19 दिसंबर, 2008

सत्ता और संस्कृति

सत्ता और संस्कृति, आधुनिक काल में एक दूसरे के अत्यंत निकट है और एक दूसरे पर उनका प्रभाव जबर्दस्त है। संस्कृति की कुछ परिभाषाओं और मानव की विकास परंपरा को ध्यान रखे तो हमें यह साफ दिखाई देता हैं कि सत्ता और संस्कृति के अंतर्संबंध हमेशा से जटिल रहे हैं और यह जटिलता निरंतर संश्लिष्ट होती चली गयी है। आज जबकि हम उत्तर आधुनिक परिस्थितिया से गुज़र रहे है, जहाँ विचारधारा, इतिहास और लेखक का अंत हो गया है या उसकी घोषणा की जा रही है वहाँ संस्कृति की पड़ताल इस नए विचार से टकराने का भी प्रयास होगा।
सत्ता और संस्कृति को लेकर जो बहस चल रही है, उसमें एक विचार–समूह का मानना है कि ये दोनों दो निरपेक्ष और एक–दूसरे से अछूती अवधारणाएँ है। लेकिन इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। श्यामाचरण दुबे अपनी पुस्तक में इसका स्पष्ट उल्लेख करते हैं, ‘‘विचारकों का एक सशक्त और मुखरवर्ग संस्कृति की स्वायत्तता का समर्थक है, उसे संस्कृति के क्षेत्र में सत्ता का कोई हस्तक्षेप स्वीकार नहीं है, इसके विपरीत ध्रुव पर विचारकों का दूसरा वर्ग है, जो संस्कृति के संबंध में विचार करते समय उन आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक प्रक्रियाओं और शक्तियों को नहीं भूलता जिनके द्वारा अंतत: संस्कृति का स्वरूप निर्धारित होता है।’’ एक तीसरा वर्ग संस्कृति को न तो पूर्ण स्वायत्त मानता है और न ही उसे सत्ता पर पूर्ण निर्भर। संस्कृति का निर्माण मानवीय आवश्‍यकताओं के दबाव से होता है। इसी अर्थ में न तो उसका स्थायीकरण किया जा सकता है और न ही उसके मानक तैयार किये जा सकते है। परिवर्तनधर्मिता और गतिशीलता उसकी प्रकृति में है। राजनीतिक निर्णय उसकी दिशा भले ही तय करते हो लेकिन उसके कलात्मक और सर्जनात्मक पहलुओं पर अनावश्यक दबाव सांस्कृतिक विघटन को ही जन्म देता है। संस्कृति की व्याख्या करते हुए हम उसके व्यापक पक्ष पर विचार करते हैं जिसम समग्र सीखे हुए व्यवहार आते है। इसके अंतर्गत मानव और प्रकृति, मानव और समाज और मानव और अदृश्य जगत की शक्तियों के सभी अंत:संबंध आते हैं। इसके तहत मानव के अंतर्जगत् – विचार, विवेक, व्यक्तिगत मूल्य एवं निष्ठाएं और व्यक्तिगत ऊर्जा तथा उल्लास की अभिव्यक्ति भी निहित होती हैं।
इस दृष्टिकोण से देखे तो हम पाते हैं कि निर्मल वर्मा का साहित्य और उनका चिंतन दोनों ही मानव और अदृश्य जगत की सत्ता पर विचार करते हैं जिनमें व्यक्तिगत मूल्य और ऊर्जा के महत्व को प्रतिष्ठित किया गया है। मानव और प्रकृति के अंत:संबंध उनकी रचनाओं का परिवेश गढ़ते हैं । उनका साहित्य संस्कृत के बहुमुखी आयामों को खोलता है और उन्हें पोषता है।
सत्ता–निर्णय लेती है और उन्हें लागू करवाती है अधिकार तंत्र इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है लेकिन इसमें यह भी जोड़ देना आवश्यक है कि ‘‘पद और अधिकार ही सत्ता के स्रोत नहीं होते, निर्णय और उनके प्रवर्तन की प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले व्यक्ति और समूह भी उसमें भागीदार होते है ।कई महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक निर्णय औपचारिक अधिकार तंत्र द्वारा किए जाते है, किंतु उनके पीछे परंपरा, बदलते सांस्कृतिक रुझानों और वृत्तिमूलक समूहों की शक्ति और उनके दबाव भी होते हैं।’’ सत्ता–संचार माध्यमों एवं शिक्षा का नियमन करती है जो अंतत: संस्कृति को प्रभावित करते हैं ।संचार माध्यमों की बेतहाशा वृद्धि और सूचना–विस्फोट के परिणामस्वरूप संस्कृति को नए ढंग से समायोजन करना पड़ रहा है। पहले संस्कृतियों को एक दूसरे से स्वायत्त रहने की आज़ादी हासिल थी लेकिन अब प्रत्येक संस्कृति को दूसरी संस्कृतियों के साथ तालमेल बिठाना पड़ रहा है क्याकि इस प्रक्रिया से अब बच पाना असंभव है। भूमंडलीकरण और विश्व ग्राम की नई सोच ने एक नए तरह की चुनौती प्रस्तुत कर दी है।
आधुनिक काल में राजनीति और संस्कृति एक दूसरे के अत्यंत करीब है। सांस्कृतिक धरोहरों, संग्रहालयों, देश–विदेश में महोत्सवों का आयोजन सत्ता के निर्णय द्वारा ही संभव हो पाते है। इन निर्णयों के लिए राजनीतिक सत्ताधारी प्रशंसा प्राप्त करता है और इसका परोक्ष लाभ भी उसे प्राप्त होता है इसलिए संस्कृति की राजनीति भी खूब होती है और ‘सांस्कृतिक सामंतवाद’ का ख़तरा भी पैदा होता है। आज जबकि संस्कृति के अनेक प्रश्न और उनके संरक्षण का बहुत कुछ जिम्मा राजनीति के ऊपर है तो हमें ध्यान रखना होगा कि राजनीतिक–संस्कृति भी बची रहे और उसका कड़ाई से पालन करने की दृढ़ इच्छाशक्ति भी। यह सत्ता को ही तय करना होगा कि वह सांस्कृतिक मामलों में किस हद तक और कैसे अपना हस्तक्षेप करे – इसकी मर्यादाएं वह स्वयं निर्धारित कर इनका सम्मान करे।
सत्ता और संस्कृति के आपसी संबंधों पर विचार करते हुए हमें यह भी ध्यान रखना है कि भारत में सांस्कृतिक सूत्र,सत्तात्मक सूत्रों से अधिक मज़बूत रहें और इस देश के चरित्र की व्याख्या उनके आधार पर अधिक सटीक ढंग से संभव है। अर्थात् संस्कृति ने इस देश की एकता और अखण्डता को धागों को जितनी मजबूती दी है उतनी राज्य की शक्तियाँ न दे सकी है। इस सिलसिले में दो उद्धरण देने होगे – निर्मल जी अपने निबंध ‘भारत–एक स्वप्न’ में लिखते हैं ‘‘हम भूल गए कि भारत केवल एक राज्य–सत्ता, नेशन स्टेट ही नहीं है – जैसा पश्चिम की अनेक राष्ट्रीय सत्ताएँ है ..... जो अपनी सीमाओं में आबद्ध होकर ही अपनी अस्मिता परिभाषित कर पाते है ।इसके विपरीत शताब्दियों से भारत की सीमाएँ वे स्वागत द्वार रहे हैं, जिनके भीतर आते ही उत्पीडि़त और त्रस्त जातियाँ अपने को सुरक्षित पाती रही है।’’ कुछ ऐसी ही बात पर ज़ोर देते हुए डॉ. राधाकृष्णन, दर्शनशास्त्र के आचार्य डॉ. एस. आबिद हुसैन की इस बात पर बल देते हैं कि ‘‘भारत का हजारों वर्षों का सांस्कृतिक इतिहास दर्शाता है कि एकता का सूक्ष्म किंतु मज़बूत धागा, जो उसके जीवन की अनंत विविधताओं में से होकर जाता है, सत्ता समूहों के ज़ोर देने या दबाव के कारण नहीं बुना गया। बल्कि भविष्य द्रष्टाओं की दृष्टि, संतों की चेतना, दार्शनिकों के चिंतन और कवि कलाकारों की कल्पना का परिणाम है, और केवल ये ही ऐसे माध्यम हैं, जिनका राष्ट्रीय एकता को व्यापक, मज़बूत तथा स्थायी बनाने में उपयोग किया जा सकता है।’’ यही वह बिन्दु है जहाँ भारतीय संस्कृति की अपनी विशेषताएँ उभर कर उसे पाश्चात्य संस्कृतियों से भिन्‍न और विशिष्ट बनाती हैं। भारतीय भाषाओं के साहित्य के अवलोकन से इस बात की पुष्टि करना कोई अटपटा कार्य नहीं है बल्कि वह सहज सिद्ध है। निर्मल वर्मा के समूचे साहित्य को देखने पर उनकी यह सांस्कृतिक समझ हमें भाती है और हम उनके सतही स्थूल और तथाकथित पाश्चात्य प्रभाव के बावजूद उन्हें भारतीय संस्कृति का रचा–पगा साहित्यकार मानने को बाध्य होते हैं।
उपरोक्त विवेचन से यह निर्णय आसानी से निकाला जा सकता है कि सत्ता और संस्कृति के आपसी संबंध भारत और पश्चिम में एक जैसे नहीं है। पश्चिम में राज–सत्ता का वर्चस्व संस्कृति पर हावी रहा है इसीलिए वहाँ (मार्क्‍सवादी विमर्श में) राज–सत्ता एक ख़तरे के रूप में महसूस की जाती रही है। भारत में सत्ता और संस्कृति, अपेक्षाकृत एक दूसरे के पूरक है और उनके मध्य सहज संबंध आज तक बना रहा है। सांस्कृतिक तत्त्व आज भी सत्ता की प्राप्ति में सहायक हो सकते हैं इसे आज भी हमें स्वीकार करना पड़ेगा।

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