11 जनवरी, 2009

छत पर गुलाब


मेरी छत पर जब
कोई गुलाब खिलता है
अनेक यादें भी खिल जाती हैं
साथ-साथ।
बेटी की
जब उसका जन्‍म हुआ
और उसकी किलकारियों की
शुरूआत ।
गाँव के अनेक
चित्र उभार देता है
गुलाब
खेतों खलिहानों के
और ‘उसके’
जब उसे पहली बार देखा था
कुएँ पर
हथेलियों के बीच
अपना मुँह छिपाए-मगन।
माँ का चेहरा
जैसे पंखुड्रियों के किनारे सूख गए हों
फिर भी बाकी हो
उनमें तेज
और सुगंध भी।
गुलाब के साथ अनेक यादें
उभरती हैं
नेहरू और निराला की।
छत पर खिला गुलाब
ढँक देता है
काँटों की चुभन कभी-कभी
बस कभी-कभी