आजकल चुनावी करतब का जोर है इसलिए नए-नए राजनीतिक विश्लेषक भी पैदा हो गए है और उनको जगह मुहैया कराते अखबार भी। इन लेखों को आप देखें तो समझ जाएँगें कि ये बौद्धिक जुगाली की बेहतरीन मिसाल पेश करते हैं। बौद्धिक अंधविश्वास जैसी उक्ति से भले ही आप न परिचित हों पर यदि इन लेखों को पढ़े तो आप बखूबी इनका आकलन कर सकते हैं। इसी का ताजा उदाहरण जनसत्ता के अग्रलेख(25 अप्रैल,2009) जो कि किन्ही संजीव कुमार द्वारा लिखा गया है, में देखने को मिलता है। इसका शीर्षक है ‘तीसरे विकल्प की जरूरत’।इससे कौन इंकार कर सकता है कि अधिक विकल्प होने से लोकतंत्र मजबूत होता है और आम आदमी के लिए राह थोड़ी आसान हो जाती है। लेकिन जब इन विकल्पों की चर्चा केवल चुनावी मौसम में हो तब ऐसे विमर्श पर संदेह होना लाजमी है।अब तीसरा विकल्प उन लोगों द्वारा बताया,सुझाया जा रहा है जो लोकतंत्र पाँच वर्ष के सुदीर्घ जीवनकाल में लगभग साढ़े चार साल तक पहले विकल्प के साथ मलाई खाते रहे। अब देखें कि इस लेख की तासीर क्या कहती है। जैसे कि होता है,चुनाव के वक्त अखबारों के पृष्ठ,टी0वी0 चैनलों के स्लॉट सब बिक जाते हैं। अब क्या पता विचारक/विश्लेषक भी उसी तर्ज पर काम कर रहे हों। इसलिए यह लेख किसी दल विशेष का प्रायोजित कार्यक्रम जैसा बन गया है। लेखक बड़ी तल्खी और तफसील से पहले और दूसरे विकल्पों की आर्थिक नीतियों के साथ उनकी अमेरिकापरस्ती और सांप्रदायिकता आदि की चर्चा करता हैऔर निंदा भी। फिर तीन बड़े शब्दों- उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण – को लगभग मंत्र की तरह भजता है। लब्बोलुआब यह कि जैसे तीसरा विकल्प आया और यह सब स्थगित। अब संजीव जी को कुछ न कुछ तो जरूर चाहिए होगा जिससे वे इस तरह के ठस्स तर्को का इजहार करते हैं।पर,जनसत्ता को क्या हो गया?
जरा तीसरे विकल्प में शामिल हुए या होने को लालायित/संभावित दलों की सूची देखें-
बहुजन समाज पार्टी
बीजेडी
राष्ट्रवादी कांग्रेस
समाजवादी पार्टी
राष्ट्रीय जनता दल
तुलगु देशम तथा कुछ दक्षिण के दल
और इन सब का सूत्रधार वाममोर्चा
इनमें से कौन सा ऐसा दल है जो उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण का वास्तविक विरोधी है। सवाल उठता है कि यदि कांग्रेस सेकुलरिज्म को भुनाती है और भाजपा धार्मिक अंधविश्वास को तो क्या तीसरा मोर्चा उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण के खौफ से सत्ता का खेल खेलना चाहता है। सत्ता मूल है-खेल के तरीके अलग-अलग। जनसत्ता की संपादकीय टीम के कौशल और दक्षता पर संदेह नहीं किया जा सकता पर इस लेख के चयन में उनसे भारी चूक हुई है। लेख का समापन वाक्य अंतर्विरोधी,चालाकी भरा और स्वयं इस लेख की निस्सारता को उजागर कर देता है। यह वाक्य है, ‘आप ऐसी हजार वजहें गिना सकते हैं जो इन जरूरतों को पूरा करने की वामदलों की कोशिश को नाकामयाब कर देंगी,लेकिन आप इन जरूरतों की आवश्यकता से इंकार नहीं कर सकते,अगर देश का आम आदमी आप की निगाह में है।’आम आदमी की बात कर देने भर से सरोकार तय नहीं होते।वामदलों का रवैया आम आदमी ने सिंगूर और नंदीग्राम में देखा है। लेखक/विचारक भी अपने जीवन में ‘प्रोग्रेस’ चाहते हैं। ऐसे लेखों का उद्देश्य यह होता है कि –ताकि सनद रहे और अवसर आने पुरस्कृत हुआ जा सके। पर, पाठक हमेशा मूर्ख नहीं होता।
2 टिप्पणियां:
तीसरा विकल्प तब उचित होता जब योग्य पार्टियां होतीं और योग्य नेता होते। जो भी छोटे-मोटे, काने-कुबडे दल हैं वह केवल सत्ता में अपना हिस्सा लेकर मलाई काटना चाहते हैं। इसलिये, फिलहाल तो इन दोनों सांपनाथ और नागनाथ के बीच से ही चुनने का विकल्प है। देखें, आगे क्या होता है।
आज तीसरा विकल्प खुद ही १२ पी ऍम को लेकर बन रहा है . मतभेद इतने है की इसकी परिकल्पना संभव नहीं
एक टिप्पणी भेजें