दिनों नए लोगों से मिलने का अवसर मिलता था और विरोधियों से थोड़ी नोक-झोक का लुत्‍फ भी आता था। यह सब राठी साहब का प्रबंधन कौशल ही था कि हम लोग समय पर प‍हुँचने का उद्यम करते थे और देर होने पर उनकी प्‍यार भरी फटकार न मिले तो लगता था उन्‍होंने हमारी उपस्थिति दर्ज ही नहीं की है। उनका हर दिन एक सक्रिय दिन होता था और इसलिए उनके हमारे बीच में न होने की खबर मेरे लिए एक झटके के समान थी। सोचा था जब जुलाई में भारत लौटूँगा तो उनसे बहुत सी बातें साझा करूँगा। उनके साथ बैठना हमेशा आत्‍मीयता से युक्‍त होता था। अक्‍सर दीपावली के मौके पर उनके घर जाना होता और मेरी बेटी और छोटा भतीजा राठी सर से मिलने को आतुर रहते। मेरे घर और मित्रों बहुत कम लोग होंगे जो राठी सर से परिचित न हों। उनके बारे में कुछ न कुछ चर्चा यूँ ही हो जाया करती थ‍ी।

साकुरा के फूल अपनी छटा बिखेर कर गायब हो चले हैं। उनकी याद और और उनके साथ बिताया समय ही स्‍मृतियों में रह गया है। राठी सर भी अपनी यादें छोड़कर चले गये हैं पर वे अविस्‍मरणीय ही र‍हेंगे।

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